सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता १.४२
यदि कुल का क्षय हो तो अनादि धर्म, कुल-परम्परा, नित्य-नैमित्तिक क्रियाएं, लोकाचार इत्यादि सब समाप्त हो जाते हैं। वर्ण-संकर संतानों में धार्मिक बुद्धि नहीं होती है, क्योंकि उनके स्वयं का कुलधर्म नहीं होता अतः वे उसका पालन नहीं कर सकते। जिन्होंने अपने कुल का नाश कर दिया है, उनके पितरों को वर्णसंकर संतानों के द्वारा पिण्ड व जल (पिण्डोदक) अर्थात श्राद्ध व तर्पण न मिलने से (पितरों का) पतन हो जाता है।
इसके अतिरिक्त कलियुग के प्रभाव व धार्मिक बुद्धि न होने से आज के समय में अनेक ऐसी संतानें हैं जो या तो श्राद्ध को मानती ही नहीं हैं या वेद विरुद्ध विधि को अपनाती हैं।
पितर कौन हैं, कितने प्रकार के हैं और किसके लिए श्राद्ध किया जाता है?
मनोहरण्यगर्भस्य ये मरीच्यादयः सुताः ।
तेषामृषीणां सर्वेषां पुत्राः पितृगणाः स्मृताः ॥
– मनुस्मृति ३.१९४
हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा के पुत्र मनु के जो मरीचि तथा अत्रि आदि (ऋषि) पुत्र पहले (मनुस्मृति १.३५ में) कहे गये हैं, उन ऋषियों (सोमपा आदि) के पुत्र पितर कहे गये हैं।
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितृभ्यो देवमानवाः ।
देवेभ्यस्तु जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः ॥
– मनुस्मृति ३.२०१
ऋषियों (मरीचि आदि) से पितर उत्पन्न हुए, पितरों से देवता तथा मनुष्य उत्पन्न हुए, देवताओं से चराचर (चर-जङ्गम-चलने वाला, अचर-स्थिर) यह संसार क्रम से उत्पन्न हुआ।
अथर्ववेद में भी कहा गया है – अङ्गिरा ऋषि हमारे पितर हैं, इसी प्रकार अथर्वा तथा भृगु ऋषि भी हमारे पितर हैं। (अङ्गिरसो न: पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगव: सोम्यास: – अथर्ववेद १८.१.५८)
तात्पर्य यह है कि ऋषि-प्राण से पितर-प्राण उत्पन्न हुए और उन्हीं से देवता व विश्व का निर्माण हुआ। पितर ऋषि-प्राण का ही दूसरा रूप हैं, तप से बने हुए व तप से रचना करने वाले ये ऋषि तप के द्वारा ही अनेक रूपों में परिणित होते हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार “पहले यह जगत असत् (अव्यक्त) था, यह असत् क्या था? ‘प्राणा वा ऋषयः’ अर्थात प्राण ही ऋषि थे।” ये इंद्रियगम्य नहीं हैं अतः असत् कहलाये, इन्हीं का क्रमश: व्यक्ततर रूप में विकास होने पर इनसे पितृप्राण, देवप्राण, असुरप्राण, गंधर्वप्राण तथा अंत में पशुप्राण उत्पन्न होते हैं। १२ ऋषि (भृगु, अंगिरा, अत्रि, मरीचि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, वसिष्ठ, अगस्त्य, विश्वामित्र और विश्वकर्मा) जब पितृ संज्ञा में आते हैं – तब सृष्टि कर्ता होते हैं।
मनुस्मृति के अनुसार – ब्राह्मणों के पितर ‘सोमपा’ ऋषि भृगु के पुत्र हैं, क्षत्रियों के पितर ‘हविर्भुज’ ऋषि अंगिरा के पुत्र हैं, वैश्यों के पितर ‘आज्यप’ ऋषि पुलस्त्य के पुत्र हैं, शूद्रों के पितर ‘सुकाली’ ऋषि वसिष्ठ के पुत्र हैं।
ऋग्वेद व अथर्ववेद के अनुसार (लोकभेद) से पितृ तीन प्रकार के होते हैं; ‘पर’, ‘मध्यम’ और ‘अवर’।
‘श्राद्ध जीवित पितरों का होता है’ – इस प्रकार के वेद विरुद्ध मत रखने वाले आर्यसमाजी क्या यह बता सकते हैं कि जीवित पितरों में कौन ‘पर’ है, कौन ‘मध्यम’ है और कौन ‘अवर’ है? माता पिता के अतिरिक्त आचार्य और अतिथि को भी पितर कहने वाले नास्तिक, सामान्य जनों को वेद व लोकाचार से दूर ही ले जा रहे हैं।
उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमा: पितर: सोम्यास:।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु।।
– ऋग्वेद १०.१५.१, अथर्ववेद १८.१.४४
‘अवर’, ‘मध्यम’ एवं ‘पर’ श्रेणी के पितर हमारे लिए सौम्य (अनुग्रह करने वाले) बनते हुए हमारी उन्नति का कारण बनें। अवस्था एवम गुणों में श्रेष्ठ, निकृष्ट एवं मध्यम श्रेणी के पितर भी उठें। ये पितर सोम का भक्षण करने वाले हैं। ये प्राण से उपलक्षित शरीर को प्राप्त होने वाले, अहिंसक और पदार्थ के ज्ञाता हैं। बुलाए जाने पर ये पितर हमारी रक्षा करें।
