गाँव के पोखर में घर बन गये या खेत बना दिये गये। पेड़ कटते जा रहे है बाग और जंगल सिकुड़ कर किताबों में स्थान ले रहे है। कंक्रीट के जंगल अलबत्ता चढ़े आ रहे है।
क्या शहर, कस्बे या गाँव सब की वही रोनी सूरत है। हमारे ढोर धीरे ही सही डेरी का रुख अख्तियार कर चुके है। चिड़िया, पक्षी, जानवर हम देखने अभ्यारण्य या राष्ट्रीय पार्क जा रहे। जब ये मनुष्य सभी प्राणियों को रौंद रहा है तो क्या अन्य मानव को बख्श देगा, क्या मानवता बचेगी?
हथियार कुछ कर दिखाने को बेताब रहते हैं क्योंकि उसके पीछे मनुष्य अपनी सोच लिए खड़ा है। जब तक हम सभी प्राणी को प्रेम, सम्मान नहीं देते हैं, आप कैसे सोच सकते है हम अन्य मानव को सम्मान, प्रेम, गरिमा,अहिंसा, सद्भाव से रहने देंगे? इसके लिए संवेदनशीलता धारण करनी होगी, इसके वगैर पीड़ा महसूस नहीं कर सकते है।
हम अपना इलाज राजनीति से करवा रहे है जो हमे और विषाक्त कर रहा । वैद्य समाजिकता और धार्मिकता, वैज्ञानिकता में मिल सकता हैं लेकिन हम उधर जाने से ही कतरा रहें। इलाज सही जगह पहुचने पर होगा। क्या हम सब एक बार उधर चल के नही देख सकते जो कह रहा है कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। वो माँ इंतजार कर रही है तुम्हारा।
Sarvashreshth lekhak h dhananjay ji ap
धन्यवाद जी