शिवमहापुराण के अनुसार भगवान शंकर ने अपने परम भक्त भृगुवंशी च्यवन के पुत्र दधीचि मुनि के यहां पुत्र रूप में जन्म लिया। भगवान ब्रह्मा ने इनका नाम पिप्पलाद रखा था। “पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधी:” – शिवमहापुराण, शतरुद्रसंहिता २४/६१
शिवमहापुराण के अनुसार जन्म से पहले ही इनके पिता दधीचि ने देव-दानव युद्ध के समय स्वअस्थियों से अस्त्र निर्माण हेतु देवताओं की प्रार्थना पर अपनी अस्थियां उन्हें दान कर दिया जिससे उनकी मृत्यु हो गई। (देव राज इन्द्र का अस्त्र वज्र भी उन्ही अस्थियों से निर्मित हुआ था।)
एक कथा के अनुसार पिप्पलाद ने जन्म के बाद एक बार देवताओं से पूछा कि क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया कि शनि ग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 वर्ष तक की आयु तक शनि किसी को कष्ट नहीं देंगे।
मेरे वचन का निरादर करने पर शनि देव तुरंत भस्म हो जाएंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिवमहापुराण, शतरुद्रसंहिता २५/१७
शिव के अंश पिप्पलाद ने लोक हित में जन कल्याण हेतु अनेकों लीलाएं कीं।