ब्रह्मसूत्र उपनिषदों का सार है। वेदव्यासजी ने उपनिषदों के आधार पर जो सूत्रमयी रचना की उसी का नाम ब्रह्मसूत्र है, जिसे ‘उत्तरमीमांसा’, ‘वेदान्त सूत्र’ अथवा ‘भिक्षुसूत्र’ आदि के नाम से भी हम जानते हैं। गीता की रचना से पूर्व ब्रह्मसूत्र का निर्माण हो चुका था। (“ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:” – गीता १३.४)
यदि विचार पूर्वक देखें तो पता चलता है कि वेदव्यास जी ने एक ही उपनिषद् को आधाररूप स्वीकार कर, उसी के आधार पर ब्रह्मसूत्र का निर्माण किया है। वह उपनिषद् है – ‘तैत्तिरीयोपनिषद्’।
तैत्तिरीयोपनिषद् कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा के अन्तर्गत तैत्तिरीय आरण्यक के दस अध्याय में से सातवें, आठवें और नौवें अध्याय का संकलन है।
तैत्तिरीयोपनिषद् में तीन वल्लियाँ हैं जो, १. शिक्षावल्ली २. ब्रह्मानन्दवल्ली और ३. भृगुवल्ली के नाम से प्रसिद्ध हैं।
१. शिक्षावल्ली – इस प्रकरण में दी हुई उपासना और शिष्टाचार की शिक्षा के अनुसार अपना जीवन बना लेने वाला मनुष्य इस लोक और परलोक में सर्वोत्तम फल को प्राप्त कर सकता है और आगे दी जाने वाली ब्रह्मविद्या को ग्रहण करने में समर्थ और अधिकारी हो जाता है। इसी भाव को समझाने के लिए इस प्रकरण का नाम शिक्षावल्ली रखा गया है।
२. ब्रह्मानन्दवल्ली – ब्रह्मविद्या का निरूपण इस प्रकरण में किया गया है। अर्थात् ब्रह्मानन्दवल्ली में ब्रह्मविद्या को समझाया गया है, इसका प्रयोजन बताया गया है।
३. भृगुवल्ली – वरुण ने अपने पुत्र भृगु को जिस ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था, उसी का वर्णन इस प्रकरण में मिलता है। अतः इस कारण इसका नाम भृगुवल्ली है।
वेदव्यासजी की दृष्टि में तैत्तिरीयोपनिषद् का कितना महत्व था, यह इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपने सूत्रों के आदि से अन्त तक के प्रत्येक सूत्र इसी उपनिषद् के आधार पर रखे।
ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र पर ध्यान दें : ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ – ब्रह्मसूत्र १.१.१
इस सूत्र में आये चारो पदों पर ध्यान दीजिए : अथ, अतः, ब्रह्म, जिज्ञासा।
१. अथ – शिक्षावल्ली : सम्बन्ध है ‘अधिकार’ का। ब्रह्मविद्या का अधिकारी कौन होता है?
जो भी भृगु जी की भाँति वेदाध्ययन के पश्चात् गृहस्थाश्रम के धर्मों का यथावत् पालन करे, स्वाध्याय–प्रवचनरूपी तप आदि साधन सम्पत्ति से युक्त हो कर सांसारिक सुखों की अनित्यता को समझे और ब्रह्मज्ञान का खोज करे, वही इसका अधिकारी है। यहाँ ‘अथ’ शब्द का अर्थ ‘अनन्तर’ या ‘इसके बाद’ भी है। यह अवस्थाएँ ही पूर्व की हैं। इन्हीं के अनन्तर अथवा बाद जिज्ञासु का अधिकार ब्रह्म विषयक ज्ञान में होता है।
२. अतः – ब्रह्मानन्दवल्ली : सम्बन्ध है ‘प्रयोजन’ का।
भृगु जी को वन में जाने का प्रयोजन है – अक्षय वस्तु की खोज, जो सुख–दुःख से भी परे या विलक्षण है। यदि संसार सुख से ही तृप्ति हो जाती तो फिर घर से बाहर जा कर अन्य वस्तु की खोज का कुछ प्रयोजन ही न रह जाता। ‘अतः’ शब्द इन्हीं भावों का सूचक है।
३. ब्रह्म और ४. जिज्ञासा – भृगुवल्ली : सम्बन्ध है ‘विषय’ का।
ब्रह्म ‘विषय’ है जिसका निरूपण किया गया है –
भृगुर्वै वारुणिः वरुणं पितरमुपससार अधीहि भगवो ब्रह्मेति।
– तैत्तिरीयोपनिषद् ३.१.१
अर्थात् भृगुनाम के प्रसिद्ध ऋषि थे जो वरुण के पुत्र थे। उनके मन में ब्रह्म को जानने और प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा हुई, तब वे अपने पिता वरुण के पास गये।
भृगु की जिज्ञासा का विषय स्पष्टरूप से ब्रह्म ही है। ऐसी जिज्ञासा क्यों हुई? क्योंकि वेदाध्ययन के समय वे ब्रह्म की चर्चा सुन चुके थे।
अच्छा, ब्रह्मसूत्र में ‘ब्रह्म’ की ही जिज्ञासा क्यों हुई?
इसका उत्तर भी तैत्तिरीयोपनिषद् में मिलता है – “ब्रह्मविदाप्नोति परम्” – २.१.१
ब्रह्मवित् = ब्रह्मज्ञानी, परम् = ब्रह्म को, आप्नोति = प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म को अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इसी बात को गीता कहती है –
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
– १८.५५
अर्थ है – उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ ब्रह्म को, मैं जितना हूँ और जो हूँ – इसको तत्व से जान लेता है तथा मेरे कोतत्त्व से जान कर फिर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।
और धर्म का लक्ष्य भी तो मोक्ष ही है –
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। – वैशेषिकसूत्र १.१.२
अर्थ में उदयनाचार्य लिखते हैं : अभ्युदय = तत्वज्ञान, इसके द्वारा मोक्ष की सिद्धि जिससे होती है, वह धर्म है।
इस प्रकार ब्रह्मसूत्र के पहले सूत्र से प्रारम्भ होकर अन्तिम सूत्र “अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात्” – ब्रह्मसूत्र ४.४.२२
अर्थात् ब्रह्मलोक में गये हुए आत्मा का पुनरागमन नहीं होता; यह बात श्रुति के वचन से सिद्ध होती है। – यहाँ तक की रचना तैत्तिरीयोपनिषद् पर अवलम्बित है और इसी कारण वेदव्यास जी की दृष्टि में तैत्तिरीयोपनिषद् का इतना महत्व था।
अत्यंत सराहनीय