श्रीकृष्ण दर्शन को भगवान शिव ने बनाया था जोगी रूप

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लीलापुरुष श्रीकृष्ण जब भी कोई लीला रचते हैं, उसके पीछे कोई आदर्श विद्यमान रहता है। जब-जब भगवान विष्णु ने अवतार लिया तब-तब भगवान शंकर उनके बालरूप के दर्शन के लिए पृथ्वी पर पधारे। श्रीरामावतार के समय भगवान शंकर श्रीकाकभुशुण्डि जी के साथ वृद्ध ज्योतिषी के रूप में अयोध्या में पधारे तो श्रीकृष्णावतार के समय बाबा भोलेनाथ साधु-वेष में गोकुल पधारे।

भगवान शिव जोगी रूप धरकर श्रीकृष्ण के दर्शन को आए :

भगवान शिव के इष्ट हैं विष्णु। जब विष्णुजी ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया तो अपने इष्ट के बाल रूप के दर्शन और उनकी लीला को देखने के लिए शिवजी ने जोगी रूप बनाया।

प्रस्तुत है भगवान शंकर की जोगी लीला :

श्रीमद्गोपीश्वरं वन्दे शंकरं करुणामयम्।
सर्वक्लेशहरं देवं वृन्दारण्ये रतिप्रदम्।।

श्रीकृष्ण के जन्म के समय श्री शंकर जी समाधि में थे। जब वह जागृत हुए तब उन्हें मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण ब्रज में बाल रूप में प्रकट हुये हैं, इससे शंकरजी ने बालकृष्ण के दर्शन के लिए जाने का विचार किया। शिवजी ने जोगी (साधु) का स्वाँग (रूप) सजाया और उनके दो गण–श्रृंगी व भृंगी भी उनके शिष्य बनकर साथ चल दिए।

‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी। हे नाथ नारायण वासुदेवाय’ कीर्तन करते हुए वे नन्दगाँव में माता यशोदा के द्वार पर आकर खड़े हो गए। ‘अलख निरंजन’ शिवजी ने आवाज लगायी। आज परमात्मा कृष्ण रूप में प्रत्यक्ष प्रकट हुए हैं। शिवजी इन साकार ब्रह्म के दर्शन के लिए आए हैं।

यशोदामाता को पता चला कि कोई साधु द्वार पर भिक्षा लेने के लिए खड़े हैं। उन्होंने दासी को साधु को फल देने की आज्ञा दी। दासी ने हाथ जोड़कर साधु को भिक्षा लेने व बालकृष्ण को आशीर्वाद देने को कहा।

शिवजी ने दासी से कहा कि, ‘मेरे गुरू ने मुझसे कहा है कि गोकुल में यशोदाजी के घर परमात्मा प्रकट हुए हैं। इससे मैं उनके दर्शन के लिए आया हूँ। मुझे लाला के दर्शन करने हैं।’ (ब्रज में शिशुओं को लाला कहते हैं, व शैव साधुओं को जोगी कहते हैं)।

दासी ने भीतर जाकर यशोदामाता को सब बात बतायी। यशोदाजी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने बाहर झाँककर देखा कि एक साधु खड़े हैं। उन्होंने बाघाम्बर पहिना है, गले में सर्प हैं, भव्य जटा हैं, हाथ में त्रिशूल है। यशोदामाता ने साधु को बारम्बार प्रणाम करते हुए कहा कि ‘महाराज आप महान पुरुष लगते हैं। क्या भिक्षा कम लग रही है? आप माँगिये, मैं दूँगी पर मैं लाला को बाहर नहीं लाऊँगी। अनेक मनौतियाँ मानी हैं तब वृद्धावस्था में यह पुत्र हुआ है। यह मुझे प्राणों से भी प्रिय है। आपके गले में सर्प है। लाला अति कोमल है, वह उसे देखकर डर जाएगा।’

जोगी वेषधारी शिवजी ने कहा, ‘मैया, तुम्हारा पुत्र देवों का देव है, वह काल का भी काल है और संतों का तो सर्वस्व है। वह मुझे देखकर प्रसन्न होगा। माँ, मैं लाला के दर्शन के बिना पानी भी नहीं पीऊँगा। आपके आँगन में ही समाधि लगाकर बैठ जाऊँगा।’

