रामायणमादिकाव्यं स्वर्गमोक्षप्रदायकम्

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माँ सरस्वती जिसके मुखमंडल में कवित्वशक्तिरुपा निवास करती हैं, वही कवि होता है और विविध शास्त्रों की रचना करता है। ब्रह्माजी देवी सरस्वती से कहते हैं- “भव त्वं कविताशक्ति: कवीनां वदनेषु ह…ते प्रकुर्वन्तु शास्त्राणि धर्म: सञ्चरतां तत:”। वाकदेवी सरस्वती ने सर्वप्रथम त्रेतायुग में महर्षि वाल्मीकि का आश्रय लिया इसलिए वे आदिकवि कहलाये, उनके ही कृपाबल से अन्य लोग भी कवि कहलाये अर्थात वे ही विश्व के समस्त कवियों के गुरु हैं। वाल्मीकि जी ने देवी सरस्वती की कृपा से काव्य रूप में वेदार्थ का प्रकाशन किया, उनका ‘आदिकाव्य’ रामायण भूतल का प्रथम काव्य है तथा समस्त काव्यों का बीज है (काव्यबीजं सनातनम्)।

रामायणमादिकाव्यं स्वर्गमोक्षप्रदायकम्

वाल्मीकि जी जब तमसा नदी के किनारे वन में विचरण कर रहे थे, तभी उन्होंने वहाँ एक पक्षी को व्याध द्वारा हत देखा, उसकी मादा उच्च तथा करूण स्वर में रो रही थी। उस रुदन स्वर को सुनकर वाल्मीकि जी संतप्त हो गए, ज्ञानयुक्त अंतःकरण में इस प्रकार का शोकसंचार होना असंगत है, किन्तु विधि के विधान को पूर्ण करने हेतु वे तपोनिधि भी मोह से शोकग्रस्त हो गए। उनकी शोकशान्ति के लिए देवी सरस्वती कवित्वशक्तिरूपेण उनके मुख में प्रविष्ट हो गईं। और सर्वप्रथम चार पाद वाले श्लोक की रचना हुई –

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥

इसीलिए कहा जाता है कि रामायण के लक्षणों के आधार पर ही आचार्य दण्डी आदि ने काव्यों की परिभाषा बताई है। नलचम्पूकार ने आदिकवि की महीयसी रचना को ‘रम्या रामायणी कथा’ कहकर प्रतिष्ठित किया है, रामायण न केवल अपने काव्य सौन्दर्य के कारण रम्य है, प्रत्युत उसकी संघटना भी उसे बहुत कुछ रम्य बनाती है।

त्र्यंबकराज मखानी ने सुन्दरकाण्ड की व्याख्या में प्रायः सभी श्लोकों को अलंकार, रसादियुक्त मानकर काण्ड नाम की सार्थकता दिखलाई है। ध्वनिकार ने रामायण को सिद्धरस प्रबंध माना है, सिद्धरस अर्थात जिसमें रस की भावना नहीं करनी पड़ती प्रत्युत्त रस आस्वाद के रूप में परिणत हो जाता है। आगे चलकर ‘महाकाव्य’ का जो सामान्य स्वरूप निर्धारित हुआ, उसमें सर्गबद्धता, किसी महान चरित्र का गुणगान, शृंगार या वीर आदि एक रस, ऋतुओं, पर्वतों, नदियों और युद्धों के वर्णन के साथ सर्गों के अंत में छन्द का परिवर्तन, सर्गों में एक या नाना छन्दों का प्रयोग आदि को रामायण के आदर्श पर ही आधारित हुआ।

क्या यह आश्चर्य की बात है कि आदिकवि ने बिना किसी प्राचीन काव्य को देखे, बिना किसी ग्रंथ का सहारा लिए सर्वोत्तम महाकाव्य का निर्माण किया? आश्चर्य कैसा, जब माँ सरस्वती उनके मुख में विराजमान हो कवित्व शक्ति दें और ब्रह्माजी स्वयं उनको रामायण कवच व ग्रंथ का प्रयोजन बताएं!

पुराणों में कहा गया है – “एकमात्र काव्य ही चतुर्वर्ग फल प्राप्ति का निदान है, जो महात्मा मानव हैं उनमें पूर्वसंस्कार से ही कवित्वशक्ति का उदय होता है। नीचमुख से प्रकाशित होने पर भी कविता की अवमानना न करें। ‘कविरन्य: प्रजापति:’ – कवि तो दूसरा प्रजापति है। कवि ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हैं।”

कवि कौन है जिसे त्रिदेव तथा प्रजापति कहा जा रहा है?

