जब पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि सभी राजा अपने-अपने कर्म के अनुसार उत्पत्ति एवं लय को प्राप्त करते हैं, तब अन्य राजाओं का अतिक्रमण करके केवल नृपवर कार्तवीर्य ही कैसे लोगों के सेव्य (आराध्य) कहलाये? – देवर्षि नारद (बृहन्नारदीयपुराण)
कार्तवीर्य उसी यदुवंश में जन्मे थे जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। विष्णु पुराण में कहा गया है – “जिस वंश में श्रीकृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने मात्र से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।“
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यंपरं ब्रह्मनराकृति॥ – विष्णु पुराण
श्रीकृष्ण भगवान के पूर्वज तथा भगवान विष्णु के चक्रावतार, कृतवीर्य पुत्र राजा अर्जुन (कार्तवीर्य अर्जुन) की गाथा महाभारत, अग्निपुराण, कूर्मपुराण, भागवतपुराण, बृहन्नारदीयपुराण, ब्रह्मपुराण, हरिवंशपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण, विष्णुपुराण, लिङ्गपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, पद्मपुराण आदि में मिलती है। चंद्रवंश-यदुवंश-हैहयवंश में कृतवीर्य से अर्जुन की उत्पत्ति हुई, यह राजा अर्जुन एक सहस्त्र बाहु वाले तथा सातों द्वीपों के स्वामी थे। राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने दस सहस्त्र वर्षों तक परम कठोर तपस्या कर मुनि अत्रि के पुत्र भगवान दत्तात्रेय की आराधना की थी और उनसे चार महत्त्वपूर्ण वर प्राप्त किए थे :
१. युद्ध में सहस्त्र भुजायें हो जाएं।
२. अधर्म में नष्ट होते हुए लोक को सदुपदेशों द्वारा निवारित करना। यदि कभी वह अधर्म-कार्य में प्रवृत्त हों तो वहाँ साधु पुरुष आकर उन्हें रोक दें।
३. धर्मपूर्वक पृथ्वी विजय करके धर्मपूर्वक पालन करना तथा प्रजा को प्रसन्न रखना। तथा,
४. अनेक संग्रामों में विजय प्राप्त कर, सहस्त्रों शत्रुओं का विनाश कर, रणभूमि में अपने से अधिक बलवाले के हाथ मृत्यु प्राप्त करना। भगवान दत्तात्रेय ने यह भी कहा- “अधर्म में प्रवृत्त होने पर भगवान विष्णु (अवतार भगवान परशुराम) के हाथ से तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।”
इसके अतिरिक्त उन्होंने भगवान दत्तात्रेय से योगविद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।
इस प्रकार वर प्राप्त कर राजा अर्जुन ने सातद्वीप, समुद्र, पत्तन व नगरों सहित सारी पृथ्वी को उग्रकर्म (युद्ध) के द्वारा जीता था। युद्ध करते समय किसी योगेश्वर की भाँति योगबल तथा संकेत मात्र से उनके एक सहस्त्र भुजायें प्रकट हो जाती थीं, अनेक योद्धा, ध्वजा तथा रथ भी हो जाते थे। उन परम चतुर राजर्षि कार्तवीर्य ने उन सातों द्वीपों में दस सहस्त्र यज्ञों का अनुष्ठान सम्पन्न किया था और वे सब यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुए थे। उन सभी यज्ञों में सुवर्ण की वेदियाँ बनी थीं और सुवर्ण के यूप (खम्भे) गड़े थे। वे समस्त यज्ञ प्रचुर दक्षिणा देकर सम्पन्न हुए थे। यज्ञ की महिमा से चकित होकर वरीदास के विद्वान पुत्र नारद नामक गंधर्व ने इस गाथा का गान किया था –
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवाः।
यज्ञदानतपोयोगश्रुतवीर्यदयादिभिः॥ – श्रीमद्भागवतपुराण
अर्थात् “अन्य राजालोग यज्ञ, दान, तपस्या, पराक्रम और शास्त्रज्ञान में कार्तवीर्य अर्जुन की स्थिति को नहीं पहुँच सकते।“
