सर्वप्रथम यजुर्वेद के शतरुद्रिय मंत्रों में रुद्र के एक नाम के रूप में शिव और शंकर शब्द का प्रयोग मिलता है। बाद में रुद्र के स्थान पर शिव और शंकर का अधिक प्रयोग है।
वैदिक साहित्य में शिव और शंकर विशेषण का उल्लेख होने पर भी इसका रुद्र से विशेष साहचर्य नहीं दिखता है। किन्तु रामायण तथा अन्य साहित्यों में शिव तथा शंकर रुद्र के इतने अधिक सामान्य नाम हैं कि उन्होंने प्रयोग की दृष्टि से रुद्र शब्द को बहुत पीछे छोड़ दिया है। रुद्र शब्द का प्रयोग बहुधा गणों को द्योतित करने के लिये अथवा महाप्रलय के समय उनका रौद्र रूप व्यक्त करने के लिये ही होता है।
यह परिवर्तन नामों का सामान्य परिवर्तन मात्र नहीं है। यह रुद्र-विषयक सम्पूर्ण विचारधारा का परिवर्तन है। पुराणों के शिव अत्यन्त कल्याणमय, भक्तों पर सदा कृपा करने वाले तथा दीनों पर अनुग्रह करने वाले देव है। वैदिक रुद्र आशुरोष हैं तो शिव आशुतोष। विष्णु आदि उदारचेता देवों के लिये भी इसका प्रयोग न होना शिव की विशेष भक्तवत्सलता को सूचित करता है। उनका शंकर नाम भी कल्याणकारिता का परिचायक है। तभी तो ब्रह्मपुराण कहता है कि शिव ही दुःखी व्यक्तियों की एक मात्र शरण हैं। वे कल्याण करने वाले हैं, करुणा के सागर हैं और सब जीवों पर दया करते हैं। यद्यपि देवों में परस्पर भेद नहीं है और सब एक हैं फिर भी देवों के शिव-रूप की अर्चना करने से शीघ्र ही सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं –
शंकरः सर्वभूतात्मा करुणावरुणालयः ।
सर्वेषां सर्वदार्त्तानां शिव एव परा गतिः ।
यद्यप्येषां न भेदोऽस्ति देवानां तु परस्परम् ।
तथापि सर्वसिद्धिः स्यात् शिवादेव सुखात्मनः ॥
– ब्रह्मपुराण १०९.३७, २११.७९, १३०.१७
शिव के प्राणिमात्र के प्रति करुणा एवं मैत्रीभाव का एक प्रमाण यह है कि वे महाभारत, द्रोणपर्व ५२.४३ में ब्रह्माजी के पास जाकर उनसे उत्पन्न कालाग्नि से दंदह्यमान जन समूह की रक्षा के लिये प्रार्थना करते हैं। पुराणों में भक्तिवाद के प्राबल्य के कारण कोई भी भक्त अपने आराध्य देव को रौद्र कैसे बता सकता था? उनके लिये ‘शिव’ संज्ञा ही उपयुक्त थी।
शिव का स्वरूप :
शिव की आकृति, परिधान तथा चरित आदि का महाकाव्यों तथा आर्षग्रंथों में एक विचित्र सा उल्लेख मिलता है। वे सर्वथा नग्न रहते हैं। अतः दिगम्बर उनकी एक प्रसिद्ध उपाधि है (मत्स्यपुराण १५५.३३ ब्रह्माण्डपुराण १.२७.१० सौरपुराण ४१.९६)। बहुत हुआ तो हाथी की खाल लपेट ली (महाभारत, शान्तिपर्व २०.१२)। वे अपने समस्त शरीर में भभूत या श्मशान की राख लपेटे रहते हैं; वायुपुराण (११२.५३) में इसीलिये उन्हें भस्मनाथ कहा गया है। उनके हाथ में कपाल से निर्मित एक कमंडलु रहता है (ब्रह्मपुराण ३७.२, वायुपुराण २४.१२९, ५४.७०, ५५.१४, मत्स्यपुराण ४७.१३७)। श्मशान उनकी प्रिय विहारभूमि है, यहाँ वे अपने भूत, प्रेत, पिशाचादि अनुचरों के साथ रात्रि में विहार करते रहते हैं (मत्स्यपुराण ८.५, ब्रह्मपुराण ३८.३७)। सिर पर वे जटाएँ रखते हैं। उनके गले तथा भुजाओं आदि में आभूषण के रूप में सर्प लिपटे रहते हैं (मत्स्यपुराण १५३.३३४, ४४४)। वायुपुराण २४.५६, ५७ में उन्हें महामुख, विक्षिप्त केशों से युक्त, त्रिशूलधारी, मूंज की मेखला पहनने वाले तथा त्रिनेत्र कहा गया है।
