बाँस को वंश, त्वक्सार, कर्मार, त्वचिसार, तृणध्वज, शतपर्वा, स्तम्भ, यवफल, वेणु, काष्ठ, मस्कर, तेजन, तुंगा, शुभा, तुगा, किलाटी, पुष्पघातक, बृहत्तृण, तृणकेतुक, कण्टालु, महाबल, दृढ़ग्रन्थि, दृढ़पत्र, धनुर्द्रुम, दृढ़काण्ड, कीचक, कुक्षिरन्ध्र, मृत्युबीज, वादनीय, फलान्तक, तृणकेतु, तृणराजक, बहुपर्वन्, दुरारुह, सुशिराख्य आदि नामों से जाना जाता है।
आयुर्वेद की दृष्टि से बाँस सारक, शीतवीर्य, स्वादिष्ट, कषाय रस युक्त कफ नाशक एवं कुष्ठ, रक्त विकार आदि को दूर करने वाला कहा गया है। बाँस के अंकुर तथा यव (चावल) का प्रयोग भी आयुर्वेद में मिलता है।
बाँस के भीतर जो खोखला स्थान होता है, उसमें सफेद रस पाया जाता है। जब यह रस सूख कर कंकर के समान बन जाता है, तब उस कंकर को ‘वंशलोचन’ कहते हैं। आयुर्वेद में यह बड़े गुण–लाभ वाला बताया गया है।
धार्मिक दृष्टि से विचार करें तो कृष्णोपनिषत्, प्रथम खण्ड ८ में आया है – “वंशस्तु भगवान् रुद्रः शृण्गमिन्द्रः सगोसुरः॥”
अर्थात् वंशी साक्षात् रुद्र ही हैं। सगोसुर इन्द्र अर्थात् वज्रधारी देवराज इन्द्र शृंग (सींग का बना वाद्ययंत्र) का रूप धारण किए हुए हैं।
इसी कारण से बाँस से काँवर भी बनाई जाती है। बाँस वंश को बढ़ाने वाला कहा गया है, बाँस के अंकुर से बने शिवलिंग की आराधना से वंश वृद्धि का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। यही कारण है जो बाँस को जलाना वर्जित किया गया है।
धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज ‘भागवत सुधा’ में लिखते हैं –
श्रीकृष्ण को भगवान रुद्र की उपासना की जरूरत पड़ी। जैसे गोपियों को कृष्ण प्राप्ति के लिए कात्यायनी भगवती की आराधना करनी पड़ी, ऐसे ही श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द मदनमोहन को श्री राधारानी वृषभानुनन्दिनी नित्यनिकुंजेश्वरी को प्राप्त करने के लिए भगवान रुद्र की उपासना करनी पड़ी।
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें।
लहिअ न कोटि जोग जप साधे॥
– श्रीरामचरितमानस, १.६९.८
भगवान शंकर वर देने वाले और शरण में आए हुए भक्तों के दुखों का नाश करते हैं। शिव की आराधना के बिना इच्छित फल की प्राप्ति नहीं होती।
महाराज दशरथ और जनक जी के विषय में कहते हैं –
जनक सुकृत मूरति वैदेही। दशरथ सुकृत रामु धरे देही॥
इन्ह सम काहुँ न शिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल साधे॥
– श्रीरामचरितमानस, १.३०९.१-२
इनके समान किसी ने शिव की आराधना ही नहीं की। इनको शिव की कृपा से ही रामचन्द्र राघवेन्द्र परात्पर परब्रह्ममिले। तो श्रीकृष्णचन्द्र को भी राधारानी वृषभानुनन्दिनी जैसी दुलहिन पाने लिए तपस्या करनी पड़ी, शिव जी की आराधना करनी पड़ी। भगवान शिव भी श्रीकृष्ण के मनोरथ को पूर्ण करने के लिए कैलास छोड़कर आए। बाँस बने। काटे–पीटे गये। तपाये गये। इसलिए कि बाँस की वंशी बनें और श्याम सुन्दर के मंगलमय मुखचन्द्र पर विराजें। श्रीकृष्ण ने वंश रूप रुद्र की उपासना की। उपासना के लिए पहले सिंहासन चाहिए। शिव जी को कहाँ विराजमान करायें? अपने मंगलमय मुखचन्द्र पर। श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का मुखचन्द्र ही रुद्ररूपी वंशी का सिंहासन