इस प्रकार सब प्रकार के रत्नों से सम्पन्न चक्रवर्ती सम्राट सहस्त्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्षों तक छः इंद्रियों से अक्षय विषयों का भोग करते रहे, इस बीच न तो उनके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उन्होंने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जाएगा। उनके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उनका ऐसा प्रभाव था कि उनके स्मरण से दूसरों का खोया धन भी मिल जाता था। धर्मपूर्वक राज्य करने के कारण उनके राज्य में न तो किसी को शोक होता था, न किसी को कोई रोग सताता था और न कोई भ्रम में ही पड़ता था। योगी होने के कारण राजा अर्जुन ही यज्ञों और खेतों की रक्षा करते थे और वही वर्षाकाल में मेघ बन जाते थे। सातों द्वीपों में ढाल, तलवार, धनुष-बाण और रथ लिए सदा चारों ओर विचरते दिखाई देते थे। जैसे शरद-ऋतु में भगवान भास्कर अपनी सहस्त्र किरणों से शोभा पाते हैं, उसी प्रकार कार्तवीर्य अर्जुन जिनकी त्वचा प्रत्यंचा की रगण से कठोर हो गई थी, वे उन सहस्त्र भुजाओं से सुशोभित होते थे। महातेजस्वी अर्जुन ने कर्कोटकनाग के पुत्रों को जीत कर उन्हें अपनी नगरी ‘माहिष्मतीपुरी’ में मनुष्यों के बीच बसाया था। कमलनयन कार्तवीर्य वर्षाकाल में जल-क्रीड़ा करते समय समुद्र की जलराशि के वेगों को अपनी भुजाओं के आघात से रोककर पीछे की ओर लौटा देते थे।
राजर्षि ने अभिमान से भरे हुए लंकापति ‘रावण’ को अपने पाँच ही बाणों द्वारा सेनासहित मूर्छित एवं पराजित करके धनुष की प्रत्यंचा से बाँध लिया और माहिष्मतीपुरी में लाकर बंदी बना लिया। महर्षि पुलस्त्य के प्रार्थना करने पर उन्होंने उनके पौत्र रावण को मुक्त किया।
राजा अर्जुन के हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे, शेष सब परशुरामजी की क्रोधाग्नि में भस्म हो गए थे। बचे हुए पुत्रों के नाम थे – जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित। (पुराणों में नामभेद मिलता है, अन्य नाम – शूरसेन, शूर, धृष्टोक्त (धृष्ट), कृष्ण और जयध्वज।) ये सभी अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता, बलवान, शूर, धर्मात्मा, महारथी और यशस्वी थे।
वसिष्ठ मुनि का शाप : एक बार तृष्णा से व्याकुल आदित्यदेव (अन्य कथा में अग्निदेव) ने अर्जुन से भिक्षा की याचना की, नरपति ने सूर्यदेव को सातों द्वीपों समेत समस्त पृथ्वी को दान कर दिया। राजा के बाणों में स्थित होकर आदित्यदेव ने जलाने की इच्छा से पृथ्वी के समस्त पुरों, ग्रामों, पर्वतों, वन आदि को भस्म कर दिया। वरुणपुत्र वसिष्ठ (आपव नाम से प्रसिद्ध जो उस समय दस हजार वर्षों से जल के भीतर बैठकर तपस्या कर रहे थे) अपने आश्रम को जला देखकर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शाप दिया – “हैहय! तुमने मेरे वन को नहीं छोड़ा, इसलिए तुम्हारे इस दुष्कर कर्म को कोई दूसरा नष्ट करेगा और वह राजा भी न होगा। तुम्हारी इन सहस्त्र बाहुओं को वीरों में श्रेष्ठ परम बलवान परशुराम काट डालेंगे। ब्राह्मण, तपस्वी, महाबलवान परशुराम तुम्हें पराजित कर तुम्हारा संहार करेंगे”। इस प्रकार ऋषि आपव के शापवश परशुरामजी ही उन कार्तवीर्य की मृत्यु के कारण बने क्योंकि पूर्वकाल में उन राजर्षि ने स्वयं ही ऐसे वर का वरण किया था।
