आर्ष ग्रन्थ और भारतीय दर्शन

spot_img

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक

प्राचीन भारतीय ग्रंथों (वेद, उपनिषद आदि) में जो ज्ञान, विज्ञान आदि जानकारियाँ मिलती हैं वह इतनी सटीक हैं कि यह कहना गलत न होगा कि मनुष्य किसी भी काल में अपने ज्ञान का विस्तार, किसी भी दिशा या क्षेत्र में करेगा, उसका आधार वही ज्ञान होगा। किन्तु उन्हें सही रूप में समझने और उनसे लाभ लेने के लिए बड़ी भारी योग्यता की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि आपने एक बार पढ़ कर सब जान लिया या कहीं से कुछ भी पढ़ा और समझ लिया।

भारतीय ग्रन्थ, भारत के ही नहीं अपितु पाश्चात्य विद्वानों और विज्ञानियों के भी उत्सुकता के केंद्र में रहे हैं। यदि आप निकोला टेस्ला (Nikola Tesla), नील्स बोर (Niels Bohr), रॉबर्ट ओपेनहाइमर (Julius Robert Oppenheimer), अर्विन श्रोडिन्गर (Erwin Rudolf Josef Alexander Schrödinger) आदि अनेक वैज्ञानिकों के शोध कार्यों को देखें तो पाएंगे कि अधिकांश की जानकारी भारतीय आर्ष ग्रन्थों में पहले से ही दी गई है किन्तु ग्रन्थों में आए विवरण को मूर्त रूप देना एक बड़े शोध कार्य का विषय है।

उदाहरण के लिए राइट बंधुओं द्वारा हवाई जहाज के आविष्कार को लीजिये, आपको ज्ञात होगा कि हवाई जहाज के निर्माण का वर्णन महर्षि भारद्वाज ने अपने ग्रन्थ “वैमानिकी शास्त्र” में बड़े विस्तार से किया है किन्तु भारत के विद्वान उससे लाभ नहीं ले सके। मुंबई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक और वैदिक विद्वान शिवकर बापूजी तलपडे के बारे में पहला आविष्कारक होने का दावा जरूर किया जाता है किन्तु वह शंकित भी किया गया है और दूसरी बड़ी बात यह है कि जिस देश में “वैमानिकी शास्त्र” जैसे ग्रन्थ हों और वहां किसी एक विद्वान ने ऐसे शोध के विषय में विचार किया, यह भी दुर्भाग्य पूर्ण ही है।

वास्तव में दोष भारत के लोगों या विद्वानों का नहीं रहा है। आप ध्यान दीजिये, ऐसे जितने भी आविष्कार हुए हैं उनका समय वही है जिस समय भारत गुलाम रहा। जिस समय भारत के लोग गुलामी की आग में जल रहे थे उस समय विश्व में तरह-तरह के आविष्कार हो रहे थे, साहित्य के क्षेत्र में नए आयाम लिखे जा रहे थे। यहां तक कि भारतीय ग्रन्थों को पढ़ कर उनके आधार पर अनेकों आविष्कार हुए जिसका श्रेय तो कभी नहीं दिया गया प्रत्युत उस ग्रन्थ को ही नष्ट कर दिया गया, अपने यहां सहेज कर रख लिया गया या यह सिद्ध कर दिया गया कि इसमें दी गयी जानकारी सही नहीं है, जिसे आज अधिकांश भारतीय भी मानने लगे हैं।

मुग़ल, अंग्रेज आदि सभी ने भारत के अमूल्य ज्ञान सम्पदा को एक नहीं बल्कि अनेकों बार नष्ट किया। गुप्त शासक कुमारगुप्त के समय में स्थापित नालंदा विश्वविद्यालय में इतने अमूल्य ग्रन्थ थे कि जब बख्तियार खिलजी द्वारा इसे जलवाया गया तब वह आग तीन महीनों तक जलती रही। यह समय लगभग वही था जब इंग्लैंड में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय की स्थापना की जा रही थी।

