निष्काम कर्मयोग

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कर्म यदि फलासक्ति भाव को त्याग कर भगवान को समर्पित कर अर्थात ‘भगवदर्थ’ किये जाएं तो वह ‘निष्काम कर्म’ कहलाते हैं और यह क्रिया ‘निष्काम कर्मयोग’ कही जाती है।

भगवान श्री कृष्ण ने निष्काम कर्मयोग का विवेचन गीता के दूसरे, तीसरे एवं अठारहवें अध्याय में विस्तार से किया है। निष्काम भाव से जो कर्म किये जाते हैं, उनके फल का कभी नाश नहीं होता है। उनमें कोई प्रत्यवाय (वह पाप या दोष जो शास्त्रों में बताए हुए नित्य कर्म के न करने से होता है) भी नहीं होता। वे सब प्रकार के भयों से रक्षा करते हैं।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। – गीता २/४०

निष्काम कर्म करने से अंतः करण की शुद्धि होती है। शुद्धान्तःकरण में आत्मज्ञान का उदय होता है और आत्मज्ञान के उदित हो जाने पर आनंद की प्राप्ति होती है। यह आनंद परमोत्कृष्ट है। लौकिक सभी सुख एवं आनंद इसकी तुलना में क्षुद्रकोटि के हैं।

श्रुति कहती है – ‘एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति’ क्षुद्र जलाशयों में स्नान-पानादि का प्रयोजन यथाकथंचित सिद्ध होता है, परंतु विशाल जलाशयों से स्नान, पानादि कार्य उत्तमरूप में सम्पन्न होते हैं। सकाम कर्म क्षुद्र जलाशय के समान हैं और निष्काम कर्म विशाल जलाशय के समान हैं। जो सुख सकाम कर्मों के करने से प्राप्त होते हैं, वे सब अनिवार्य रूप से निष्काम कर्म करने से प्राप्त हो जाते हैं। अतः सकाम कर्म करने की उपादेयता नहीं है, है भी तो थोड़ी ही है।

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।। – गीता २/४६

फलों की अभिलाषा छोड़कर तथा कर्तुत्वाभिमान से रहित हो कर फलसिद्धि में हर्ष और विफलता में विषाद त्यागकर ईश्वराराधन बुद्धि से कर्म करना श्रेयस्कर है। फल में आसक्ति से किया जाने वाला कर्म निकृष्ट कोटि का होता है। यह जीवन में दुःख और कार्पण्य प्रदान करता है। वह जन्म मरण के चक्र के बंधन का कारण होता है। वह सब अनर्थों का मूल कारण है। अतः सब अनर्थों को दूर करने वाले तथा आत्मज्ञान को उत्पन्न करने वाले निष्काम कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए।

मनीषिगण समत्वबुद्धि से ईश्वराराधन के निमित्त कर्म करते हैं। वे फल की कामना नहीं करते। वे सत्वोद्रेक से आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं और जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। वे मोहजनित अज्ञान के कालुष्य को पार कर लेते हैं। अतः उनमें फल की कामना नहीं होती। उनकी बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाती है और वे स्थितप्रज्ञ की सर्वोच्च भूमिका में आसीन हो जाते हैं।

स्थितप्रज्ञ पुरुष मनोगत सभी कामनाओं का त्याग करते हैं और स्वप्रकाश चिद्रूप से भासमान आनंदस्वरूप परमात्मा में तृप्त रहते हैं। वे सुख-दुःख से लेशमात्र भी प्रभावित नहीं होते हैं और राग-भय एवं क्रोध से सर्वथा दूर रहते हैं। वे किसी से स्नेह नहीं करते। प्रारब्धवश यदि कोई शुभ प्रसंग उपस्थित हो जाता है तो वे उसकी प्रशंसा नहीं करते, यदि कोई अशुभ प्रकरण आ जाता है तो उससे द्वेष नहीं करते। जिस प्रकार कूर्म अपने अंगों को समय – समय पर समेट लेते हैं, उसी प्रकार वे इंद्रियों के शब्दादि विषयों से इंद्रियों को समेट लेते हैं। इंद्रियों और मन को जीत कर निष्काम भाव से कर्म करने वाले स्थितप्रज्ञ महानुभाव सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर परमानंदस्वरूप परब्रह्म को प्राप्त करते हैं।