‘शापवश नृप कार्तवीर्य के पुत्र ही परशुरामजी के क्रोध, कार्तवीर्य वध तथा क्षत्रियों से द्वेष का कारण बने। कार्तवीर्यपुत्रों ने एक दिन जमदग्नि मुनि की होमधेनु के बछड़े को चुरा लिया, इसी के लिए जमदग्निपुत्र महात्मा परशुराम और कार्तवीर्य में युद्ध छिड़ गया। कार्तवीर्य के वध के पश्चात उसके बुद्धिहीन और मूर्ख पुत्रों ने जमदग्नि मुनि के सिर को धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार भगवान परशुराम ने पृथ्वी को २१ बार क्षत्रियविहीन किया।’ – महाभारत
चूंकि कार्तवीर्य अर्जुन भगवान विष्णु के चक्रावतार थे इसलिए शास्त्रों में इनकी पूजा और ध्यान का उल्लेख इस प्रकार मिलता है :
ध्यान : राजर्षि अत्यंत रमणीय रथ पर सुखपूर्वक बैठे हैं, इस रथ की चमक सहस्त्र सूर्य के समान है। उसमें अनेक प्रकार के रत्न जड़े हैं, प्रकाशमान पताका उसपर फहरा रही है, दश हजार घोड़े उसमें जुते हैं। महाप्रलय कालीन समुद्र के समान वह भयंकर शब्द करता है। उस पर महाक्षत्र तना हुआ है, चमकते हुए अनेक अस्त्र-शस्त्रों से वह सुसज्जित है। वैसे रथ पर बैठने वाले महायशस्वी कार्तवीर्य की सहस्त्र भुजायें हैं, वे बाएं हाथ में धनुष व दायें हाथ में बाण धरण किए हैं। मुकुट, हार, केयूर, अंगद, वलय, मुद्रिका, आदि अनेक बहुमूल्य आभूषणों से उनके अंग विभूषित हैं, शरीर पर कवच बंधा है। उनका मुखकमल सुप्रसन्न है और अपने धनुष की टंकार से वे तीनों लोकों को कंपा रहे हैं।
द्वादशनाम :
कार्तवीर्य: खलद्वेषी कीर्तवीर्यसुतो बली।
सहस्त्रबाहु: शत्रुघ्नो रक्तवासा धनुर्धर:॥
रक्तगंधो रक्तमाल्यो राजा स्मतुर्रभीष्टव:।
द्वादशैतानि नामानि कार्तवीर्यस्य यः पठेत्॥
संपदस्तस्य जायंते जनास्तस्य वशे सदा॥
दीपप्रिय कार्तवीर्य : हनुमान जी के लिए दीपदान करने वाले भक्त तथा उनके भजन में आसक्त विद्वान को गुरु से आज्ञा लेकर कार्तवीर्यार्जुन की विशेष आराधना करनी चाहिए। नृपवर को दीप अत्यंत प्रिय है, कार्तिक शुक्ल सप्तमी को रात्रि में दीपारंभ अत्यंत शोभन है। यदि उस दिन रविवार तथा श्रवण नक्षत्र पड़ जाए तो सोने में सुगंधि। अति आवश्यक कार्यों के लिए मास आदि का विचार नहीं करना चाहिए।
सुदर्शनचक्र अवतार कार्तवीर्य महिमा : इन पृथ्वीपति के स्मरण मात्र से संग्राम में विजय मिलती है और शत्रु शीघ्र नष्ट हो जाता है। जो मानव प्रातःकाल उठकर उनका नाम स्मरण करता है उसके धन का नाश नहीं होता और यदि नष्ट हो गया है तो पुनः प्राप्त हो जाता है। वे निखिल शत्रुओं का क्षय करने वाले, समस्त व्याधियों का नाश करने वाले, अखिल संपत्ति देने वाले, कल्याण करने वाले, भक्तों को अभयदान देने वाले, सर्वलक्षण सम्पन्न, सकल लोकों के एकमात्र पालक, वरदायक, महायोग द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य तथा कीर्ति से तीनों लोकों को आक्रांत किए हुए, श्रीमानों के समूहस्वरूप तथा भूतल पर हरि के अंश से अवतीर्ण हैं।
निर्विच्छिन्न सुख, आरोग्य, दु:खहानि, अविघ्न, प्रजावृद्धि, सुखोदय, इच्छाप्राप्ति, अतिकल्याण, अनामय, अनालस्य, अभीष्टसिद्धि, मृत्युहानि, बलोन्नति, भयहानि, यश, कान्ति, कीर्ति, विद्या, ऋद्धि, महाश्री, अनष्टद्रव्यता, नष्ट द्रव्यों की पुनः प्राप्ति, दीर्घायु, मन का उल्लास, सौकुमार्य, अधृष्टता, और महासामर्थ्य हैहयेन्द्र के कीर्तन से प्राप्त होते हैं।
बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख