महाभारत ‘भीष्मपर्व’ के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवतगीता उपपर्व’ है, जो कि भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय से आरम्भ हो कर बयालीसवें अध्याय में समाप्त होती है।
महाभारत में कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि पर जब अर्जुन स्वजनों के मोह के कारण युद्ध करने से मना करते हैं तब श्रीकृष्ण उन्हें जो उपदेश देते हैं, उसे गीता नाम से संकलित किया जाता है। गीता ‘ब्रह्म विद्या’ के अंतर्गत आती है।
कहते हैं कि श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) के समय काल की गति रुक गई थी और युद्ध भूमि में उपस्थित अन्य सभी जनों से यह गुप्त रही। भगवान ने कहा है कि गीता अत्यंत गुप्त विद्या है। “इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया। (गीता १८/६३)” अर्थात, इस प्रकार समस्त गोपनीयों से अधिक गुह्य ज्ञान मैंने तुमसे कहा। अब प्रश्न यह है कि इस श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को किस-किस ने सुना?
क्रम से प्रारंभ करते हैं –
१. अर्जुन : अर्जुन प्रत्यक्ष श्रोता थे, भगवान के मुखारबिन्दु से उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से गीता ज्ञान का श्रवण किया, इसमें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
२. संजय : भगवान वेदव्यास की कृपा से संजय ने युद्धभूमि में जो कुछ भी हुआ उसे देखा और सुना, यहां तक कि उन्होंने भगवान के विराट रूप के दर्शन भी किये।
एष ते संजयो राजन्युद्धमेतद्वदिष्यति।
महाभारत, भीष्मपर्व २/९
एतस्य सर्वं संग्रामे न परोक्षं भविष्यति ॥
राजन! यह संजय आपको इस युद्ध का सब समाचार बताया करेगा। सम्पूर्ण संग्राम भूमि में कोई भी ऐसी बात नहीं होगी, जो इसके प्रत्यक्ष न हो।
प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा दिवा वा यदि वा निशि।
महाभारत, भीष्मपर्व २/११
मनसा चिन्तितमपि सर्वं वेत्स्यति संजयः ॥
कोई भी बात प्रकट हो या अप्रकट, दिन में हो या रात में अथवा मन में ही क्यों न सोची गई हो, संजय सब कुछ जान लेगा।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
गीता १८/७४
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।
सञ्जय बोले – इस प्रकार मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुन का यह रोमाञ्चित करने वाला अद्भुत संवाद सुना।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
गीता १८/७५
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।
व्यास जी की कृपा से मैंने इस परम् गुह्य योग को साक्षात् कहते हुए स्वयं योगोश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
गीता १८/७७
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।
हे राजन ! श्री हरि के अति अद्भुत रूप को भी पुन: पुन: स्मरण करके मुझे महान् विस्मय होता है और मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ।
३. हनुमानजी : महाभारत, उद्योगपर्व के ५६ वें अध्याय के ९ वें श्लोक के अनुसार – भीमसेन के अनुरोध की रक्षा के लिये पवन नंदन हनुमानजी उस ध्वज में युद्ध के समय अपने स्वरूप को स्थापित किया था। और वे उस समय रथ की ध्वजा पर विराजमान थे। रूद्रावतार हनुमानजी को दिव्य दृष्टि की तो आवश्यकता भी न थी, अतः उन्होंने श्रीकृष्णार्जुन संवाद को अवश्य ही सुना होगा, इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए।
भीमसेनानुरोधायक हनूमान्मारुतात्मजः।
महाभारत, उद्योगपर्व ५६/९
आत्मप्रतिकृतिं तस्मिन्ध्वज आरोपयिष्यति ॥
४. बर्बरीक : बर्बरीक भीष्म पुत्र घटोत्कच का पुत्र थे, यद्यपि बर्बरीक का उल्लेख वेदव्यास कृत महाभारत में तो नहीं मिलता किन्तु ‘खाटू श्याम’ के रूप में पूजित होने के कारण इनका चरित्र जानने योग्य है। बर्बरीक की कथा स्कन्द पुराण के कुमारिका खण्ड के अंतिम अध्याय में मिलती है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण से आशीर्वाद मिलने के कारण बर्बरीक ने सम्पूर्ण महाभारत युद्ध को अपनी आँखों से देखा था और भगवान के आशीर्वाद के कारण ही वे आज भी पूजित हैं।
अतः श्रीकृष्णार्जुन संवाद (गीता) को अर्जुन, संजय, हनुमानजी और बर्बरीक ने सुना था। किन्तु केवल सुना था, गीता ज्ञान को पुनः ज्यों का त्यों स्वयं भगवान श्री कृष्ण भी कहने में असमर्थ थे। आश्वमेधिकपर्व के अंतर्गत अनुगीता उपपर्व में अर्जुन ने गीता ज्ञान को भूल जाने के कारण जब भगवान से पुनः कहने को कहा, तब भगवान ने क्रोधित होकर कहा :
श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम्।
महाभारत, आश्वमेधिकपर्व १६/९-१०
धर्मं स्वरूपिणं पार्त सर्वलोकांश्च शाश्वतान्॥
अबुद्ध्या यन्न गृह्णीतास्तन्मे सुमहदप्रियम्।
न च साऽद्य पुनर्भूयः स्मृतिर्मे सम्भविष्यति॥
भगवान बोले- अर्जुन! उस समय मैंने तुम्हें अत्यंत गोपनीय ज्ञान का श्रवण कराया था, अपने स्वरूपभूत धर्म-सनातन पुरुषोत्तम तत्व का परिचय दिया था और सम्पूर्ण नित्य लोकों का भी वर्णन किया था; किन्तु तुमने जो अपनी नासमझी के कारण उस उपदेश को याद नहीं रखा, यह मुझे बहुत अप्रिय है। उन बातों का अब पूरा – पूरा स्मरण होना संभव नहीं जान पड़ता।
न च शक्यं पुनर्वक्तुमशेषेण धनंजय॥
महाभारत, आश्वमेधिकपर्व १६/११-१२
स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः पदवेदने।
न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः॥
अब मैं उस उपदेश को ज्यों का त्यों नहीं कह सकता। क्योंकि वह धर्म ब्रह्मपद की प्राप्ति कराने के लिए पर्याप्त था, वह सारा का सारा धर्म उसी रूप में फिर दुहरा देना अब मेरे वश की भी बात नहीं है।