बना। श्रीकृष्ण ने मुकुट को ही छत्र बना दिया। कानों के कुण्डलों से ही नीराजन (आरती) किया। अंगुलिदलों से पाद–संवाहन किया – पैर दबाया। भोग भी चाहिए, नैवेद्य भी चाहिए। तो सुमधुर अधर सुधारस का भोग लगया। नैवेद्य निवेदन किया। फिर क्या था? भगवान रुद्र प्रसन्न हो गये। बोले– ‘वरं ब्रूहि’ वर तो वही था। भगवान रुद्र ने कहा – एक बार बजाओ मुझको। देखो तो सही श्री राधारानी कैसे नहीं मोहित होती हैं? सचमुच में श्री राधारानी वंशीरव को सुनते ही सान्द्रोन्माद परम्परा को प्राप्त हो गई। – (भागवत सुधा, द्वितीय पुष्प १४)
भगवान शिव की आराधना जीवन के प्रत्येक चरण से जुड़ी हुई है। जन्म के बाद बच्चों के गर्भ नाल को बाँस के पेड़ के नीचे दबाए जाने का विधान मिलता है। विवाह, उपनयन आदि संस्कारों में मण्डप के स्तम्भ बाँस के ही बनाए जाते हैं। यहाँ बाँस को ‘स्तम्भ’ कहा गया है। यथा पारस्कर गृह्यसूत्र में आया है “स्तम्भैश्चतुर्भिः सुश्लक्ष्णां वामभागे तु सद्मनः”। (कहीं – कहीं देशाचार के अनुसार ‘कदलीस्तम्भ’ का वर्णन मिलता है, विशेष रूप से भगवान सत्यनारायण की पूजा में या विवाह आदि के मण्डप के मध्य के स्तम्भ के रूप में; तब वहाँ केले का स्तम्भ लेना चाहिए।)
मृत्योपरांत अर्थी भी बाँस की बनाई जाती है, यहाँ भी ‘स्तम्भ’ नाम का ही उल्लेख मिलता है। शवदाह के समय जब शव आधा जल जाए तब ‘कपालक्रिया’ का विधान मिलता है। इसमें बाँस से शव के सिर पर चोट पहुँचाना (फोड़ना) होता है। यहाँ बाँस को ‘काष्ठ’ कहा गया है। यथा – गरुड पुराण, प्रेतकल्प १०.५६ में कहा गया है “अर्धे दग्धेऽथवापूर्णे स्फोटयेत् तस्य मस्तकम्। गृहस्थानां तु काष्ठेन यतिनां श्रीफलेन च॥” यहाँ गृहस्थों की कपालक्रिया बाँस से और यतियों की श्रीफल से करने का विधान मिलता है।
महाभारत, आदिपर्व के अंशावतार पर में आया है कि लता, गुल्म, वल्ली, बाँस और तिनकों की जितनी जातियाँ हैं वे सब क्रदू व सुरसा की पुत्री विरुधा से उत्पन्न हुई हैं। क्रदू से ही नाग और पन्नग जाति के दो पुत्र भी हुए हैं। यहाँ बाँस को ‘त्वक्सार’ कहा गया है। यथा ‘लतागुल्मानि वल्यश्च त्वक्सारतृणजातयः’।
इसी प्रकार भीष्मपर्व के अंतर्गत जम्बूखण्ड विनिर्माण पर अध्याय ४.१४ में भी स्थावरों की पाँच जातियों (वृक्ष – बड़, पीपल आदि, गुल्म – कुश, मन्दार आदि, लता – वृक्ष पर फैलने वाली बेल, वल्ली – जमीन पर फैलने वाली बेल, और त्वक्सार– बाँस, सुपारी आदि) का उल्लेख संजय ने किया है। अनुशासन पर्व में तृण – घास आदि को अलग से छठीं जाति बताया गया है।
महाभारत में बाँस की उपयोगिता का वर्णन अनुशासनपर्व, १४१ वें अध्याय में आया है जहां उमा–माहेश्वर संवाद में भगवान शिव कहते हैं कि ब्रह्मा जी कण्व मुनि की तपस्या से प्रसन्न हो कर और बाँस के द्वारा जगत का उपकार करने के लिए (लोककार्यं समुद्दिश्य वेणुनानेन भामिनि) बाँस से तीन धनुष बनाए थे। शिव धनुष के रूप में पिनाक, श्रीहरि के लिए शारंग और वेणु (बाँस) के अवशेष से तीसरा धनुष गाण्डीव कहा गया।
अग्निपुराण, अध्याय १०२ में आया है कि ध्वज का दण्ड बाँस का अथवा शाल का हो तो वह सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला है। यथा – ‘वंशजः शालजातिर्वा स दण्डः सर्वकामदः॥’