जरा सा पाप

spot_img

About Author

Varun Upadhyay
Varun Upadhyay
अंतरात्मा की अंतर्दृष्टि

एक ब्राह्मण दरिद्रता से बहुत दुखी होकर राजा के यहां धन याचना करने के लिए चल पड़ा। कई दिनों की यात्रा करके राजधानी पहुंचा और राजमहल में प्रवेश करने की चेष्टा करने लगा। उस नगर का राजा बहुत चतुर था, वह सिर्फ सुपात्रों को दान देता था। याचक सुपात्र है या कुपात्र इसकी परीक्षा होती थी। परीक्षा के लिए राजमहल के चारों दरवाजों पर उसने समुचित व्यवस्था कर रखी थी।

ब्राह्मण ने महल के पहले दरवाजे में प्रवेश किया ही था कि एक वेश्या निकल कर सामने आई। उसने राजमहल में प्रवेश करने का कारण ब्राह्मण से पूछा। ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि “मैं राजा से धन याचना के लिए आया हूं इसलिए मुझे राजा से मिलना आवश्यक है ताकि कुछ धन प्राप्तकर अपने परिवार का गुजारा कर लूं।” वेश्या ने कहा “महोदय आप राजा के पास धन मांगने जरूर जाएं पर इस दरवाजे पर तो मेरा अधिकार है। मैं अभी कामपीड़ित हूं, आप यहां से अन्दर तभी जा सकते हैं, जब मुझसे रमण कर लें अन्यथा दूसरे दरवाजे से जाइए।”

ब्राह्मण को वेश्या की शर्त स्वीकार न हुई। अधर्म का आचरण करने की अपेक्षा उसे दूसरे द्वार से जाना पसंद आया। वह वहां से लौट आया और दूसरे दरवाजे पर जाकर प्रवेश करने लगा। अभी दो ही कदम भीतर पड़े होंगे कि एक प्रहरी सामने आया। उसने कहा “इस दरवाजे पर महल के मुख्य रक्षक का अधिकार है। यहां वही प्रवेश कर सकता है, जो हमारे स्वामी से मित्रता कर ले। हमारे स्वामी को मांसाहार अतिप्रिय है। भोजन का समय भी हो गया है इसलिए पहले आप भोजन कर लें फिर प्रसन्नता पूर्वक भीतर जा सकते हैं, आज भोजन में हिरण का मांस बना है।”

ब्राह्मण ने कहा कि “मैं मांसाहार नहीं कर सकता। यह अनुचित है।” प्रहरी ने साफ – साफ बता दिया कि फिर आपको इस दरवाजे से जाने की अनुमति नहीं मिल सकती। किसी और दरवाजे से होकर महल में जाने का प्रयास कीजिए।

जब ब्राह्मण तीसरे दरवाजे में प्रवेश करने की तैयारी कर ही रहा था कि वहां कुछ लोग मदिरा और प्याले लिए मदिरा पी रहे थे। ब्राह्मण उन्हें अनदेखा करके घुसने लगा तो एक प्रहरी आया और कहा “थोड़ा हमारे साथ मद्य पीयो, तभी भीतर जा सकते हो। यह दरवाजे सिर्फ उनके लिए है जो मदिरापान करते हैं।”

ब्राह्मण ने मद्यपान नहीं किया और उलटे पांव चौथे दरवाजे की ओर चल दिया।

चौथे दरवाजे पर पहुंचकर ब्राह्मण ने देखा कि वहां जुआ हो रहा है। और जो लोग जुआ खेलते हैं वे ही भीतर घुस पाते हैं। जुआ खेलना भी धर्म विरुद्ध है।

ब्राह्मण बड़े सोच – विचार में पड़ गया। अब किस तरह भीतर प्रवेश हो, चारों दरवाजों पर धर्म विरोधी शर्तें हैं। पैसे की मुझे बहुत जरूरत है, इसलिए भीतर प्रवेश करना भी जरूरी है।

एक ओर धर्म था तो दूसरी ओर धन। दोनों के बीच घमासान युद्ध उसके मस्तिष्क में होने लगा।

