विद्वानों में इस विषय पर एक लम्बे समय से मंथन चल रहा है। क्योंकि उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर आज की ‘श्रीलंका’ का पूर्व नाम ‘सिंहल’ अथवा ‘सीलोन’ है जो रावण की लंका से भिन्न एक देश है। आधिकारिक रूप से इसका ‘श्रीलंका’ के रूप में नामकरण ही सन् १९७२ ईस्वी में हुआ है।
सिंहल अथवा सीलोन और लंका एक नहीं हैं, इसके विषय में शास्त्रों में जो प्रमाण मिलते हैं, पहले उन्हें देखते हैं :
१. महाभारत के अनुसार : सभापर्व में सिंहलद्वीप का उल्लेख है। दक्षिणी राज्यों पर विजय प्राप्त करने वाले सहदेवजी ने कहा है कि उन्होंने ‘ताम्रद्वीप’ तथा ‘रामक’ पर्वत को विलय किया था तदंतर तत्कालीन ‘लंका के राजा ‘विभीषण’ के समीप कर प्राप्त करने के लिए घटोत्कच को दूत के रूप में भेजा था। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि ‘ताम्रद्वीप’ सिंहलद्वीप का ही एक प्राचीन नाम है।
यूनानी लेखकों ने सीलोन का Taprobane (ताप्रोबन या ताम्रपर्ण) के नाम से उल्लेख किया है। महाभारत वनपर्व के ५१वें अध्याय में जब वनवास के समय भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों से मिलने जाते हैं तब उनकी दयनीय दशा देख कर कहते हैं कि – ‘राजसूय यज्ञ के समय तुम्हारी इतनी ख्याति थी कि पृथ्वी के सभी देश के राजा अपनी स्थिति और सम्मान को भूल कर तुम्हारी सेवा में लगे रहते थे। वे तुम्हारे शस्त्र और तेज से घबराये हुए वंग, अंग, पौंड्र, उड्र, चोल, द्रविण, अन्ध और समुद्र-तीरस्थ देश ‘सिंहल’, ‘लंका’ आदि के राजा तुम्हारी सेवा में लगे रहते थे। आज तुम्हारी यह दशा है’ – यहाँ भी सिंहल और लंका का नाम पृथक-पृथक स्थानों के लिए आया है।
२. मार्कण्डेय पुराण के अनुसार : कूर्मविभाग में दक्षिण भारत के देशों की सूची इस प्रकार मिलती है :
लङ्का कालाजिनाश्चैव शैलिका निकटास्तथा॥
तक्षिणाः कौरुषा ये च ऋषिकास्तापसाश्रमाः ।
ऋषभाः सिहलाश्चैव तथा काञ्चीनिवासिनः॥ (अध्याय ५८.२०,२७)
इन देशों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि ये कूर्म से दक्षिण दिशा में अवस्थित हैं। इस सूची से भी ज्ञात होता है कि लंका और सिंहल दो भिन्न-भिन्न देश हैं।
३. श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार : पाँचवें स्कन्द में जम्बूद्वीप के आठों उपद्वीपों के नाम इस प्रकार दिये गये हैं :
जम्बूद्वीपस्य च राजन्नुपद्वीपानष्टौ हैक उपदिशन्ति…।
तद्यथा स्वर्णप्रस्थश्चन्द्र शुक्ल आवर्तनो रमणको मन्दरहरिणः पाञ्चजन्यः “सिंहलो” “लङ्केति”।
(स्कन्द ५.१९.२९-३०)
अर्थात् हे राजन्! जम्बूद्वीप के आठ महाद्वीप हैं – स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दर-हरिण, पाञ्चजन्य, “सिंहल” और “लंका”।
यहाँ से भी यह दोनों अलग-अलग सिद्ध होते हैं।
४. बृहत्संहिता के अनुसार : वराहमिहिर ने बृहत्संहिता के कूर्मविभाग में दक्षिण देशों के नाम इस प्रकार बताये हैं और यहाँ से भी यह दोनों भिन्न सिद्ध होते हैं –
अथ दक्षिणेन लङ्काकालाजिनसौरिकीर्णतालिकटाः ।
काञ्चीमरुचीपट्टनचेर्यार्यकसिंहला ऋषभाः ॥ (अध्याय १४.११,१५)
यह नाम हैं : लंका, कालाजिन, सौरिकर्ण, तालिकटा, कांची, मरुचि, पट्टनचैरी, आर्यक, सिंहल और ऋषभा।
इनके अतिरिक्त शास्त्रों में सिंहल और लंका का नाम पृथक देशों के लिए ही मिलता है। सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसा कोई एक भी ग्रंथ नहीं मिलता जिससे यह सिद्ध हो कि सिंहल अथवा सीलोन ही प्राचीन लंका है।