यजुर्वेद (१६वाँ अध्याय) में उन्हें भूतविशेषों के संघो और देवताओं के (गणपति) सेवकसमूह का पालक कहा गया है। विकृत स्वरूप और अश्वमुख आदि भिन्न-भिन्न रूपों वाले रुद्रों को का भी वर्णन आया है। इसमें रुद्र को कपर्दी तथा व्युप्तकेशी अर्थात जिसका मुण्डन हुआ है, ऐसा भी कहा गया है। वे १०० धनुष को धारण करने वाले, सेनाओं के पति, गिरि पर रहने वाले हैं। इसी में रुद्र को छोटा, ठिगाना (वामन), गुणों से विशिष्ट, सर्वश्रेष्ठ, सर्वप्रथम आदि कहा गया है। इसके अतिरिक्त सबसे ज्येष्ठ व सबसे कनिष्ठ, पिंगल वर्ण, रोहित वर्ण, ताम्रवर्ण, शूर एवं शत्रु नाशक, वनों एवं गुल्मों में रहने वाले, खड़ग, तुणीर, तीक्ष्ण बाण, आयुधसमूह धारण करने वाले भी कहा गया है।
भगवान शिव के द्वारा गङ्गा को धारण करना :
शिव के द्वारा गङ्गा को धारण करने की कथा हिमालय से गङ्गा नदी के उद्गम का ही रूपकात्मक वर्णन है। श्रीमद्भागवतमहापुराण ९.९ में इसका विस्तार से वर्णन है। ब्राह्मण ग्रन्थों में रुद्र को उत्तर दिशा की ओर रहने वाला बताया गया है और शतरुद्रिय में पर्वतों पर रहने वाला। अतः पुराणों में कैलास पर्वत ही उनका विशेष निवास स्थान है। दक्षिण से उत्तर की ओर फैली हुई दुग्धधवल आकाश गङ्गा ही स्वर्ग में प्रवाहित होने वाली देवनदी गङ्गा है जो विष्णु के तृतीय पदक्रम के समय ब्रह्माण्ड कटाह के फूट जाने से उत्पन्न हुई थी और जो भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर मनुष्य लोक का कल्याण करने के लिये पृथ्वी तल पर अवतीर्ण हुई (श्रीमद्भागवतमहापुराण ५.१७)।
शिवलिंग पूजन :
शास्त्रों में शिवलिंग पूजन का विशेष रूप से वर्णन मिलता है। महाभारत तथा पुराणों में शिवोपासना का प्रमुख अंग लिंग पूजा है। संस्कृत में लिंग का अर्थ प्रतीक होता है। रुद्र के अग्नि से प्राचीन सम्बन्ध की दृष्टि से तथा कुछ विशेष माहात्म्यपूर्ण लिंगों के लिए प्रयुक्त ‘ज्योतिर्लिंग’ शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि लिंग अग्नि शिखाओं का भी प्रतीक है।
सृष्टि का निर्माण करने वाली सर्वोच्च शक्ति या ईश्वर की पिता के रूप में परिकल्पना करके लिंग को उसके प्रतीक के रूप में भी पूजा जाता है। मूलतः लिंग सृष्टिकर्ता का, विश्व के निर्माता का प्रतीक है। पुराणों में जिनके लिये ‘सदाशिव’ नाम का प्रयोग किया है। शिवपुराण में भगवान शिव के साकार और निराकार – दो रूपों का वर्णन मिलता है और सदाशिव निराकार स्वरूप है, इनका प्रतीक लिंग है। शिवपुराण में कहा गया है कि शिव के लिंग भी दो प्रकार के हैं, ओंकार अथवा प्रणव उनका सूक्ष्म-लिंग है और यह ब्रह्माण्ड स्थूल-लिंग जिसका आकार लिंग के समान है।
वैदिक काल में संसार का निर्माण एवं उसका नियमन करने वाली सर्वोच्च शक्ति का नाम था : ईशान, महादेव या शिव (श्वेताश्वरोपनिषद्)। लिंगपुराण में आकाश को शिवलिंग तथा पृथ्वी को उसकी पीठिका कहा गया है। लिंग का अर्थ मात्र चिह्न या प्रतीक है। जो शिव की प्रतीति कराये वह शिवलिंग है। वायुपुराण (५५वाँ अध्याय); लिंगपुराण (१७वाँ अध्याय) और शिवपुराण (विद्येश्वरसंहिता, ७वाँ अध्याय) में एक कथा द्वारा शिवलिंग का विशेष उत्कर्ष दिखाया गया है। इसके अनुसार सृष्टि के आदि में जब ब्रह्मा और विष्णु अपने-अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने लगे तो उनके मध्य में एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ और यह आकाशवाणी हुई कि जो इसके अन्त का पता लगाएगा वही श्रेष्ठ माना जायगा। ब्रह्माजी हंस का रूप धारण करके ऊपर की ओर उड़े और विष्णुजी श्वेतवराह का रूप धारण करके नीचे गये, किन्तु दोनों ही असफल होकर लौट आये और तब दोनों ने शिवजी की महत्ता स्वीकार की। एक मान्यता यह भी है कि इस स्तम्भ का प्रतीक लिंग है। यही नहीं, विश्व की विभिन्न संस्कृतियों में लिंगपूजा भिन्न-भिन्न देवों से सम्बद्ध रही है।
शिव के गण नन्दी :
यजुर्वेद, अध्याय १६.१८ में ‘नमो बभ्लुशाय…’ मन्त्र के भाष्य में करपात्रीजी महाराज लिखते हैं : ‘बिर्भात रुद्रमिति बभ्रुः वृषभः तस्मिन् शेते इति बभ्रुशः।’ रेफ को ‘ल’ हो गया है, तस्मै वृषभवाहन रुद्र के लिये नमस्कार है।
रामायण, महाभारत तथा पुराणों में शिव के परिचर अथवा उनके गणों के अधिनायक का नाम नन्दी दिया गया है। रामायण (उत्तरकाण्ड १६.८) में ही इनका सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है और इनके स्वरूप का जो वर्णन यहाँ है वह शिव के गणों के सामान्य स्वरूप का प्रतिनिधि है। उन्हें विकराल आकृति वाले, काले तथा पीले वर्णं के, वामनाकार (नाटे), छोटी भुजाओं वाले, बलशाली, विकट रूप वाले तथा मुंडित-केश वाले कहा गया है –
इति वाक्यान्तरे तस्य करालः कृष्णपिंगलः ।
वामनो विकटो मुण्डी नन्दी ह्रस्वभुजो बली ॥
– रामायण, उत्तरकाण्ड १६.८
महाभारत, अनुशासनपर्व ७७.२८ में वृषभ को शिव का वाहन बताया गया है :
प्रीतश्चापि महादेवश्चकार वृषभं तदा।
ध्वजं च वाहनं चैव तस्मात्स वृषभध्वजः॥
अर्थात् महादेवजी प्रसन्न हुए। उन्होंने वृषभ को अपना वाहन बनाया और उसी की आकृति से अपनी ध्वजा को चिह्नित किया, इसलिए वे ‘वृषभध्वज’ कहलाये।
पुराणों में शिव के गणेश्वर का यह नाम (नन्दी) उनके वाहन के लिये प्रयुक्त होने लगा और आज भी मन्दिरों में शिव-लिंग के आगे जो वृषभ बनाया जाता है उसे नन्दी ही कहते हैं।
शिव का त्रिशूल :
वैदिक ग्रन्थों में शिव का प्रमुख अस्त्र धनुष है, किन्तु परवर्ती साहित्य में उसका स्थान त्रिशूल ने ले लिया है। यद्यपि पिनाक और पाशुपतास्त्र की यहाँ भी चर्चा हुई है और शिव धनुर्विद्या के आचार्य भी माने गये हैं (रामायण बालकाण्ड ५५.१२-१८ में विश्वामित्र तथा महाभारत वनपर्व ४०.८-२१ में अर्जुन शिव की कृपा से धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करते हैं), किन्तु उनका सर्वाधिक प्रिय शस्त्र त्रिशूल ही है। महाभारत अनुशासनपर्व १६०.३० के उद्धरण में शिव के बाण को ‘त्रिपर्वन्’ तथा ‘त्रिशल्य’ कहा गया है। शिव के इस त्रिशूल के रहस्य का उद्घाटन तैत्तिरीय संहिता ५.५.७.३ से होता है। यहाँ कहा गया है कि अग्नि ही रुद्र हैं। उनके तीन शूल हैं। एक वह जो ऊपर से मनुष्यों पर गिरता है (तडित्), दूसरा वह जो तिरछा आघात करता है (आकाश में पूर्व से पश्चिमगामी सूर्य) तथा तीसरा वह जो नीचे से ऊपर की ओर जाता है (ऊर्ध्वज्वलन अग्नि) –
रु॒द्रो वा ए॒ष यद॒ग्निस्तस्य॑ ति॒स्रः श॑र॒व्याः प्र॒तीची॑, ति॒रश्च्य॒नूची॒। ताभ्यो॒ वा ए॒ष आ वृ॑श्च्यते॒ ॥
– तैत्तिरीय संहिता ५.५.७.३
शिव – कल्याणकारी देव :
भगवान विष्णु को कहीं भी राक्षसों को वर देते या उनकी सहायता करते हुए वर्णित नहीं किया गया है। जबकि भगवान शिव सबका कल्याण करते हैं, जो भी उनकी शरण में आये। महाभारत अनुशासनपर्व १४.४ में शिव के महत्त्व का एक कारण यह भी बताया गया है कि उन्हें ब्रह्मा से लेकर पिशाच तक पूजते हैं – “ब्रह्मादयः पिशाचान्ताः यं हि सर्व उपासते।”