ब्राह्मण जरा सा फिसला। उसने सोचा जुआ छोटा पाप है। इसको थोड़ा सा कर लें तो तनिक सा पाप होगा। मेरे पास एक रुपया बचा है क्यों न इस रुपये से जुआ खेल लूं और भीतर प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाऊं।

विचारों को विश्वास रूप में बदलते देर न लगी। ब्राह्मण जुआ खेलने लगा। एक रुपये के दो हुए, दो के चार, चार के आठ, जीत पर जीत होने लगी।
अब ब्राह्मण राजा के पास जाना भूल गया और बस जुआ खेलने लगा। जीत पर जीत होती गई। शाम तक हजारों रुपयों का ढेर जमा हो गया। जुआ बन्द हुआ। ब्राह्मण ने रुपयों की गठरी बांध ली। दिन भर से खाया कुछ न था। भूख जोर से लग रही थी, पास में कोई भोजन की दुकान न थी। ब्राह्मण ने सोचा रात का समय है, कौन देखता है, चलकर दूसरे दरवाजे पर मांस का भोजन मिलता है, वही क्यों न खा लिया जाए।

स्वादिष्ट भोजन मिलता है और पैसा भी खर्च नहीं होता, दोहरा लाभ है। जरा सा पाप करने में कुछ हर्ज नहीं। मैं तो लोगों के पाप के प्रायश्चित कराता हूं फिर अपनी क्या चिंता है, कर लेंगे कुछ न कुछ। ब्राह्मण ने मांस मिश्रित स्वादिष्ट भोजन को छककर खाया।

अस्वाभाविक भोजन को पचाने के लिए अस्वाभाविक पाचक पदार्थों की जरूरत पड़ती है। तामसी, विकृत भोजन करने वाले अक्सर पान, बीड़ी, शराब की शरण लिया करते हैं। कभी मांस खाया न था इसलिए पेट में जाकर मांस अपना करतब दिखाने लगा।

अब उसे मद्यपान की आवश्यकता महसूस हुई। आगे के दरवाजे की ओर चला और मदिरा की कई प्यालियां चढ़ाई। अब वह तीन प्रकार के नशे में था। धन काफी था साथ में सो धन का नशा, मांसाहार का नशा और मदिरा भी आ गई थी। अब सुरा के बाद सुन्दरी का ध्यान आना स्वाभाविक है। सो पहले दरवाजे पर पहुंचा और वेश्या के यहां जा बैठा। वेश्या ने उसे संतुष्ट किया और पुरस्कार स्वरूप जुए में जीता हुआ सारा धन ले लिया।

एक पूरा दिन चारों द्वारों पर व्यतीत करके दूसरे दिन प्रातःकाल ब्राह्मण महोदय उठे। वेश्या ने उन्हें घृणा के साथ देखा और शीघ्र घर से निकाल देने के लिए अपने नौकरों को आदेश दिया। उन्हें घसीटकर घर से बाहर कर दिया गया।

राजा को सारी सूचना पहले ही पहुंच चुकी थी। ब्राह्मण फिर से चारों दरवाजों पर गया और सब जगह खुद ही कहा कि वह शर्तें पूरी करने के लिए तैयार है, प्रवेश करने दो, पर आज वहां शर्तों के साथ भी कोई अंदर जाने देने को राजी न हुआ। सब जगह से उन्हें दुत्कार दिया गया। ब्राह्मण को न माया मिली न राम।
“जरा सा पाप” करने में कोई बड़ी हानि नहीं है, यही समझने की भूल में उसने धर्म और धन दोनों गंवा दिए।

अपने ऊपर विचार करें कहीं ऐसी ही गलतियां हम भी तो नहीं कर रहे हैं। किसी पाप को छोटा समझकर उसमें एक बार फंस जाने से फिर छुटकारा पाना कठिन होता है। जैसे ही हम बस एक कदम नीचे की ओर गिरने के लिए बढ़ा देते हैं, फिर पतन का प्रवाह तीव्र होता जाता है और अन्त में बड़े से बड़े पापों के करने में भी हिचक नहीं होती। हर पाप के लिए हम खोखले तर्क भी तैयार कर लेते हैं पर याद रखें, जो खोखला है, वह खोखला है।