पण्डित मधुसूदन ओझा जी ने अपने ग्रन्थ “इन्द्रविजयः” में कुल १२ प्रामाणिक आपत्तियों द्वारा सिंहलद्वीप को लंकाद्वीप मानने का खण्डन किया है, जिसमें कुछ प्रमुख आपत्तियाँ इस प्रकार हैं :
- शास्त्रों में लंका को निरक्ष (अक्षांश-रहित अर्थात् ० डिग्री/अंश) देश कहा गया है। जबकि सिंहलद्वीप सात अंश (७ डिग्री) और चालीस कला उत्तर अक्षांश पर स्थित है।
- प्राचीन काल में भारतवर्ष में उज्जैनी नगरी से भूमध्य रेखा मानी जाती थी। यह भूमध्य रेखा उज्जैनी होती हुई मेरु पर्वत तक बताई जाती है। इसे पृथ्वी का मध्य कहा गया। लंका देश इसी भूमध्य रेखा पर स्थित था जबकि आधुनिक सीलोन या सिंहलद्वीप उज्जैनी की अपेक्षा ५ डिग्री अक्षांश पूर्व की ओर स्थित है। अतः वहाँ से कोई रेखा उज्जैनी का स्पर्श करती हुई किसी प्रकार नहीं जा सकती।
- गणितज्ञ, ज्योतिषी, सिद्धांतशिरोमणिकार भास्कराचार्य ने समय गणना के अनुसार उज्जैनी नगरी का लंका के अपेक्षा साढ़े बाईस अक्षांश पर स्थित होना सिद्ध किया है, तात्पर्य यह है कि यदि विषुवत् रेखा का स्पर्श करने वाले ‘मालदीव’ से लंका का भाव लिया जाये तो कुछ उचित सा जान पड़ता है किन्तु इस आधार पर सिंहल को लंका नहीं माना जा सकता।
- वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड के अनुसार हनुमानजी महेद्र पर्वत से त्रिकूट पर्वत तक सौ योजन दूर लंका गये थे, यह भी आया है कि कई अन्य योद्धा सौ योजन की दूरी पार नहीं कर सकते थे जबकि सिंहलद्वीप मात्र ५० कोस से भी कम की दूरी पर स्थित है।
- वाल्मीकि रामायण के अनुसार लंका सौ योजन (चार सौ कोस) लंबा और तीस योजन (एक सौ बीस कोस) चौड़ा था जबकि सिंहल द्वीप एक सौ पैंतीस कोस लंबा और एक सौ साढ़े बाईस कोस चौड़ा है।
- वर्तमान सिंहलद्वीप में अनेक पर्वत और महावली नाम की गङ्गा नदी प्रसिद्ध है परन्तु शास्त्रों के लंका वर्णन में त्रिकूट और सुवेल नाम के दो पर्वत का ही उल्लेख मिलता है। यदि वहाँ महावली नाम की गङ्गा नदी होती तो अवश्य ही रामायण आदि ग्रंथों में चरित्रप्रसंग के समय उनका उल्लेख किया गया होता।
- वर्तमान सिंहलद्वीप में त्रिकूट पर्वत पर रावणविहार और अशोक वाटिका नाम के स्थानों की प्रसिद्धि मिलती है और इससे भी सिंहलद्वीप को लंका मनाने की संभावना प्रबल होती है जबकि शास्त्रों के अनुसार रावण ने आस-पास के सिंहल आदि द्वीपों पर भी विश्राम-स्थल और विहार का निर्माण कराया था। सम्भव है कि रावण की आज्ञा से वहाँ भी लंका सदृश स्थानों का निर्माण किया गया हो।
- रामसेतु के प्रसंग में सेतुबन्ध रामेश्वरम् से सिंहलद्वीप तक समुद्र में कुछ-कुछ दूरी पर पर्वतों का समूह है, अतः इसे भगवान श्रीराम द्वारा बनाये गये सेतु के अवशेष होने की संभावना प्रतीत होती है। परन्तु यह तर्क भी शास्त्रों की कसौटी पर विफल है तथा उपहास करने योग्य है। क्योंकि भगवान श्रीराम ने सेतुबन्ध के समय पर्वतों को समुद्र के अंदर स्थापित नहीं किया था अपितु श्रीराम द्वारा सेतु समुद्र के ऊपर तैरती हुई शिलाओं द्वारा तैयार किया गया था। वे शिलाएँ अवश्य ही सेतु के टूटने से नष्ट हो गई होंगी और कुछ इधर-उधर बिखर गई होंगी जो आज भी आस-पास के क्षेत्रों में देखने को मिल भी जाती हैं। अतः पर्वतों को देख कर तैरते सेतु की कल्पना करना बालक्रीड़ा समझकर उपेक्षा करने योग्य है।