इनको ‘दिव्यपितृ’, ‘ऋतुपितृ’ और ‘प्रेतपितृ’ मानना चाहिए। इनकी मूल प्रकृति में भेद के कारण ये आग्नेय, याम्य और सौम्य कहे जाते हैं, क्योंकि इनके सहयोगी देवता अग्नि, यम और सोम हैं।
पर = दिव्यपितृ = आग्नेय = अग्नि
मध्यम = ऋतुपितृ = याम्य = यम
अवर = प्रेतपितृ = सौम्य = सोम
आग्नेय पितर दक्षिण आकाश से उत्तर की ओर गतिशील होते हैं, याम्य पितर मध्य आकाश से नीचे की ओर गिरते हैं और सौम्य पितर उत्तर आकाश से दक्षिण की ओर गतिशील रहते हैं। ये सभी नित्य पितर हैं जिनसे १. दिव्य, २. ऋतु तथा ३. प्रेत पितृ उत्पन्न होते हैं।
१. दिव्यपितृ – ये तीन प्रकार के होते हैं – अन्नविधा:, अन्नादविधा: और अनुभयविधा:। उपरोक्त मनुस्मृति में वर्णित वर्ण के अनुसार जो पितरों के नाम दिए हैं वे इसी श्रेणी में आते हैं। ये देवताओं के उत्पादक पितर हैं।
२. ऋतुपितृ – “ऋतव: पितर:” – ये ऋतुरुप नित्य पितर हैं।
स्वयं प्रकृति यम होम करती है इससे ऋतु भेद अनुभव होते हैं। अग्नि व सोम की मात्रा के अनुरूप ग्रीष्म, शरद आदि ऋतुओं का अनुभव होता है। इस नैसर्गिक प्रक्रिया को बल देने के लिए सोमतत्त्व प्रधान द्रव्यों से अग्नि में होम किया जाता है, जिससे प्राणिमात्र की रक्षा होती है। पितरों और देवों के अनुग्रह से जीवन यात्रा यथावत चलती है, इसलिए प्राकृतिक कार्यों के अनुरूप मनुष्य भी देवों पितरों की तृप्ति हेतु तथा अग्नि-सोम के संतुलन के लिए विभिन्न ऋतुओं में श्राद्ध-यज्ञ आदि करते रहते हैं। जब सोम तत्त्व की अधिकता से अग्नि तत्त्व का प्रभाव कम होने लगता है अर्थात शरद ऋतु का आरंभ होता है, तभी पितृपक्ष आरंभ होता है।
३. प्रेतपितृ – चंद्रलोक में प्रतिष्ठित पिता-पितामह-प्रपितामह आदि के महानात्मा ही प्रेतपितर कहलाते हैं, इन्हें ही मृतपितर भी कहा गया है। इन्हीं पितरों के लिए स्ववंशजों द्वारा श्रद्धापूर्वक पिण्डदान करना ‘श्राद्धकर्म’ है।
अथर्ववेद १८.१.४६ के अनुसार प्रेतपितर भी तीन प्रकार के हैं यथा – १. जो पितर पहले पितरलोक को प्राप्त हुए, २. जो अब वहाँ गए हैं, ३. जो अभी पृथ्वीलोक में ही हैं। और जो पितर भिन्न-भिन्न दिशाओं में हैं (दिव्यपितृ तथा ऋतुपितृ), उन सभी पितरों को नमस्कार है।
आत्मा स्थूलशरीर को छोड़कर सूक्ष्मशरीर को धारण कर कर्मफल भोगने हेतु लोकान्तर में गमन करता है। लोकान्तर में जाने वाले ‘प्रेत’ संज्ञक आत्मा को श्रद्धासूत्र द्वारा अन्नादि से तृप्त करना ही श्राद्धकर्म है, इसका संबंध आत्मा से है। क्योंकि आत्मा, पितर प्राण, श्रद्धासूत्र, परलोक आदि अदृष्ट हैं, इसलिए ‘शब्द प्रमाण’ ही इनका प्रमाण है। और इसका पर्याप्त प्रमाण श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण आदि शास्त्रों में उपलब्ध है।
स्वधा अन्न से तृप्त पितर अपने वंश में प्रजातंतु (गुणसूत्र) को संतान रूप से फैलाकर सुरक्षित रखते हैं, यही इस कर्म का प्रधान फल है। स्वाहा-कार देवताओं के लिए तथा स्वधा-कार पितरों के लिए होता है। स्वधा (स्व+धा) का अर्थ होता है – स्व का धारण अथवा पोषण। आत्म संरक्षण के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति जो कर्म करता है वह सब पितृयज्ञ है – यह अपने पूर्वजों के प्रजातंतु को सुरक्षित रखने का सहज प्रयत्न है। जो पिण्डदान आदि श्राद्ध कर्म नहीं करते हैं, उनके पुत्र-पौत्रों के शुक्र में प्रतिष्ठित महानात्मा के ‘पित्र्यसह:’ पिण्ड क्षीण हो जाते हैं, शुक्र निर्बल हो जाता है और यह वंशोच्छेद का एक कारण बन जाता है। इसके अतिरिक्त पितरों के अभिशाप से वे लोग लोक समृद्धि से भी वंचित रहते हैं।
नोट – मृत्यु के बाद आत्मा की गति व इसमें श्राद्ध का महत्त्व आदि का उल्लेख श्रद्धाविश्वमिदं जगत् में।