“वागवै यज्ञ:।” (शतपथ ब्राह्मण) वाक् ही यज्ञ है।
“वागेवास्य ज्योतिर्भवति।” (बृहदारण्यक उपनिषद ४.३.५) आदित्य के अस्त होने पर, चंद्रमा के अस्त होने पर, अग्नि के शान्त होने पर यह पुरुष वाक् ज्योति वाला होता है।
शरीर को जहाँ से छूते हैं वहीं से गरम पाते हैं। यही अनुभूत वैश्वानर अग्नि है, इस अग्नि की सत्ता अन्न आहुति पर निर्भर है। अन्न साक्षात सोम है। यह सोम जब तक अग्नि में आहुत होता रहता है, तब तक शरीराग्नि बना रहता है। यह यज्ञ सदा होता रहता है, जब आहुति अवरुद्ध होती है, यज्ञ भी विलीन हो जाता है।
खाये हुए अन्न का सूक्ष्म अंश, मन हो जाता है। पीये हुए जल का सूक्ष्म भाग, प्राण होता है। भक्षण किये हुए तेज (घृत, तेल आदि) का जो सूक्ष्म भाग है, वह वाणी होता है। इसलिए मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाणी तेजोमय है। – छान्दोग्योपनिषद ६/६
शरीर का अग्नि ही वायु के आघात से आहत होकर क-च-ट-त आदि वर्णों का जनक बनता है। अर्थात शरीर का यज्ञ रूप अग्नि ही वाक् बनता है। जो जितना अधिक बोलता है, उसका मन उतना अधिक निर्बल होता है। क्योंकि वाक् बिना प्राण के नहीं रह सकती, एवं प्राण बिना मन के नहीं रहता।
जो मितभाषी हैं, वे अधिक मनस्वी एवं विचारशील होते हैं। स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए मितभाषी बनना भी एक प्रधान औषधि है।
वाणी, मन, शरीर की प्रवृत्ति को कर्म कहते हैं, इनकी अत्यंत प्रवृत्ति को अतियोग कहते हैं, सर्वथा अप्रवृत्ति को अयोग कहते हैं। अतियोग व अयोग के अतिरिक्त वाणी, मन, शरीर के जो अहितकर्म हैं – उनको मिथ्यायोग कहते हैं।
चरकसंहिता के अनुसार निंदा करना, झूठ बोलना, विनाशमय कहना, कलह करना, अप्रिय बोलना, अंट-संट बकना, असंगत अश्रद्धेय वाक्य कहना और दुखदायी वाक्य कहना, वाणी का मिथ्यायोग है।
“काले हितं मितं ब्रूयादविसंवादि पेशलम्।” – अष्टांगहृदये
समय पर बोलें, हितकर बोलें, थोड़ा बोलें, ऐसी बात कहें जो अविसंवादि (जिसका कोई विरोध न करे अर्थात सत्य) हो तथा पेशल (मीठा वचन) कहें।
मौन से वाक् का व्यय नहीं होता, यह प्रवृद्धा वाक् मन की वृद्धि का कारण बनती है। मन पर ही बुद्धि का प्रतिबिम्ब पड़ता है, मन जितना सबल होता है – उस पर रहने वाली बुद्धि भी उतनी ही दृढ़ हो जाती है (यहाँ पर स्थिर जल में पड़ने वाले सूर्य के प्रतिबिम्ब का उदाहरण समझें, किस प्रकार जल के हिलने से प्रतिबिम्ब विकृत हो जाता है)। वाक् संयमन से बुद्धि का चांचल्य जाता रहता है। शान्त मन के ऊपर प्रतिष्ठित शान्त, अतएव निश्चल बुद्धि का नाम ही “व्यवसायात्मिका बुद्धि” है। “इदमित्थमेव नान्यथा” यह ऐसा ही है – विपरीत नहीं, इस प्रकार का जो निश्चय ज्ञान है, उसी का नाम ‘व्यवसाय’ है।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।
– श्रीमद्भगवद्गीता २.४१
निश्चय वाली बुद्धि (व्यवसायात्मिका) एक होती है, जिनका एक निश्चय नहीं है (अव्यवसायिनाम्) – ऐसे मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और बहुत शाखाओं वाली ही होती हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग व भक्तियोग के प्रकरण में व्यवसायात्मिका बुद्धि का वर्णन आता है।
मन, प्राण और वाक् तीनों मिलकर ही आत्मा के सहचर हैं, इन तीनों का एक क्रम में रहना ही शुद्धता है जो याज्ञिक कार्यों में अपेक्षित है। इसीलिए यज्ञ के आरंभ में मौन व्रत (मंत्रों के उच्चारण के अतिरिक्त अनावश्यक बोलना वर्जित होता है) लिया जाता है जिससे मिथ्या भाषण के दोष (अशुद्धता) से बचा जा सके, व यज्ञ के समापन के बाद ही मौन व्रत समाप्त होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि स्वास्थ्य के लिए, लौकिक व्यवहार के लिए तथा परमार्थ के लिए – इन सब के लिए श्रुति शिक्षा देती है कि यदि किसी कार्य में सफलता चाहिए तो सबसे पहले अपने वाक् व्यवहार पर नियंत्रण करना चाहिए।