आत्मज्ञान का उत्कर्ष सर्वमान्य होने पर भी कर्म का विधान मानव के लिए अनिवार्य है। बिना कर्म किये कोई भी अजितेंद्रीय पुरुष जीवित नहीं रह सकता। प्रकृति के नियमानुसार सबको कार्यजगत में आना पड़ता है। कुछ ऐसे दंभी जन हैं, जो पाणिपादप्रभृति कर्मेन्द्रियों से कर्म नहीं करते, परंतु ज्ञानेंद्रियों एवं मन से इंद्रियों के विषयों का स्मरण करते हैं। ऐसे लोगों को गीता में विमूढात्मा एवं मिथ्याचारी की संज्ञा दी गई है। इसके विपरीत जो महानुभाव नेत्र, कर्ण, नासाप्रभृति ज्ञानेंद्रियों को विषयों से हटाकर फलों की इच्छा त्यागकर कर्मेन्द्रियों से विहित कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उत्तम पुरुष बतलाया गया है। ऐसे विवेकी महानुभाव अंतःकरण की शुद्धि के लिए निष्काम भाव से कर्म करते हैं, अतः उन्हें उच्च स्थान दिया गया है। कर्म किये बिना शरीर का निर्वाह भी कठिन है। अतः निष्काम-भाव से श्रौत-स्मार्त कर्मों का अनुष्ठान नितांत आवश्यक है। ईश्वर को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करना श्रेयस्कर है, वह सभी प्रकार के बंधनों को दूर कर देता है।

सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति ने प्रजा और यज्ञ दोनों को साथ – साथ उत्पन्न किया और प्रजा को आदेश दिया कि तुमलोग यज्ञ को इष्टफल देने वाली कामधेनु समझकर सर्वथा यज्ञानुष्ठान करो, जिससे तुमलोगों के विविध मनोरथों की पूर्ति हो। यज्ञानुष्ठान से देवगण तुमलोगों पर प्रसन्न होंगे और यथेच्छ वर्षा करेंगे, जिससे नाना प्रकार के अन्न, फल-मूलादि उत्पन्न होगे और लोक का कल्याण होगा।

मनु ने भी मनुस्मृति ३/७६ में कहा है –

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।।

भगवान ने श्रीमुख से स्पष्ट शब्दों में अर्जुन को उपदेश दिया कि ‘हे अर्जुन! तुम आसक्ति छोड़कर निरंतर कर्म करते रहो, आसक्ति छोड़कर कर्म करने वाला पुरुष मोक्षरूप फल प्राप्त करता है। अजातशत्रुप्रभृति बड़े-बड़े राजर्षियों ने निष्कामभाव से कर्म करके ज्ञान प्राप्त किया था। अतः तुम्हे भी उसी प्रकार काम करना चाहिए और क्षात्रधर्म का पालन करना चाहिए। बड़े लोग जैसा आचरण करते हैं, अन्य जन भी उनका अनुसरण करते हैं। मैं सर्वथा आप्तकाम हूँ। तीनों लोकों में मुझे कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है, तथापि मैं भी कर्म करता हूँ। मुरखलोग असक्तिपूर्वक कर्म करते हैं जबकि विद्वजन लोकसंग्रह की भावना से अनासक्ति पूर्वक कर्म करते हैं।
अर्जुन ! तुम आध्यात्मबुद्धि से सब कर्म मुझे समर्पित करो। आशा, ममता एवं शोक का त्याग करके युद्ध करो एवं अपने धर्म का पालन करो। ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः’ के अनुसार सबको अपने-अपने धर्म का पालन करना चाहिए। अपने धर्म में निधन भी कल्याणकारी होता है।

कुरुक्षेत्र के विशाल युध्दस्थल पर गाण्डीव धारी अर्जुन ने किंकर्तव्य विमूढ़ हो भगवान की शरण में जाकर विनीत शिष्य के समान मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की। परमकृपालु भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमुख से निष्काम कर्मयोग का उपदेश किया, जिससे अर्जुन का व्यामोह दूर हो गया और वे सोत्साह कर्तव्य पालन के निमित्त खड़ा हो गए।

अर्जुन के समान समस्त जिज्ञासुओं के लिए यह निष्काम कर्मयोग का उपदेश शस्वतरूप से व्यामोहनाशक बना रहेगा। व्यामोहनाश से भगवत्स्मृति हो जाती है और मनुष्य का चरम लक्ष्य – आत्मकल्याण फलीभूत हो जाता है।

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Prabhakar Mishra
Prabhakar Mishra
3 years ago

यह कर्मयोग की विद्या गृहस्थों और राजाओं की अपने घर की विद्या है। राजा जनक इस विद्या से सिद्ध हुए, इस कर्मयोग से कल्याण सहज है🙏🙏🙏
आपके कल्याणकारी लेख नित्यवृद्धि को प्राप्त हो !

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