रक्षाबंधन पर्व का इतिहास देखें तो यह बात सामने आती है कि वास्तव में “धर्म की रक्षा” के वचन के साथ इसकी शुरुआत हुई थी। आज भी पुरोहित यजमानों को, बहनें भाइयों को ‘धर्म रक्षा सूत्र’ ही बांधते हैं।
आज के समय में ‘धर्म’ शब्द को समझने में जितनी विकृति आयी है; उतनी कहीं और देखने को नहीं मिलती। कहा गया – अनेक धर्म! सर्व धर्म सम भाव! आदि। विकृति का प्रारम्भ यहीं से हो गया।
सामान्य नियम है कि जिस भाषा का जो शब्द होता है, अर्थ भी उसी भाषा से लेना पड़ता है। उदाहरण स्वरूप ‘संस्कृत’! जब भाषा में परिष्कार हुआ तब वह परिमार्जित भाषा संस्कृत कही गई (सम् उपसर्ग पूर्वक ‘कृ’ धातु से निष्पन्न) अब यदि विचार करें तो विश्व की सभी भाषाओं का विकास इसी प्रकार से हुआ है। किन्तु अंग्रेजों की संस्कृत! या मुसलमानों की संस्कृत! ऐसा कहेंगे? कदापि नहीं। इस प्रकार से अंग्रेजों का रिलिजन! मुसलमानों का मज़हब! – हमें यही कहना पड़ेगा क्योंकि ‘धर्म’ की जो परिभाषा शास्त्रों में मिलती है, उसके अनुसार चलने पर वैदिक सनातन धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य को धर्म कहा ही नहीं जा सकता। अन्य कोई उस परिभाषा पर उतरता ही नहीं है। यदि शब्द दें तो मत, पथ अथवा सम्प्रदाय कहें, मज़हब कहें, अंग्रेजी भाषा में रिलीजन (Religion) कहें।
वास्तव में ‘धर्म’ की जो परिभाषा है, उसके अनुसार ‘धर्म’ एक से अधिक हो ही नहीं सकता। कुछ विद्वान सामान्य और विशिष्ट के रूप में दो धर्म मानते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है। ऐसा हमारे समझने के लिए बताया गया है जैसे ‘कर्म’ एक ही है, हम कुछ भी करें वह कर्म है किन्तु समझने के लिए नित्य, नैमित्य, संचित आदि अनेक भेद बताए गए हैं।
‘धर्म’ वैदिक शब्द ‘ऋत’ पर आधारित है। ‘ऋत’ का अर्थ है, वह सिद्धांत अथवा नियम जो सम्पूर्ण सृष्टि को तारतम्यता प्रदान करती है। यथा – सभी ग्रह अपनी धूरी पर रहते हुए सूर्य की परिक्रमा करते हैं, निश्चित अंतराल पर दिन और रात होते हैं। समय आता है फूल खिलते हैं, वर्षा होती है आदि। यह जो अदृश्य नियम है इसी को ‘ऋत’ कहा गया है।
धर्म के परिपेक्ष्य में आग का धर्म है जलना, पानी का धर्म है शीतलता, पृथ्वी का धर्म है धारण करना आदि। यह कभी भी दो या अधिक नहीं हो सकते। इसी प्रकार वर्ण धर्म, राजधर्म, पिताधर्म, पुत्रधर्म, भाई का धर्म, बहन का धर्म, पतिधर्म, पत्निधर्म आदि भिन्न – भिन्न परिस्थितियों के अनुसार मनुष्यों के लिए जो नियम अथवा कर्तव्य शास्त्रों ने बताया, उन्हें धर्म कहा गया। इन्हीं कर्तव्य–अकर्तव्य की व्यवस्था में भगवान ने गीता में कहा कि ‘शास्त्र ही प्रमाण है’। (तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। – श्रीमद्भगवद्गीता १६.२४) और यदि इसे नहीं माना तो भगवान ने कहा :
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता १६.२३
अर्थात् जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को, न सुख को और न परमगति को ही प्राप्त होता है।