मैक्स मूलर द्वारा अपनी पत्नी को लिखे पत्रों के संग्रह में यह जानकारी मिलती है जिसमें उन्होंने बताया है कि भारत के एक – एक राजा के पुस्तकालय और उनका संस्कृत साहित्य का भण्डार इतना बड़ा था कि उसके सामने ग्रीस का साहित्यिक भण्डार कहीं नहीं टिकता, जो गुलाम भारत में अग्रेजों द्वारा बनाये गए नियमों के कारण नष्ट हो रहा है। ग्रन्थों के विषय में मैक्स मूलर कहते हैं कि मुझे ब्राह्मणों के ग्रन्थ वेद भाष्य के पहले संस्करण को लिखने में २० वर्ष लग गए। (It has taken me twenty years now to bring out the first edition of the sacred book of the Brahmans, the Veda; so I am afraid life is too short to embark on a second undertaking of the same kind—the one representing the oldest, the other the most modern phase of religious thought in India—the one 1,500 years before, the other 1,500 after, our era. I should be very glad someday to see Sir Thomas Phillips’s collection; I know it is wonderfully rich. I wish some collector, like him, would rescue what there is still to be rescued of the ancient literature of India. Manuscripts in India, being made of vegetable paper, do not last much longer than 400 years. It was the duty of every rajah to keep a library and a staff of librarians, whose work it was to recopy each manuscript as soon as it began to show signs of decay. As soon as these rajahs were pensioned off, the first retrenchment they made in their establishments was the suppression of these libraries and librarians. They were not even allowed to present their libraries to the East India Company! Well, the result is that at the present moment literary works, which have been preserved for more than a thousand years, are crumbling away. In a few places, where there exists still among the natives an interest in their ancient literature, manuscripts are copied and some of them printed and lithographed. But the great bulk of Sanskrit literature (larger than the literature of Greece) is allowed to perish, whereas a few thousand pounds might preserve all that is worth preserving. Manuscripts which in the hot and dry climate of India are so perishable are perfectly safe as soon as they are deposited in a European library.The Life and Letters of the right honourable Friedrich Max Muller, Page 327-28)

मध्य काल में गुलामी के बीच भारतीय मनीषा के लिए रास्ते आसान नहीं रहे, ग्रन्थों में वर्णन होने के होने के बाद भी उन्हें समझ कर वास्तविक लाभ लेने में बड़ा समय लगता गया। किंचित भारत को यदि गुलामी का दंश नहीं झेलना पड़ता तो निश्चित रूप से आज का विज्ञान कई गुना अधिक उन्नत होता क्योंकि जिस रहस्य को समझने में वैज्ञानिकों और अनुसन्धानकर्ताओं इतना अधिक समय लगा है, उसका वैदिक कालीन ऋषियों ने आर्ष ग्रन्थों में बड़ा ही विशद वर्णन किया हुआ है।

उदाहरण स्वरुप वायुमंडलीय अपवर्तन प्रक्रिया के कारण २ मिनट पहले दिखाई देने वाले सूर्योदय और २ मिनट विलम्ब से होने वाले सूर्यास्त को भारतीय मनीषा ने आर्ष ग्रन्थों के आधार पर बहुत पहले ही समझ लिया था जिसे आधुनिक विज्ञान ने बाद में जाना। (लेख के मुख्य चित्र को देखें) (The Advancement in sunrise and delayed sunset are the two phenomena that are caused due to the atmospheric refraction process. In this process the Sun appears to rise early by 2 minutes and set by 2 minutes late.)

अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी भारतीय मेधा शक्ति ज्ञान, विज्ञान, साहित्य आदि सभी क्षेत्र में विश्व के किसी भी देश की तुलना में मजबूत स्थिति में ही रहती है। इतिहास बताता है कि मध्य कालीन भारत के महान दार्शनिकों ने अनेक अवसरों पर विश्व – प्रचलित  सिद्धांतों को स्वीकार करते हुए अपने शास्त्रों में उनकी स्पष्ट स्थापना की और परवर्ती युग में जैसे ही उन्हें यह प्रतीत हुआ कि इसमें परिष्कार की आवश्यकता है, वैसे ही उन्होंने अन्य सिद्धांतों के प्रतिपादन में भी संकोच नहीं किया।

उदाहरण के लिए प्राचीन काल में लोगों में यह प्रमुख प्रश्न था कि जब सभी वस्तुएं ऊपर से नीचे गिरती हैं तो आग नीचे से ऊपर किस प्रकार उठती है?