यदि आप आधुनिक श्रीलंका को ही प्राचीन लंका मानते हैं तो आपको जान कर आश्चर्य हो सकता है कि सिंहलद्वीप सन् १९७२ ईस्वी तक ‘सीलोन’ नाम से जानी जाती थी जिसका नामकरण करके सन् १९७२ ईस्वी में ‘श्रीलंका’ किया गया है। अतः यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘श्रीलंका’ नाम प्राचीन ही है।
यहाँ तक कि तब भारतीय भी उसे लंका नहीं मानते थे तथा लंका कहाँ थी, इस विषय में शोध किया करते थे। इसके पक्ष में कुछ प्रमाण निम्नलिखित प्रकार से हैं –
सन् १९२५ ईस्वी में तत्कालीन मद्रास में ‘अखिल भारतीय ओरिएंटल कॉन्फ़्रेंस’ के तृतीय अधिवेशन में सरदार माधवराव किवे ने एक निबन्ध पढ़ा था, जिसमें उन्होंने यह बताने का प्रयास किया था कि वाल्मीकीय रामायण में वर्णित रावण की लंका अमरकण्टक पहाड़ पर स्थित थी जो विंध्याचल की एक शाखा है और जहां से भारत देश को दो भागों में विभक्त करने वाली नर्मदा नदी प्रवाहित होती है।
जैन रामायण (पउमचरिअ) के सम्पादक प्रोफेसर जैकोबी ने स्वीकार किया कि सरदार माधवराव किवे की लंका के विषय में यह धारणा उनके सिद्धान्त से कहीं अधिक श्रेष्ठ है जिसमें उन्होंने रावण की लंका को कहीं आसमान में स्थित बताया था।
ज्ञातव्य है कि सन् १९१९ में ’अखिल भारतीय ओरिएंटल कॉन्फ़्रेंस’ की प्रथम अधिवेशन में तत्कालीन पूना में इन्हीं सरदार माधवराव किवे ने लंका के सम्बन्ध में इसी सिद्धान्त को प्रस्तुत किया था और तृतीय अधिवेशन के निबन्ध के उपसंहार में उन्होंने कहा कि ‘उपलब्ध स्थानीय ज्ञान के अनुसार अब कुछ सन्देह शेष नहीं रह जाता कि रावण की लंका मध्यभारत में थी।’
स्व० बी० एच० वाडेर और पण्डित रघुबीरदासजी ने अपने-अपने लेख “रावण की लंका कहाँ थी?” और “रावण की लंका” में सरदार माधवराव किवे के प्रसंग का सविस्तार वर्णन किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक श्रीलंका के इस नामकरण के पहले भारतीय भी इसी शोध में लगे रहते थे कि रावण की लंका कहाँ पर स्थित थी।
अब प्रश्न यह उठता है कि यदि सिंहलद्वीप या आधुनिक श्रीलंका रावण की लंका नहीं है तो रावण की लंका कहाँ स्थित थी?
इस विषय पर जो कुछ सिद्धांत अथवा विचार मिलते हैं वह निम्नलिखित प्रकार से हैं –
- पहले सिद्धान्त के अनुसार एक बड़ा विद्ववर्ग मानता है कि रावण की लंका आज की मलयद्वीप या आधुनिक मालदीव है।
- कुछ विद्वान जिनमें मधुसूदन ओझा आदि भी सम्मिलित हैं, वे मानते हैं कि सिंहलद्वीप से पश्चिम की ओर कुछ ही दूर स्थित लक्केदीव (संभवतः आज का लक्षद्वीप) नाम का उपद्वीप प्राचीन काल का लंका देश है। इसके पीछे प्रमाण में उन्होंने छः तर्क प्रस्तुत किए हैं जिनमें प्रमुख तर्क – अ. लक्के तथा लंका शब्दों में परस्पर नाम का सादृश्य देखने को मिलता है। ब. लक्केदीव से दक्षिण में निरक्ष देश के समीप जो मालदीव है, वह अवश्य ही ‘मालेयद्वीप’ या ‘मालिद्वीप’ होगा जो राक्षस मालि का निवास स्थान था। मालि के चार पुत्र अनल, अनिल, हर और सम्पाति मालेय ही कहे जाते थे। वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड ५.४५ में उन्हें मालेय ही कहा गया है। स. प्राचीनकाल में लंकाद्वीप और मालिद्वीप एक ही थे क्योंकि आज का लक्केदीव जो निरक्ष बिन्दु पर स्थित है, इसके दक्षिण को ओर कुछ ही दूरी पर लंका द्वीप स्थित था। इस लंका द्वीप पर सालकंटकट वंश के राक्षस निवास करते थे। उन्हीं का वंशज माल्यवान राक्षस था जो सुमाली तथा माली का बड़ा भाई था। ये सुकेश के पुत्र तथा विद्युतकेश के पौत्र थे। वाल्मीकि रामायण में इनकी कथा है। द. यही स्थान शास्त्रों में उपलब्ध सभी भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप भी बैठता है।