अर्जुन के मन में युद्धभूमि में अपने स्वजनों को देख कर और उनके प्रति धर्म (कर्तव्य) के विषय में विचार कर जो विषाद उत्पन्न हुआ उसके लिए भगवान ने सम्पूर्ण गीता के १ से ६ठें अध्याय तक ज्ञानयोग, ७ से १२वें अध्याय तक भक्तियोग समझाते हुए १३ से १८वें अध्याय में कर्मयोग को बताते हुए १८वें अध्याय के ६६वें श्लोक में कहा – “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।” (दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक – “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” में अर्जुन ने शरणागति की याचना करते हुए जिस शिक्षा को माँगा था, भगवान उन शिक्षाओं को देते हुए अब अठारहवें अध्याय के इस श्लोक में शरणागति प्रदान करते हैं।) अर्थात् सभी धर्मों (यहाँ धर्म शब्द कर्तव्य वाचक है जैसे वर्णधर्म, राजधर्म, पिताधर्म आदि) को त्यागकर तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, (मा शुचः -) चिंता मत करो।
यदि वास्तव में विचार करें तो यहाँ भी भगवान ने शरणागति को ही स्वीकार किया, धर्म का त्याग नहीं कराया। दूसरे अध्याय के पाँचवें श्लोक में अर्जुन ने तो अपने युद्धरूप कर्तव्य को ही त्यागने को कहा था। “गुरूनहत्वा हिमहानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।” अर्थात् महानुभाव गुरुजनों को न मारकर इस लोक में मैं भिक्षा का अन्न खाना भी श्रेष्ठ समझता हूँ। जो उनके वर्णधर्म के सर्वथा विपरीत था।
रक्षा बंधन का यह पर्व धर्म को ही वचन के रूप में लेने का पर्व है। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने राजा बलि से कहा कि वामन रूप में यह साक्षात विष्णु हैं, इन्हें दान का वचन मत दो। बलि ने गुरु शुक्राचार्य की बात नहीं सुनी, उन्होंने कहा कि यदि यह विष्णु हैं तो हमसे सर्वस्व मांगेगे तो मैं उन्हें सर्वस्व दूंगा। भगवान वामन ने राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी। दो पग में त्रिलोक नाप लिया अब तीसरा पैर कहाँ रखें? राजा बलि ने कहा कि हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! तीसरा पग मेरे मस्तक पर रखिये। फिर क्या था भक्त ने भगवान को जीत लिया। आज भी रक्षाबंधन के समय जो मंत्र पढ़ा जाता है, उसमें इसी घटना का उल्लेख होता है :
येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल ॥
अर्थात् यह वही रक्षा सूत्र है जिससे महाबली और दानवेंद्र (दानवीर) राजा बलि बंधे गए थे। उसी रक्षा सूत्र से मैं तुम्हें भी बांधता हूँ। हे रक्षे (राखी) तुम अडिग रहना।
बहनें भाई से रक्षा का वचन लेतीं हैं, पुरोहित यजमान से रक्षा का वचन लेते हैं, कहीं कहीं पत्नी भी पति को राखी बांधतीं हैं क्योंकि देव-दानव युद्ध के समय इंद्राणी ने इंद्र की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध कर रक्षा का वचन लिया था। वस्तुतः इसका उद्देश्य होता है कि आप अपने धर्म में अडिग रहें।
धार्मिक रहने का वास्तविक अर्थ भी यही है कि हम शास्त्रानुसार अपने लिए निर्देशित कर्म का पालन करते रहें। जितने भी पूजा-पाठ, यज्ञादि अनुष्ठान आप देखते हैं, इन सभी के आधार शास्त्र ही हैं।
अतः आज स्वयं से धार्मिक रहने का वचन अवश्य लीजिए।