इसके उत्तर में अरस्तू ने यह सिद्धांत स्थिर किया था कि विश्व में हर पदार्थ मूलतः एक सुनिश्चित स्थान रखता है तथा उसके अंश उसकी ओर आकर्षित होकर वहीं पहुँचना चाहते हैं। इस प्रकार मिट्टी का ढेला पृथ्वी के सम्बद्ध  होने से नीचे की ओर गिरता है तथा अग्नि सूर्य से सम्बन्धित होने से उसकी ओर आकर्षित होते हुए ऊपर की ओर उठती है। (It is, for example, a self-evident principle that everything in the universe has its place, hence one can deduce that objects fall to the ground because that’s where they belong, and smoke goes up because that’s where it belongs – The universe and Dr Einstein, Page 15)

तब भारतीय दार्शनिकों में भी यह सिद्धांत लोकप्रिय था। महाभाष्यकार (व्याकरणमहाभाष्य – पतंजली) ने एक प्रसंग में कहा है कि आग की लपट मूलतः सूर्य की ओर आकर्षित हो कर ऊपर उठती है। (ज्योतिषो विकारोऽर्चिराकाशदेशे सुप्रज्वलितं नैव तिर्यग्गच्छति, नार्वागवरोहति, ज्योतिषो विकारो ज्योतिरेव गच्छत्यान्तर्यतः॥ – अष्टाध्यायी सूत्र १.१.४९ पर महाभाष्य)

किन्तु जैसे ही विद्वानों ने आर्ष ग्रंथों को और समझा और उन्हें विदित हुआ कि इसमें परिष्कार की आवश्यकता है, उसी समय उन्होंने परिष्कृत सिद्धांत की स्थापना की। सांख्य की व्याख्या में आचार्य वाचस्पति मिश्र ने कहा कि कोई पदार्थ लघुता के कारण ऊपर की ओर उठता है। इसीलिए आग का ऊपर की ओर ज्वलन होता है। (तत्र कार्योदगमने हेतुर्धर्मों लाघवं, गौरवप्रतिद्वंद्वी, यतोऽग्नेरूर्ध्वज्वलनं भवति। – सांख्य-कारिका १३ वें श्लोक में तत्व-कौमुदी) यह वही सिद्धांत है जिसे आज आधुनिक विज्ञान भी मानता है।

यह परम्परा से ही रहा है कि भारतीय दर्शन में परिष्कार का दीपक कभी भी मन्द नहीं हुआ।

दर्शन-शास्त्र में सिद्धांतों की परीक्षा तथा परिष्कार आदि काल से ही उसकी प्रमुख विशिष्टता रही है। इस महान देश के उच्च कोटि के दार्शनिक कभी लकीर के फ़कीर नहीं रहे। उन्होंने दर्शन को सही अर्थों में प्रकृष्ट ईक्षण का विषय बनाया था। उनका यह मानना था कि किसी बड़े आदमी के कहने से नहीं, अपितु तर्क और युक्ति से तथ्य को स्वीकार करना चाहिए।

युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं न तु पुरुषगौरवात। – भास्कराचार्य।

ऋषियों, दार्शनिकों का यही कहना था कि जैसे सोने को कसौटी पर कस कर तथा उसे ठोक-पीट कर ही शुद्ध माना जाता है, उसी प्रकार मेरे वचनों की परीक्षा करके ही सही मानना, किसी के कहने से नहीं।

तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डिते:।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात् ।।

– तत्व संग्रह

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
Disclaimer: The opinions expressed in this article are the author’s own and do not reflect the views of the संभाषण Team. The author also bears the responsibility for the image/images used.

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक

कुछ लोकप्रिय लेख

कुछ रोचक लेख