मुनिन्ह प्रथम हरि कीरत गाई।

वाल्मीकि जी भूत-भविष्य-वर्तमान को जानने वाले थे, ज्ञानी-तपस्वी-धर्मवक्ता थे, सभी रसों के ज्ञाता थे। कविवर्णित विषय कभी मिथ्या नहीं होते, वे दूसरों की अपेक्षा सूक्ष्मदर्शन करते हैं, वे ही एक प्रकार से सृष्टिकर्ता (ब्रह्माजी महर्षि वाल्मीकि को अपने से अलग नहीं मानते हैं) हैं। इन्द्र-उपेन्द्र-यम आदि सभी देवता कवियों के वश में होते हैं, कविगण समस्त देवताओं का अवलोकन करते हैं। काव्यों (ब्रह्मरूपा भगवती) से ही प्राणीगण का धर्म स्थापित होता है, इसलिए कवि धर्मज्ञ होते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं – “कीर्ति, कविता और संपत्ति वही उत्तम होती है जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो। और कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वती जी ब्रह्मलोक से दौड़ी चली आती हैं।”

भली प्रयुक्त की गई (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि गुण तथा अलंकारों से युक्त, दोष रहित) वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण करने वाली कामधेनु कहा है, इसलिए काव्य में स्वल्प दोष की भी किसी प्रकार उपेक्षा न करने को कहा जाता है। काव्य ही कवि के पांडित्य को दर्शाता है। शास्त्र को न जाने वाला मनुष्य काव्य के गुणों व दोषों को किस प्रकार जान सकता है, अर्थात नहीं जान सकता है। जिस प्रकार नेत्र-विहीन मनुष्य रूप-सौन्दर्य परखने में असमर्थ है, उसी प्रकार शास्त्र न जानने वाला मनुष्य भी काव्यानुशीलन करने में असमर्थ है।

काव्य के लक्षण क्या हैं? कौन सा काव्य महाप्रलय के बाद भी कल्पों तक स्थिर रहता है?

भामह और दण्डी प्राचीन आचार्यों ने महाकाव्य के जो लक्षण बनाए हैं, उन पर श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का प्रभाव स्वीकार किया गया है। आचार्य भामह ने महाकाव्य को पञ्चसंधि (मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और उपसंहृति) युक्त बताया है। जबकि आचार्य दण्डी ने इस प्रकार लक्षण बताए हैं- अनेक सर्गों में जहाँ कथा का वर्णन हो वह महाकाव्य कहलाता है, इसका लक्षण यह है कि यह आशीर्वाद, नमस्कार या वस्तुनिर्देश से आरंभ होता है। इसकी रचना ऐतिहासिक कथा, उत्कृष्ट कथा अथवा लोक में प्रसिद्ध सज्जन संबंधी हो, काव्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष फलदायक हो।

कहा गया है कि शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं और रसादिक आत्मा है। सर्वत्र सर्गों में भिन्न-भिन्न वृत्तों (छंदों) से युक्त अंतिम श्लोक होना चाहिए, काव्य लोकरंजक तथा अलंकारों से अलंकृत होना चाहिए, ऐसा काव्य महाप्रलय के बाद भी कल्पों तक स्थिर रहता है। रामायण और महाभारत इसके निदर्शन (उदाहरण) हैं।

श्रीयोगवासिष्ठ में वायसराज भुशुण्ड वसिष्ठ जी से कहते हैं, उन्हें युग-युग में वेद आदि शास्त्रों के विद्वान व्यास, वाल्मीकि आदि महर्षियों द्वारा विरचित महाभारत, रामायण का स्मरण है। श्रीव्यासदेव जी ने अनेक पुराणों (अग्निपुराण, स्कंदपुराण, मत्स्यपुराण, भागवत आदि), अध्यात्मरामायण, महाभारत में वाल्मीकि जी के जीवन चरित के साथ-साथ रामायण के आख्यान व माहात्मय का उल्लेख किया है।

कवि कालिदास, शार्ङग्धर, महाकवि भास, आचार्य शंकर, आचार्य रामानुज, राजा भोज, से लेकर गोस्वामी तुलसीदास तक सभी ने ‘आदिकवि कवीन्द्र वाल्मीकि जी’ के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है। और इसलिए वाल्मीकिरामायण पर अगणित टीकाएं हैं।

बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥

– मानस

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