भगवान श्री नृसिंह प्राकट्योत्सव “नृसिंह चतुर्दशी” की सभी वैष्णववृदं को मंगल बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं।
श्री नृसिंह जयंती, वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं और मान्यताओं के अनुसार नृसिंह भगवान विष्णु के अवतार हैं। नृसिंह अवतार लेकर भगवान विष्णु ने दैत्यों के राजा और महाशक्तिशाली हिरण्यकशिपु का वध किया था।
🌺“नृसिंह चतुर्दशी”🌺
दिन में मरूँ नाय मैं, मरूँ ना प्रभु रात में,
देऔ वरदान ऐसौ आपकौ सहारौ है।
मानव न मारै मोय मार सकै दानव हू,
ऐसौ अभिमान कर दुष्ट नै उचारौ है।
घोर अत्याचार जब किए हिरणकश्यप नै,
आर्तनाद कर प्रहलाद नै पुकारौ है।
प्रकट भये हैं खम्भ फारिकै नृसिंह देव,
देहरी पै डार ताकौ पेट फार डारौ है।
नृसिंह चतुर्दशी के दिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण ने अर्ध सिंह और अर्ध मनुष्य के रूप में अवतार लिया था।
नृसिंह अवतार सनातन धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से चतुर्थ अवतार है जो वैशाख में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अवतरित हुए।
पृथ्वी के उद्धार के समय भगवान ने वाराह अवतार धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया। उसका बड़ा भाई हिरण्यकशिपु बड़ा रुष्ट हुआ। उसने अजेय होने का संकल्प किया। सहस्त्रों वर्ष बिना जल के वह सर्वथा स्थिर तप करता रहा। ब्रह्मा जी सन्तुष्ट हुए, दैत्य को वरदान मिला। उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। लोकपालों को मार भगा दिया। स्वतः सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हो गया। देवता निरूपाय थे। असुर को किसी प्रकार वे पराजित नहीं कर सकते थे।
हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे। एक दिन उसने सहज ही अपने चारों पुत्रों में सबसे छोटे प्रह्लाद से पूछा – बेटा, तुझे क्या अच्छा लगता है?
प्रह्लाद ने कहा – इन मिथ्या भोगों को छोड़कर वन में श्री हरि का भजन करना।
ये सुनकर हिरण्यकशिपु बहुत क्रोधित हो गया, उसने कहा – इसे मार डालो। यह मेरे शत्रु का पक्षपाती है।
असुरों ने आघात किया। भल्ल-फलक मुड़ गये, खडग टूट गया, त्रिशूल टेढ़े हो गये पर वह कोमल शिशु अक्षत रहा। दैत्य चौंका। प्रह्लाद को विष दिया गया पर वह जैसे अमृत हो। सर्प छोड़े गये उनके पास और वे फण उठाकर झूमने लगे। मत्त गजराज ने उठाकर उन्हें मस्तक पर रख लिया। पर्वत से नीचे फेंकने पर वे ऐसे उठ खड़े हुए, जैसे शय्या से उठे हों। समुद्र में पाषाण बाँधकर डुबाने पर दो क्षण पश्चात ऊपर आ गये। घोर चिता में उनको लपटें शीतल प्रतीत हुई। गुरु पुत्रों ने मन्त्रबल से कृत्या (राक्षसी) उन्हें मारने के लिये उत्पन्न की तो वह गुरु पुत्रों को ही प्राणहीन कर गयी। प्रह्लाद ने प्रभु की प्रार्थना करके उन्हें जीवित किया।
अन्त में हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बाँध दिया और स्वयं खड्ग उठाया। और कहा – तू किस के बल से मेरे अनादर पर तुला है, कहाँ है वह?