शिव – विद्याओं के आदि प्रवर्तक :
पौराणिक शिव का व्यक्तित्व इतना व्यापक तथा विस्तृत है कि उन्हें सभी प्रकार की विद्याओं तथा कलाओं का आदि प्रवर्तक माना गया है। यातविक तथा ऐन्द्रजालिक कृत्यों के वे आज भी मूल आचार्य माने जाते हैं और लोक विश्वास है कि शाबरतन्त्र या सेवड़े का जादू और मन्त्र उन्हीं के बनाए हुए हैं। तुलसीदास महाराज ने श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड, १४.३ में लिखा है :
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा।
साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू।
प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
अर्थात् जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत् के हित के लिए, शाबर मन्त्र समूह की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि भगवान शिव के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है।
तैत्तिरीय संहिता २.१.७ में कहा गया है कि आभिचारिक कृत्य करने वाले को एक रक्तवर्णा गौ से रुद्र की उपासना करनी चाहिये। मानव गृ० सू० २.५, बौधायन १.२.६, तथा आश्वलायन ४.१० में वर्णित शूलगव यज्ञ से भी रुद्र का इससे सम्बन्ध प्रतीत होता है। शिल्प, गायन तथा नृत्य आदि ललित कलाओं के भी वे आद्य आचार्य माने गये हैं।
सांख्य तथा योग से शिव के प्राचीन सम्बन्ध का संकेत किया ही जा चुका है। शांकर वेदान्त के अनुयायियों का विश्वास है कि भगवान् शंकर ही वैदिक मार्ग प्रतिष्ठा करने और नास्तिक बौद्धों का उन्मूलन करने के लिये शंकराचार्य के रूप में अवतीर्ण हुए थे। विद्याओं के अविष्ठाता के रूप में भगवान शंकर की कल्पना दक्षिणामूर्ति के रूप में की जाती है। पाशुपतमत तथा शैवसिद्धान्त के अनुयायियों ने शिव की जीवों (पशु) को पाश (माया) से मुक्त करने वाले परमेश्वर के रूप में उद्भावना की और इस प्रकार शिव का महत्व तथा पद अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गया।
मत्स्यपुराण १३२.२८, १५४.२६०-७०, वायुपुराण ५४.१००, अग्निपुराण ८८.७ तथा ब्रह्मपुराण १.३१ में उन्हें विश्व के एकमात्र आदिकारण, जगत्स्रष्टा यथा वेदों में स्तूयमान पुरुष कहा गया है। वे ही दार्शनिकों के ब्रह्म, असीम एवं शाश्वत हैं (लिंगपुराण २.२१.४९, गरुडपुराण, अध्याय १६)। वे सर्वज्ञ, सर्व-स्थित एवं चराचर के स्वामी हैं तथा प्राणियों में आत्मा के रूप में व्याप्त हैं (वायुपुराण ३०.२८३, २८४)। एक होते हुए भी वे अपने को अनेक रूपों में व्यक्त करते हैं (सौरपुराण २.२)। मत्स्यपुराण १५४.३४६ में पार्वती उन्हें ‘शाश्वतं जगतः प्रभुम्, अजमीशानमव्यक्तममेयमहिमोदयम्’ कहती हैं। इसी अध्याय में नारद जी हिमालय से उनका वर्णन करते हुए करते हैं कि वे न कभी उत्पन्न होते हैं और न कभी नष्ट होते हैं; इसी से वे स्थाणु कहलाते हैं। वे शरणदायक, शास्ता तथा परमेश्वर हैं और जन्म, मृत्यु आदि से पीडित ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि देव उनके हाथ के खिलौने हैं –
न स जातो महादेवो भूतभव्य भवोद्भवः ।
शरण्यः शाश्वत शास्ता शङ्करः परमेश्वरः ॥
ब्रह्मविष्ण्विन्द्रमुनयो जन्ममृत्युजरार्दिताः ।
तस्यैते परमेशस्य सर्वे क्रीड़नका गिरे ॥
– मत्स्यपुराण १५४.१७९, १८०