वह कौन सा वन था? अथवा वह कौन सा वृक्ष था? जिससे ये स्वर्ग और पृथ्वी छाँट कर अलग किए गए। हे मनीषी विद्वद्गण! अपने मन से मनन करके पूछिए की कौन इन चौदह भुवनों को धारण करता हुआ अध्यक्ष बनकर बैठा है? — तैत्तिरीय ब्राह्मण
इन प्रश्नों का समाधान इसी ब्राह्मण ग्रंथ में किया गया है — ब्रह्म ही वह वन था, ब्रह्म ही वह वृक्ष था और ब्रह्म ही सारे भुवनों को धारण करते हुए इस सृष्टि का अध्यक्ष बन कर बैठा है।
सृष्टि से पूर्व सब सृष्टिप्रपंच अंधकार रूप था, अप्रज्ञात अर्थात इंद्रियों द्वारा जानने योग्य न था, इसका परिचय जानने के लिए कोई चिन्ह शेष न था इसलिए अनुमान से भी अगम्य था।
सृष्टिक्रम जानने से पहले सृष्टि क्या है यह जानना आवश्यक है। व्याकरण के नियमानुसार ‘सृज्’ धातु का अर्थ ‘संसर्ग’ अर्थात ‘एक दूसरे में मिलना’ है, वास्तव में जगत की सृष्टि और कुछ नहीं बल्कि कुछ तत्त्वों के परस्पर मिलने से नया रूप बनना है, इसी को नई सृष्टि कहते हैं। सृष्टि को शास्त्रों में ‘सर्ग’ भी कहा गया है, यह शब्द भी ‘सृज्’ धातु से बना है।
अव्यक्त कारण जो सदा सत्-असत् रूप में रहता है, जिसे तत्त्वचिंतक लोग प्रधान एवं प्रकृति कहते हैं, जो नित्य, जगत का कारण, पर-ब्रह्म, सनातन, समस्त भूतों का विग्रह और अव्यक्त कहलाता है। यही आत्मा आदि अंत से रहित, सूक्ष्म, निर्गुण, उत्पत्ति एवं प्रलय का स्थान था और उसी आत्मा से यह जगत व्याप्त था। इस समय गुणों की साम्यावस्था थी। यही परमसत्ता जब परम पद का त्याग करती है तब भावी प्राणधारी जीव, हिरण्यगर्भ आदि नाम से जानी जाती है, ऐसा होने पर भी ब्रह्मसत्ता स्वरूप से विनष्ट नहीं होती। क्योंकि यह केवल संकल्प मात्र से संसारोन्मुख होती है, विकार आदि क्रिया से नहीं। अर्थात ब्रह्म स्वभाव ही ऐसा है, यह केवल संकल्प मात्र (स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति) से संसार भाव को प्राप्त होता है।
सृष्टि के आरम्भ में अपने स्वरूप में प्राप्त काल, कर्म और स्वभाव को परमात्मा ने अपनी माया से एक से अनेक होने की इच्छा को स्वीकार कर लिया।
सृष्टि के समय एक गुण (सत्त्व-बहुल) से युक्त ‘महान’ नामक तत्त्व उत्पन्न हुआ। किस प्रकार उत्पन्न हुआ? “कालात् गुण व्यतिकर:” — परमात्मा के द्वारा अधिष्ठित ‘काल’ ने गुणों में क्षोभ उत्पन्न कर दिया, और “स्वभावतः परिणामो रूपांतरापत्ति:” — स्वभाव ने उन सबको परिणाम अर्थात रूपांतरित कर दिया।
यह ‘महान’ तत्त्व पहले सूक्ष्म ‘महत्’ अव्यक्त से ढँका था। इस सत्-असत् महान तत्त्व को अनेकों नाम से जाना जाता है जैसे मन, लिङ्ग, मति, ब्रह्मा, भू, बुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, चिति, स्मृति, संविद्, ज्ञान, भव, क, पुरुष, स्वयंभू, विपुर आदि।
सृष्टि की इच्छा होने पर यह ‘महान’ तत्त्व सृष्टि करता है। संकल्प तथा अध्यवसाय (अविश्राम परिश्रम) इसकी दो वृत्तियाँ हैं, यह सात्त्विक, राजस और तामस रूप से त्रिगुण है। त्रिगुण में रजोगुण की अधिकता से ‘अहंकार’ उत्पन्न हुआ। अहंकार महान तत्त्व से आवृत था, यही आदि भूत था, विकृत था। अहंकार ‘अहम्’ इस अभिमान से युक्त एवं अपने कार्य को करने में समर्थ होता है।