प्रह्लाद ने कहा – सर्वत्र! इस स्तम्भ में भी।
प्रह्लाद के वाक्य के साथ दैत्य ने खंभे पर घूसा मारा और तभी उसके साथ समस्त लोक चौंक गये। स्तम्भ से बड़ी भयंकर गर्जना का शब्द हुआ। एक ही क्षण पश्चात दैत्य ने देखा – समस्त शरीर मनुष्य का और मुख सिंह का, बड़े-बड़े नख एवं दाँत, प्रज्वलित नेत्र, स्वर्णिम जटाएँ, बड़ी भीषण आकृति खंभे से प्रकट हुई। दैत्य के अनुचर झपटे और मारे गये अथवा भाग गये। हिरण्यकशिपु को भगवान नृसिंह ने पकड़ लिया।
मुझे ब्रह्माजी ने वरदान दिया है! छटपटाते हुए दैत्य चिल्लाया। दिन में या रात में न मरूँगा, कोई देव, दैत्य, मानव, पशु मुझे न मार सकेगा। भवन में या बाहर मेरी मृत्यु न होगी। समस्त शस्त्र मुझ पर व्यर्थ सिद्ध होंगे। भुमि, जल, गगन-सर्वत्र मैं अवध्य हूँ।
भगवान नृसिंह बोले – देख यह सन्ध्या काल है। मुझे देख कि मैं कौन हूँ। यह द्वार की देहली, ये मेरे नख और यह मेरी जंघा पर पड़ा तू। अट्टहास करके भगवान ने नखों से उसके वक्ष को विदीर्ण कर डाला।
वह उग्ररूप देखकर देवता भी डर गये, ब्रह्मा जी अवसन्न हो गये, महालक्ष्मी दूर से लौट आयीं, पर प्रह्लाद, वे तो प्रभु के वर प्राप्त पुत्र थे। उन्होंने स्तुति की। भगवान नृसिंह ने गोद में उठा कर उन्हें बैठा लिया और स्नेह करने लगे।
नृसिंह भगवान और प्रह्लाद के बीच ज्ञान की बात
भगवान नृसिंह ने हिरण्यकशिपु को मारा, लेकिन उसके उपरांत भी भगवान क्रोध में थे।
अब हिरण्यकशिपु का वध करने के बाद सब देवता लोग आ गए, ब्रह्मा, शंकर भी आये। तब नारद मुनि ने सब से कहा कि “भगवान नृसिंह अवतार लिए हैं, सभी उनकी स्तुति करें, अभिनंदन करें, उनका धन्यवाद करना चाहिए, उन्होंने इतना बड़ा काम किया, इस लिए आप सब जाये उनके पास।
देवताओं ने पहले ही मना कर दिया। देवताओं ने कहा कि “अभी तो भगवान नृसिंह बड़े क्रोध में हैं, हमसे उनका यह स्वरूप देखा नहीं जा रहा है। हम सब देवता उनके इस स्वरूप से भयभीत हैं। अतएव हम नहीं जाएगे।”
तो कौन जाएगा? यह प्रश्न हुआ। तो सबने शंकर जी को कहा की महाराज आप जाइये, आप तो प्रलय करने वाले हैं। तब शंकर जी ने कहा “नहीं-नहीं मेरी हिम्मत नहीं है, मैं नहीं जा सकता” तब ब्रह्मा से कहा गया, “आप तो सृष्टि करता हैं, आपकी दुनिया है, आपके लिए ही तो आए हैं।” ब्रह्मा जी कहते हैं “वह सब तो ठीक है। लेकिन मैं तो नहीं जाऊंगा।”
तो फिर सब ने परामर्श किया की अब लक्ष्मी जी को बुलाया जाए और उनको बोला जाए। क्योंकि नृसिंह भगवान विष्णु जी के अवतार हैं और विष्णु जी की अर्धांगिनी लक्ष्मी जी हैं, इनको देख करके हो सकता है नरसिंह भगवान का क्रोध उतर जाए, जो विराट रूप इनका है वह विराट रूप शांत हो जाएगा और मुस्कुराहट वाला रूप आ जाएगा। इसलिए लक्ष्मी जी से कहा गया जाने को।
तो लक्ष्मी जी ने कहा “मैं इस समय कोई अर्धांगिनी नहीं बनना चाहती हूँ। मैं अभी आप लोगों की बात नहीं मान सकती। मेरी हिम्मत नहीं है जाने की। नरसिंह भगवान का वह स्वरूप देखा नहीं जा रहा मुझसे, वो अनंत कोटि सूर्य के समान प्रकाश हैं व क्रोधित भी हैं।” सब लोग हार गए कोई भी तैयार नहीं हुआ जानेको।
तब नारद जी ने तरकीब (सुझाव) दिया और उन्होंने कहा कि “देखो भाई! यह घपड़-सपड़ करना ठीक नहीं है। बड़ी बदनामी की बात है की मृत्यु लोक में इतना बड़ा काम किया भगवान ने और कोई उनकी स्तुति ना करे! अभिनंदन ना करे।
इसलिए नारद जी ने कहा कि “प्रह्लाद को भेजो!” प्रह्लाद के पास सब लोग गए और कहा कि “बेटा तुम्हारे पिता को मार कर के नृसिंह भगवान खड़े हैं। उनके पास जाओ!” प्रह्लाद जी को डर नहीं लगा, वो आराम से पहुंच गए नृसिंह भगवान के पास। उस वक्त प्रह्लाद जी ५-६ वर्ष के ही थे।
जब वह गए नृसिंह भगवान के पास पहुंचे तो भगवान विराट स्वरूप, आंतों की माला पहने हुए, खून से लतपत नाख़ून थे वे प्रह्लाद को देख कर मुस्कुराने लगे। फिर समस्त देवी-देवता, ब्रह्मा, शंकर आदि नृसिंह भगवान के पास जाकर उनकी स्तुति व अभिनंदन करने लगे। तब नृसिंह भगवान ने प्रह्लाद से कहा (भागवत ७.९.५२)
“वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम्”
भावार्थ – बेटा वर मांगो। जो कुछ मांगोंगे वह सब मैं देने को तैयार हूँ। सब मांगते हैं तुम भी मांगों बेटा। तब प्रह्लाद ने मन ही मन कहा अच्छा! बेवकूफ बनाना शुरु हो गया, कहते हैं वर मांगो!
प्रह्लाद ने कहा (भागवत ७.१०.४)
“यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक्”
भावार्थ – हे प्रभु! जो दास कुछ भी कामना लेकर जाता है स्वामी के पास। तो वह दास नहीं है, वह तो बनिया (व्यापारी) है। ऐसा व्यापार तो हमारे संसार में रोज होता है। हमने ₹10 दिया तो उसने ₹10 की मिठाई दे दिया। यह तो व्यापार है। दास तो केवल दासता करता है।
यदि दास्यसि मे कामान्वरांस्त्वं वरदर्षभ।
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्॥
भावार्थ – प्रह्लाद जी कहते हैं कि अगर प्रभु आप देना ही चाहते हैं और अगर आपकी आज्ञा है कि मेरी आज्ञा है मानना ही पड़ेगा, ऐसा कोई आपका आदेश हो, तो प्रभु! यह वर दीजिए कि मैं आपसे कुछ न मांगू, ऐसा मेरा अंतःकरण कर दीजिए कि कभी मांगने की बुद्धि पैदा ही ना हो, वर्तमान में तो नहीं है प्रभु! लेकिन आगे भी ना हो ऐसा वर दे दीजिए। क्योंकि मैं तो अकाम हूँ। मैं तो सेवा चाहता हूँ। मैं कुछ मांगने नहीं आया हूँ और वास्तविकता यह है कि आपको भी हमसे कुछ नहीं चाहिए। फिर आप मुझसे क्यों कहते हैं कि वर मांग? (भागवत ७.१०.८)
इन्द्रियाणि मनः प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मतिः।
ह्रीः श्रीस्तेजः स्मृतिः सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना॥
भावार्थ – प्रभु! यह कामना ऐसी बुरी चीज है की अगर कामना पैदा हो गई, तो इंद्रियां, मन, प्राण, आत्मा, धर्म, धैर्य, लज्जा, श्री, तेज, सत्य, सब नष्ट हो जाते हैं। यह कामना की बीमारी मुझको नहीं है, इसलिए आप देना ही चाहते हैं तो मुझे ऐसा वर दीजिए कि कामना कभी पैदा ही ना हो। नृसिंह भगवान मुस्कुराने लगे उन्होंने कहा कि ठीक है, जैसा तू कहता है वैसा ही होगा।
अब मेरी आज्ञा सुन (भागवत ७.१०.११)
“तथापि मन्वन्तरमेतदत्र दैत्येश्वराणामनुभुङ्क्ष्व भोगान्”
भावार्थ – एक मन्वन्तर राज्य करो। (४३२०००० मानव वर्ष का चार युग, ७१ बार चार युग बीत जाये तो १ मन्वन्तर होता है जो ३०६७२०००० मानव वर्ष के बराबर है।) लगभग ३० करोड़ वर्ष तक राज्य करो, यह आज्ञा नृसिंह भगवान ने प्रह्लाद को दिया। ऐसा कह कर भगवान अंतर्ध्यान हो गए और सब लोगों ने कहा बोलिए नृसिंह भगवान की जय।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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भगवान तो भाव के भूखे हैं।
जय श्रीराम🙏🏻