छोटे पापों से भी वैसे ही बचना चाहिए, जैसे अग्नि की छोटी चिंगारी से सावधान रहते हैं। सम्राटों के सम्राट परमात्मा के दरबार में पहुंचकर अनन्त रूपी धन की याचना करने के लिए जीव रूपी ब्राह्मण जाता है। प्रवेश द्वार काम, क्रोध, लोभ, मोह के चार पहरेदार बैठे हुए हैं। वे जीव को तरह – तरह से बहकाते हैं और अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यदि जीव उनमें फंस गया तो पूर्व के पुण्य रूपी गांठ की कमाई भी उसी तरह दे बैठता है जैसे कि ब्राह्मण अपने घर का एक रुपया भी दे बैठा था।

जीवन इन्हीं पाप जंजालों में व्यतीत हो जाता है और अन्त में वेश्या रूपी ममता के द्वार से दुत्कारा जाकर रोता पीटता इस संसार से विदा होता है। याद रखिये कही आप भी उस ब्राह्मण की नकल तो नहीं कर रहे हैं? कोई भी व्यक्ति दो के समक्ष कुछ नहीं छुपा सकता। एक तो वह स्वयं और दूसरा ईश्वर।

आपकी अंतरात्मा आपको कई बार हल्का सा ही सही एक संकेत दे जाती है कि आप जो कर रहे हैं, वह उचित नहीं है परंतु लालच में फंसे हम अंतरात्मा की उस आवाज को दबाते जाते हैं। अंतरात्मा की आवाज धीरे – धीरे धीमी होती जाती है और एक दिन ऐसा भी होता है कि आपकी अंतरात्मा आपको टोकना भी बंद कर देती है। बस समझ लीजिए कि उस दिन से आप पूर्ण रूप से पापी बन चुके हैं।

जैसे ही आपको सही और गलत का फर्क दिखाने वाली ईश्वरीय शक्ति रूपी आपकी अंतरात्मा ने आपका साथ छोड़ा, आपको गर्त में जाने से कोई रोक नहीं सकता। बहुत से लोग कहते हैं कि इस संसार में, पापी ही फलते – फूलते हैं। यह उनका वहम है।

दरअसल उन पापियों के पूर्वजन्म के कुछ ऐसे पुण्य होते हैं, जिनके प्रताप से उन्हें छोटी – छोटी सफलता मिलती रहती है। आप ऐसे समझ लें कि वे अपने बैंक बैलेंस में से खा रहे हैं। अगर उन्होंने अपने कर्म अच्छे रखे होते तो उस बैंक बैंलेस में वृद्धि करके वह संसार के स्वामी बन सकते थे, पर वह तो उसे नष्ट करते जा रहे हैं।

हर जीव अपने कर्म के लिए उत्तरदायी होता है। उसे अपना कर्म अच्छा रखना है। आपको चारों द्वारों पर बैठे चार मायावी तो बहकाने आएंगे ही। आपने उनकी माया को जीत लिया तो अनंत कोष आपके लिए खुला है, अन्यथा संसार से विदा नहीं होंगे, दुत्कार कर भगाए जायेगे।

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
Disclaimer: The opinions expressed in this article are the author’s own and do not reflect the views of the संभाषण Team. The author also bears the responsibility for the image/images used.

About Author

Varun Upadhyay
Varun Upadhyay
अंतरात्मा की अंतर्दृष्टि

2 COMMENTS

Subscribe
Notify of
guest
2 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
Vishal
Vishal
2 years ago

अत्यंत सुंदर एवम् ज्ञान वर्धक लेख।

About Author

Varun Upadhyay
Varun Upadhyay
अंतरात्मा की अंतर्दृष्टि

कुछ लोकप्रिय लेख

कुछ रोचक लेख