आज भी नन्दगाँव में नन्दभवन के बाहर ‘आशेश्वर महादेव’ का मंदिर है जहां शिवजी श्रीकृष्ण के दर्शन की आशा में बैठे हैं।

शिवजी महाराज ध्यान करते हुए तन्मय हुए तब बालकृष्णलाल उनके हृदय में पधारे और उधर बालकृष्ण ने अपनी लीला करना शुरु कर दिया। बालकृष्ण ने जोर-जोर से रोना शुरु कर दिया। माता यशोदा ने उन्हें दूध, फल, खिलौने आदि देकर चुप कराने की बहुत कोशिश की पर वह चुप ही नहीं हो रहे थे। एक गोपी ने माता यशोदा से कहा कि आँगन में जो साधु बैठे हैं उन्होंने ही लाला पर कोई मंत्र फेर दिया है।

तब माता यशोदा ने शांडिल्य ऋषि को लाला की नजर उतारने के लिए बुलाया। शांडिल्य ऋषि समझ गए कि भगवान शंकर ही कृष्णजी के बाल स्वरूप के दर्शन के लिए आए हैं। उन्होंने माता यशोदा से कहा, ‘माँ, आँगन में जो साधु बैठे हैं, उनका लाला से जन्म-जन्म का सम्बन्ध है। माँ उन्हें लाला का दर्शन करवाइये।’

माता यशोदा ने लाला का सुन्दर शृंगार किया–बालकृष्ण को पीताम्बर पहिनाया, लाला को नजर न लगे इसलिए गले में बाघ के सुवर्ण जड़ित नाखून को पहिनाया। साधू (जोगी) से लाला को एकटक देखने से मना कर दिया कि कहीं लाला को उनकी नजर न लग जाये। माता यशोदा ने शिवजी को भीतर बुलाया। नन्दगाँव में नन्दभवन के अन्दर आज भी ‘नंदीश्वर महादेव’ हैं।

श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप अति दिव्य है। श्रीकृष्ण और शिवजी की आँखें जब चार हुयीं तब शिवजी को अति आनंद हुआ। शिवजी की दृष्टि पड़ी तो बालकृष्ण हँसने लगे।

यशोदामाता को आश्चर्य हुआ कि अभी तो बालक इतना रो रहा था, अब हँसने लगा। माता ने शिवजी का बारम्बार वंदन किया और लाला को शिवजी की गोद में दे दिया। माता यशोदा ने जोगी से लाला को नजर न लगने का मन्त्र देने को कहा। जोगी रूपी शिवजी ने लाला की नजर उतारी और बालकृष्ण को गोद में लेकर नन्दभवन के आँगन में नाचने लगे।

सारा नन्दगाँव शिवलिंगाकार बन गया और आज भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि नन्दगाँव पहाड़ पर है और नीचे से दर्शन करने पर ऐसा लगता है कि भगवान शंकर बैठे हैं। शिवजी ‘योगीश्वर’ हैं और श्रीकृष्ण ‘योगिराज’, दोनों को ही ‘नटराज’ कहा जाता है। श्रीकृष्ण प्रवृत्ति धर्म समझाते हैं, शिवजी निवृत्ति धर्म समझाते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में कथा है कि भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य अंगों से भगवान नारायण, शिव व अन्य देवी-देवता प्रादुर्भूत हुए।

शिवजी ने श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा :

विश्वं विश्वेश्वरेशं च विश्वेशं विश्वकारणम्।
विश्वाधारं च विश्वस्तं विश्वकारणकारणम्।।
विश्वरक्षाकारणं च विश्वघ्नं विश्वजं परम्।
फलबीजं फलाधारं फलं च तत्फलप्रदम्।।

अर्थात, आप विश्वरूप हैं, विश्व के स्वामी हैं, नहीं नहीं, विश्व के स्वामियों के भी स्वामी हैं, विश्व के कारण हैं, कारण के भी कारण हैं, विश्व के आधार हैं, विश्वस्त हैं, विश्वरक्षक हैं, विश्व का संहार करने वाले हैं और नाना रूपों में विश्व में आविर्भूत होते हैं। आप फलों के बीज हैं, फलों के आधार हैं, फलस्वरूप हैं और फलदाता हैं।

भगवान श्रीकृष्ण भी भगवान श्री शिव से कहते हैं : ‘मुझे आपसे बढ़कर कोई प्यारा नहीं है, आप ही मेरे आराध्य है, आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं।’

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