शंकरात्मा मारुति: कपिसत्तम: (हनुमानजी)

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गौतम ऋषि के शिष्य ‘शंकरात्मा’ पवनसुत हनुमान किस प्रकार हुए? (यह चरित्र बृहन्नारदीय पुराण में भगवान श्रीराम ने ऋषि सनत्कुमार से कहा है)

ऋषि गौतम के शिष्य ‘शंकरात्मा’ शिवयोगी थे, त्याज्य एवं ग्राह्य कर्मों से रहित थे, बुद्धियोग करते हुए महायशस्वी योगी थे, और उनका स्वरूप उन्मत्त था। कहीं वे उत्तम ब्राह्मण रूप से रहते थे, कहीं चांडाल, कहीं शूद्र, कहीं योगी, कहीं तपस्वी की स्थिति में रहते थे, वे दिगम्बर थे, उनकी वृत्तियाँ अनेक प्रकार की थीं। एक दिन वे मुनि चांडाल के से वेश में, टूटे-फूटे जूते हाथ में लिए बड़बड़ाते, हँसते हुए वृषपर्वा के पास पहुंचे।

वहाँ वृषपर्वा और शिव के मध्य वे दिगम्बर होकर खड़े हो गए, न पहचानने से वृषपर्वा ने उनका शिर काट दिया। इस प्रकार समस्त विश्व में हाहाकार मच गया, गौतम ऋषि ने यह कहकर प्राण त्याग दिए “जहाँ धर्मयुक्त सदाशिव योग में निरत रहने वाले शैवों की मृत्यु देखी जाए वहाँ हमारा भी मरण निश्चित है”। इसके बाद शुक्राचार्य, प्रह्लाद, दैत्य, देवता, नृप तथा द्विज सब मर गए। जब बहुत से शिवभक्त मारे गए तो वीरभद्र ने भगवान शिव को यह समाचार सुनाया। भगवान शिव ने भगवान ब्रह्मा तथा विष्णु से कहा- “मेरे भक्तों ने बड़ा साहस का कार्य किया, उनका यह कार्य वरप्रद हुआ। हमें चलकर उनका साहसपूर्ण कार्य देखना चाहिए।“

भगवान शंकर ने ऋषि गौतम के आश्रम पहुँचकर उनसे कहा, कि तुमसे प्रसन्न हूँ वर मांगो।

गौतम ऋषि ने वर मांगा कि शिवलिङ्ग की पूजा करने का सामर्थ्य उनमें सदा बना रहे, दूसरा वर मांगा कि उनका शिष्य शंकरात्मा जो त्याज्य एवं ग्राह्य कर्मों से रहित है जो न नाक से सूँघता है न आँख से देखता है, सब कुछ बुद्धियोग से करता हुआ महायशस्वी योगी है, उन्मत्त स्वरूप है, उसे न कोई मारे न कोई उससे द्वेष करे। इसके अतिरिक्त जितने व्यक्ति मर गए हैं सब जीवित हो जाएं।

यह निवेदन सुनकर अविनाशी उमापति प्रेम से श्रीहरि को देखकर अपने अंश वायु रूप से शंकरात्मा के देह में प्रविष्ट हो गए। वही हरिरूप शंकरात्मा पवनसुत हनुमानजी हुए। वे धीश, साक्षात विष्णु एवं शिव कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प में वे अपनी इच्छा से रूप धारण करते हैं, वे भगवान शिव के आज्ञाकारी, भगवान राम के भक्त तथा महाबलवान हैं।

इसके बाद कपीश्वर हनुमानजी ने वाद्यों को बजाते हुए अनेकों गीत से भगवान शंकर की वंदना की, उनका चेहरा प्रसन्न था, समस्त अंगों में आभूषण था, युवा अवस्था थी। भगवान शंकर ने उनके हृदय-कमल पर अपना चरण रखा।

तदनंतर भगवान विष्णु ने शंकरजी से कहा- “हनूमता समो नास्ति कृत्सनब्रह्माण्डमण्डले” अर्थात निखिल ब्रह्माण्डमण्डल में हनुमान के समान कोई भाग्यवान नहीं है, क्योंकि श्रुति तथा देवादि से अप्राप्य आपका चरण, जो सम्पूर्ण उपनिषदों का सार तथा अव्यक्त है, हनुमान के ऊपर अवस्थित हुआ। आपके उस चरण को यम आदि साधन तथा योगाभ्यास के द्वारा एक क्षण के लिए के लिए भी कोई अपने हृदय में स्थित नहीं रख पाता। परंतु वही चरण महायोगी हनुमान के हृदय-कमल पर विराजमान रहा। मैंने एक सहस्त्र कोटि तथा एक हजार वर्षों तक भक्तिपूर्वक आपके चरणों की अर्चना की, परंतु कभी आपने अपना चरणदर्शन नहीं होने दिया। यद्यपि लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि शम्भु नारायण के अत्यंत प्रिय हैं।

इस पर भगवान शंकर ने हर्ष से कहा – “पार्वती वा त्वया तुल्या वर्तते नैव भिद्यते” अर्थात पार्वती तुम्हारी ही सदृश हैं (तुम्हारे समान मेरा कोई प्रिय नहीं है), परंतु वह (हनुमानजी) तो मुझसे सर्वथा अभिन्न है।

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