स्वामी विवेकानंद जी को एक बार एक महाराज अपने महल में बुलाये और बोले, “तुम लोग मूर्ति की पूजा करते हो। मिट्टी, पीतल, पत्थर की मूर्ति का, पर मैं ये सब नही मानता। ये तो केवल एक पदार्थ है।”
महाराजा के सिंहासन के पीछे किसी आदमी की तस्वीर लगी थी। विवेकानंद जी की नजर उस तस्वीर पर पड़ी।
विवेकानंद जी ने नवाब से पूछा – “ये तस्वीर किसकी है?”
नवाब बोले – “मेरे पिताजी की।”
स्वामी जी बोले – “उस तस्वीर को अपने हाथ में लीजिये।”
महाराजा ने तस्वीर को हाथ में ले लिया।
स्वामी जी ने कहा – “अब आप उस तस्वीर पर थूकिए।”
महाराज – “ये आप क्या बोल रहे हैं स्वामी जी?”
स्वामी जी – “मैंने कहा उस तस्वीर पर थूकिए..।”
महाराज (क्रोध से) – “स्वामी जी, आप होश मे तो हैं ना? मैं ये काम नही कर सकता।”
स्वामी जी बोले, “क्यों? ये तस्वीर तो केवल एक कागज का टुकड़ा है, जिस पर कुछ रंग लगा है। इसमे ना तो जान है, ना आवाज, ना तो ये सुन सकता है और ना ही कुछ बोल सकता है।”
स्वामी जी बोलते गए, “इसमें ना ही हड्डी है और ना प्राण। फिर भी आप इस पर कभी थूक नहीं सकते। क्योंकि आप इसमे अपने पिता का स्वरूप देखते हैं और आप इस तस्वीर का अनादर करना अपने पिता का अनादर करना ही समझते हैं।”
थोड़े मौन के बाद स्वामी जी ने आगे कहा – “वैसे ही हम हिन्दू भी उन पत्थर, मिट्टी, या धातु की पूजा भगवान का स्वरूप मानकर करते हैं। भगवान तो कण-कण में हैं, पर एक आधार मानने के लिए और मन को एकाग्र करने के लिए हम मूर्ति पूजा करते हैं।”
स्वामी जी की बात सुनकर महाराज ने स्वामी जी से क्षमा माँगी।
महाराज और कोई नहीं बल्कि राजपूताना स्थित खेतड़ी के महाराजा श्री अजित सिंह जी थे। बाद में अजित सिंह जी ने स्वामी विवेकानंद जी से शिष्यत्व ग्रहण किया। नरेंद्रनाथ दत्त को विवेकानंद नाम भी उन्हीं का दिया हुआ है। उन्हीं के पैसे से स्वामीजी अमेरिका गए थे।