अहंकार तीन प्रकार का है — वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और भूतादि रूप तामस। वैकारिक अहंकार ज्ञानशक्ति से युक्त है, तैजस अहंकार क्रियाशक्ति से युक्त है तथा तामस अहंकार द्रव्यशक्ति से युक्त हुआ।
१. दस इंद्रियों के अधिष्ठाता दस देवता [(दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार)- ५ ज्ञानेन्द्रिय, (अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और प्रजापति) — ५ कर्मेन्द्रिय] और ग्यारहवीं इंद्रिय मन (इसके भी अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा)- ये वैकारिक अर्थात सात्त्विक अहंकार की सृष्टि हैं।
२. इंद्रियाँ तैजस अर्थात राजस अहंकार से प्रकट हुई हैं- इस सृष्टि में १० इंद्रियों की सृष्टि होती है — ५ ज्ञानेन्द्रिय और ५ कर्मेन्द्रिय।
३. इनमें से तमोबहुल अहंकार से भूततन्मात्र की सृष्टि हुई।
तन्मात्रासमूह संकल्परूप चैतन्य ही है, उससे भिन्न नहीं है। यह सूक्ष्म होते हैं और स्थूलता (पंचमहाभूत) को प्राप्त होते हैं। विकाररहित होने के कारण ये तन्मात्राएं क्षण भर में ही स्थूलता को प्राप्त हो जाती है, इसमें समय नहीं लगता है। इनके स्थूलभाव को प्राप्त होने पर भी इनके सूक्ष्म रूप की क्षति नहीं होती क्योंकि जिस अधिष्ठान में विवर्त (पिंडीभाव) होता है उसका विकार नहीं होता है।
अहंकार (आदिभूत) के विकृत होने पर ‘शब्द’ तन्मात्रा की सृष्टि हुई और उससे ‘शब्द’ लक्षण वाला ‘आकाश’ उत्पन्न हुआ।
फिर भूतादि अहंकार ने शब्दमात्र आकाश को ढँक लिया, और उस शब्दमात्र आकाश ने स्पर्श तन्मात्रा की सृष्टि की। स्पर्शतन्मात्रा से बलवान वायु उत्पन्न हुआ उसका गुण स्पर्श है। इंद्रियों में स्फूर्ति और प्राण में देह धारण की शक्ति, ओज और बल वायु के ही कारण है।
शब्दमात्र आकाश ने स्पर्शतन्मात्रा को ढँक लिया, वायु ने विकृत होकर रूप तन्मात्रा की सृष्टि की। वायु से ज्योति की उत्पत्ति होती है। ज्योति का गुण रूप है।
वायु की स्पर्शतन्मात्रा को रूपतन्मात्रा ने आच्छादित कर लिया, फिर ज्योति की विकृति से रस तन्मात्रा की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात ताप से रसमय जल की सृष्टि होती है।
जल की तन्मात्रा भी रूपतन्मात्रा से आवृत होती है, जलीय रसमात्र की विकृति से गंधमात्रा का उद्भव हुआ, इसी से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। इसका गुण गंध है। तन्मात्रा अर्थात एक-एक भूत में दो या दो से अधिक (शब्द आदि) की मात्रा रहती है। तन्मात्रा को ही ‘अविशेष’ भी कहा जाता है।
आकाश — शब्द गुण
वायु — शब्द, स्पर्श गुण
अग्नि — शब्द, स्पर्श, रूप गुण
जल — शब्द, स्पर्श, रूप, रस गुण
पृथ्वी — शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध गुण
यह सब तामस अहंकार से होने वाली सृष्टि है। ये पाँचों भूत स्थूल, शान्त, घोर, मूढ़ तथा विशेष (इंद्रिय ग्राह्य होने के कारण) कहे गए हैं। ये पंचभूत इस प्रकार संमिश्रण को प्राप्त होते हैं कि महाप्रलय तक पृथक और शुद्ध नहीं पाए जा सकते।