- इस सम्बन्ध में तीसरा मत यह कहता है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित लंका आज लुप्त हो चुकी है। धर्मसम्राट करपात्रीजी महाराज ने ‘कालमीमांसा’ नामक ग्रंथ में लंका की स्थिति के विषय में लिखा है कि – लोगों द्वारा पूर्वी मध्य प्रदेश, दक्षिणी बिहार, पश्चिम बंगाल तथा छोटा नागपुर के आस-पास जो लंका की स्थिति निर्धारित की है (पहले विद्वानों ने इन स्थानों पर भी लंका की स्थिति निर्धारित की थी), वह अप्रामाणिक है। उनके अनुसार वाल्मीकि रामायण में वर्णित लंका सर्व साधारण के लिए आज लुप्त हो चुकी है।
कुछ लोग जो रामसेतु को लेकर लंका की स्थिति के विषय में अधिक आश्वस्त रहते हैं, उन्हें अपने विचार को बदलना चाहिए क्योंकि भारत में सुनियोजित तरीके से इतिहास में छेड़ – छाड़ करने का षड्यंत्र लम्बे समय से चल रहा है। वास्तविक इतिहास को भ्रष्ट करने के उद्देश्य से एक योजना चलाई गई जिसमें तरह – तरह के दावे, पहले तो षड्यंत्रकारियों द्वारा किये जाते हैं और जब जनता उन्हें मान लेती है तब शोध कर निष्कर्ष के नाम पर उसे मिथ्या सिद्ध कर दिया जाता है जिससे विश्वास का महल पूरी तरह से ढह जाता है।
विचार करिए की जिस दिन जिसे हम रामसेतु मानते हैं, उसके साथ ऐसा कुछ हुआ तो भारतीय इतिहास को कितना बड़ा धक्का लगेगा। ‘मायथॉलॉजी’ के नाम पर जो काल्पनिक इतिहास परोसा जाता है, उसी में हमारी भी गिनती होने लगेगी। यद्यपि वे आज भी रामायण, महाभारत, पुराण आदि को ‘मायथॉलॉजी’ ही कहते हैं, इस ओर आपका ध्यान शायद न गया हो।
इस विस्तृत चर्चा एवं महितिपूर्ण लेख के लिए धन्यवाद |
मुझे लगता है की आज की लंका ही रावण की लंका है | सिंहल द्वीप का अस्तित्व आज न हो ऐसा हो सकता है | वर्तमान अक्षांश ही पूर्व में होंगे अथवा उचित गिनती होगी यह भी नहीं मान सकते | उस में क्षति हो सकती हैं |
आभार! 💐 इस सम्बंध में प्रामाणिक पक्षों पर विचार करने से यह तो सिद्ध ही है कि आधुनिक श्रीलंका ही सिंघल द्वीप है, जो सीलोन से श्रीलंका के रूप में १९७२ में आई। इसके लिए ढेरों प्रमाण हैं, शास्त्रों में भी सिंघल द्वीप की स्थिति भी ठीक यही है। यहां सिंघल/सीलोन पर तो कोई शंका ही नहीं है। मूल प्रश्न तो यह है कि क्या सिंघल ही रावण की लंका है? क्योंकि ऐसा किसी ‘एक’… Read more »
Very well researched… 👍👍👍👍👍
मान्यवर आपके प्रमाण सत्य प्रतीत होते हैं किन्तु रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग तो कन्याकुमारी में स्थापित है जो कि श्रीलंका के समीप है ये कैसे संभव है इस ज्योतिर्लिंग को मालदीव या लक्ष्यद्वीप के समीप स्थित होना चाहिए था
दो बातें हैं, पहली यह कि रामेश्वरम वही हो सकता है और वहीं से सेतु निर्माण हुआ हो। दूसरी यह कि जैसा कि लेख में भी आया है कि तब लक्ष्यद्वीप और मलदीव एक ही थे अर्थात उनके स्थान में भी परिवर्तन हुआ है। द्वीप, महाद्वीपीय विस्थापन आज प्रमाणित भी है।