ॐ नमः शिवाय
शिव और मंत्र का वाच्य वाचक भाव अनादिकाल से चला आ रहा है। जैसे यह घोर संसार सागर अनादिकाल से चला आ रहा है, उसी प्रकार संसार से छुडाने वाले भगवान शिव भी अनादिकाल से ही नित्य विराजमान हैं। यह प्रणव है।
जैसे औषधि रोगों का स्वभावतः शत्रु है उसी प्रकार भगवान शिव संसार दोषों के, विकारों के स्वाभाविक शत्रु माने गए हैं।
शिव पुराण संहिता में कहा गया है कि सर्वज्ञ शिव ने संपूर्ण देहधारियों के सारे मनोरथों की सिद्धि के लिए इस सिद्ध एवं सरल ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का प्रतिपादन किया है। यह आदि षडाक्षर मंत्र संपूर्ण विद्याओं का बीज है।
प्रणव के दो भेद बताए गए हैं – स्थूल और सूक्ष्म।
एक अक्षर जो ‘ॐ’ है उसे सूक्ष्म जानना चाहिए और ‘नमः शिवाय’ इस पांच अक्षर वाले मंत्र को स्थूल प्रणव समझना चाहिए।
जैसे वट बीज में महान वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यंत सूक्ष्म होने पर भी यह मंत्र महान अर्थ से परिपूर्ण है – ॐ इस एकाक्षर मंत्र में तीनों गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, द्युतिमान, सर्वव्यापी, प्रभु शिव ही प्रतिष्ठित हैं।
ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्ष रूप ब्रह्म हैं, वे सब ‘नमः शिवाय’ इस मंत्र में क्रमशः स्थित हैं। सूक्ष्म षड़ाक्षर मंत्र में पंचब्रह्मरूपधारी साक्षात् भगवान शिव स्वभावतः वाच्य और वाचक भाव से विराजमान हैं। अप्रमेय होने के कारण शिव वाच्य है और मंत्र उनका वाचक माना गया है। यदि भगवान विश्वनाथ न होते तो यह जगत अंधकारमय हो जाता, क्योंकि प्रकृति जड़ है और जीवात्मा अज्ञानी। अतः इन्हें प्रकाश देने वाले परमात्मा ही हैं। उनके बंधन और मोक्ष भी देखे जाते हैं। अतः विचार करने से सर्वज्ञ परमात्मा शिव के बिना प्राणियों के आदिसर्व की सिद्धि नहीं होती।
जैसे रोगी वैद्य के बिना सुख से रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिव का आश्रय न लेने से संसारी जीव नाना प्रकार के क्लेश भोगते हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि जीवों का संसार सागर से उद्धार करने वाले स्वामी अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव विद्यमान हैं।
भगवान शिव आदि मध्य और अंत से रहित हैं। स्वभाव से ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण हैं। उन्हें शिव नाम से जानना चाहिए। शिव गम में उनके स्वरूप का विशदरूप से वर्णन है। यह पंचाक्षर मंत्र उनका ही नाम है और वे शिव अभिधेय हैं। अभिधान और अभिधेय रूप होने के कारण परम शिवस्वरूप यह मंत्र सिद्ध माना गया है।
‘ॐ नमः शिवाय’ यह जो षड़ाक्षर शिव वाक्य है, शिव का विधि वाक्य है, अर्थवाक्य नहीं है। यह उन्हीं शिव का स्वरूप है जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल हैं। सर्वज्ञ शिव ने जिस निर्मल वाक्य पंचाक्षर मंत्र का प्रणयन किया है, वह प्रमाणभूत ही है, इसमें संयम नहीं है। षड़ाक्षर मंत्र में छहों अंगों सहित संपूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं, अतः उसके समान दूसरा कोई मंत्र कहीं नहीं है।
सात करोड़ महामंत्रों और अनेकानेक उपमंत्रों से यह षड़ाक्षर मंत्र उसी प्रकार भिन्न है, जैसे वृत्ति से सूत्र। जितने शिवज्ञान हैं और जो-जो विद्यास्थान हैं, वे सब षड़ाक्षर मंत्र रूपी सूत्र के संक्षिप्त भाष्य हैं।