‘महत्’ तत्त्व से लेकर ‘विशेष’ पर्यंत ये सातों एक दूसरे के आधार बनकर पुरुष के अधिष्ठान और अव्यक्त के अनुग्रह से ‘अण्ड’ की उत्पत्ति करते हैं। इस तरह भूतों से प्रकट हो क्रमश: वृद्धि को प्राप्त हुआ वह विशाल अण्ड पानी के बुलबुले की तरह सब ओर से समान-गोलाकार दिखाई देने लगा। वह जल के ऊपर स्थित होकर हिरण्यगर्भ के रूप में प्रकट हुए परमात्मा का उत्तम स्थान बन गया। सम्पूर्ण विश्व के स्वामी अव्यक्तरूप परब्रह्म स्वयं ही ब्रह्माजी का रूप धारण कर उस अण्ड के भीतर विराजमान हुए। यही प्रथम शरीरी हैं, और इन्हें ही पुरुष कहा गया है। यही हिरण्यगर्भ पुरुषेश्वर, अज, प्रथम, विशिष्ट, प्रजारूप, लोकतंत्र स्वयंभू ब्रह्मा हैं। भूतों के आदि कर्ता ब्रह्मा ही सबसे पहले रहे, सर्ग या प्रतिसर्ग (प्रलय) में सबसे प्रथम यही हिरण्यगर्भ चतुर्मुख ब्रह्म नामक क्षेत्रज्ञ प्रकट होते हैं। इस अण्ड के भीतर सारे सातों लोक, सातों समुद्रों के साथ सात द्वीपवाली पृथ्वी छिपी हुई है। सहस्त्रों नदियाँ, पर्वत, लोक, समूचा जगत, सूर्य, चन्द्र, ग्रह और वायु जो कुछ है सब इसी में समाहित है।
क्या सृष्टि (अहंकार, आकाश आदि) हिरण्यगर्भ से होती है? नहीं यह सब सृष्टि उस परमसत्ता से ही होती है, हिरण्यगर्भ एक उपाधि मात्र है, सबका हेतु वह एक ब्रह्म ही है।
यह हिरण्यगर्भ बाहर दशगुने जल से घिरा हुआ है, यह जल दशगुने तेज से आवृत है। तेज के बाहर इसको दशगुना वायु, वायु दशगुने आकाश से, और आकाश भूतादि अहंकार से ढँका है। यह भूतादि महत् तत्त्व से तथा महत् तत्त्व अव्यक्त से परिवेष्टित है। इस प्रकार इन सात प्राकृत आवरणों से यह अण्ड आच्छादित है। यही सात प्रकृतियाँ प्रलयकाल में एक दूसरे को ग्रास कर जाती हैं, अर्थात एक दूसरे से उत्पन्न होती हैं और एक दूसरे को धारण करती हैं।
“यहाँ अव्यक्त को ‘क्षेत्र’ तथा ब्रह्मा को ‘क्षेत्रज्ञ’ (क्षेत्र को जानने वाला) कहा गया है।“
दृश्यमान जगत के मूल पंचभूततन्मात्रा हैं, पंचतन्मात्रा का मूल मायाशक्ति है, परमात्मा ही मायाशक्ति द्वारा जगत के बीज हैं और यही जगत की स्थिति में कारण है। अतः पंचभूत तन्मात्राएँ जगत की बीज हैं और पंचतन्मात्राओं का बीज अविनाशी चिदात्मा हैं। जो बीज है वही फल होता है क्योंकि कार्य और कारण का अभेद है। इसलिए जगत ब्रह्मरूप है।
हिरण्यगर्भ से निकले पुरुष अथवा विराट पुरुष में मनीषीपुरुष लोकों की कल्पना करते हैं, १४ भुवन इन विराट पुरुष के कमर से नीचे के भागों में और ऊपर के भागों में बताए जाते हैं। यथा पैरों में भूलोक, नाभि में भुव:लोक, हृदय में स्वःलोक, वक्ष:स्थल में मह:लोक, ग्रीवा में जनलोक, स्तनों में तपोलोक और शिरोभाग में सत्यलोक है, इसके ऊपर सनातन ब्रह्मलोक है वही वैकुंठ है। कटि प्रदेश से लेकर पैर के तलवों तक अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल को जानना चाहिए।
नवधा सृष्टि क्रम:
१. प्रथम सर्ग — महत् तत्त्व (महान तत्त्व)
२. द्वितीय सर्ग — पञ्च तन्मात्रा तथा पञ्च महाभूतों की सृष्टि, भूत-सर्ग
३. तृतीय सर्ग — ऐंद्रिक सृष्टि (वैकारिक), इसकी सृष्टि बुद्धिपूर्वक होती है, यह प्राकृत सर्ग है।
४. चतुर्थ सर्ग — मुख्य-सर्ग, पर्वत और वृक्ष आदि स्थावर, बाहर एवं भीतर के प्रकाश (ज्ञान) से शून्य, स्तब्ध (जड़) तथा चेतन विहीन।
५. पंचम सर्ग — तिर्यक-सर्ग, तिर्यकस्रोता (पशु, पक्षी आदि) जिनका आहार संचार तिर्यक अर्थात वक्र/तिरछा होता है। ये मार्ग का उल्लंघन करने वाले पशु आदि उत्पथग्राही (उत्पथ — बुरा मार्ग) कहे जाते हैं। यह सर्ग दु:ख से भरा हुआ है और पुरुषार्थ का साधक नहीं है।
६. षष्ठ सर्ग — देव-सर्ग, ऊर्ध्वस्रोता (देवता) जिनका आहार संचार ऊपर की ओर होता है। सात्त्विक सर्ग, इसमें सत्यवादिता, सुख और प्रीति की अधिकता रहती है। वे अंदर तथा बाहर आवरण से रहित होते हैं तथा स्वभाव से ही अंदर-बाहर प्रकाश से परिपूर्ण रहते हैं।
७. सप्तम सर्ग — मनुष्य-सर्ग, अर्वाक्स्रोता जिनका आहार संचार अर्वाक (नीचे) की ओर होता है। ये प्रकाश (ज्ञान) के बाहुल्य वाले, तमोगुण तथा रजोगुण की अधिकता वाले, अधिक दु:ख वाले और सत्त्वगुण से सम्पन्न होते हैं। मनुष्य पुरुषार्थ साधन के उच्च अधिकारी हैं।
८. अष्टम सर्ग — अनुग्रह-सर्ग, यह सात्त्विक और तामसिक गुणों से संयुक्त है। यह भूतादि सर्ग सभी संग्रह न करने वाले, उपभोग करने वाले तथा शीलरहित (मन की वृत्ति से रहित) होते हैं। इसे अनुग्रहसर्ग कहा जाता हाँ क्योंकि इसमें प्रजाओं पर अनुग्रह करने के लिए ऋषियों की उत्पत्ति होती है।
९. नवम सर्ग — कौमार-सर्ग, इसमें प्राकृत और वैकृत दोनों सृष्टियाँ विद्यमान रहती हैं। सनक-सनन्दन आदि कुमारों की जो कि ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं और ब्रह्माजी के ही समान हैं उनकी सृष्टि इसी सर्ग में हुई। इनका मन सदा भगवान शिव के चिन्तन में ही लगा रहता है, ये संसार से विमुख एवं ज्ञानी हैं।
अभी तक परब्रह्म से जड़-चेतनात्मक जगत की सृष्टि का वर्णन किया गया है, क्या अन्य तत्त्वों की तरह जीवों/जीवात्मा की भी उत्पत्ति होती है? यह जीवात्मा सर्वथा शुद्ध परमेश्वर का अंश, जन्म-मरण से रहित विज्ञानस्वरूप नित्य अविनाशी है। तो भी यह अनादि परंपरागत अपने कर्मों के अनुसार मिले हुए स्थावर, जङ्गम शरीरों के आश्रित है, इस कारण उन-उन शरीरों के जन्म-मरण आदि को लेकर गौणरूप से जीवात्मा का उत्पन्न होना श्रुति में कहा गया है। जगत के प्रकट होते ही उस परमात्मा में इसका उत्पन्न होना और कल्प के अंत में उस परमेश्वर में विलीन हो जाना ही उसका लय है। इस प्रकार संचित कर्मों के कारण ही जीवों को भगवान अच्छी-बुरी योनियों में उत्पन्न करते हैं, किन्तु यहाँ शरीर के उत्पन्न होने का कथन है। अतः इसके अतिरिक्त परब्रह्म परमात्मा किन्हीं नए जीवों को उत्पन्न नहीं करते हैं।
आधार ग्रंथ — श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण, वायु पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, गरुड़ पुराण, भागवत पुराण, कूर्म पुराण, ब्रह्म सिद्धांत, ब्रह्म विज्ञान, वेदान्त दर्शन, मनुस्मृति