क्या द्वापर से पूर्व भगवान के कृष्णावतार का ज्ञान था?
यह प्रश्न इसलिए भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि कुछ सम्प्रदाय विशेष से लोग ऐसा मानते हैं कि आदि पुराणों के क्रम में श्रीमद्भागवतपुराण नया है, यहां तक कि १८ पुराणों में इसकी गणना न करके १९वां पुराण भी मानने का दुस्साहस प्रायः कर दिया जाता है।
ब्रह्माण्डपुराण २.३७.३० में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
चतुर्विशे युगे वत्स त्रेतायां रघुवंशजः ।
रामो नाम भविष्यामि चतुर्व्यूहः सनातनः ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे वत्स! आगे चौबीसवें युग में जब त्रेता युग होगा तब मैं राजा रघु के वंश में चतुर्व्यूह सनातन राम नाम वाला होऊंगा अर्थात मेरा रामावतार होगा।
ध्यान दें ब्रह्माण्डपुराण वैष्णव पुराण नहीं है अपितु ‘शैव’ पुराण है। इसके अतिरिक्त आग्नेयपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, कूर्मपुराण आदि में भी ऐसी कथाएं मिलती हैं और यह भी वैष्णव पुराण नहीं हैं।
ज्ञातव्य है कि स्कन्द, नारद आदि पुराणों के अनुसार ‘शिव’, ‘भविष्य’, ‘मार्कण्डेय’, ‘लिंग’, ‘वाराह’, ‘स्कन्द’, ‘मत्स्य’, ‘कूर्म’, ‘वामन’ और ‘ब्रह्माण्ड’ यह दशपुराण शैव हैं इनके कुल श्लोकों की संख्या तीन लाख है। इसी प्रकार ‘विष्णु’, ‘भागवत’, ‘नारद’, ‘गरुड’ यह चार वैष्णव हैं। ‘ब्रह्म’ और ‘पद्म’ ब्रह्मा की महिमा बताते हैं तथा ‘अग्निपुराण’ अग्नि की एवं ‘ब्रह्मवैवर्त’ सविता की महिमा का प्रकाश करने वाले हैं।
वस्तुतः समय चक्रीय है। भगवान श्रीराम के बाद श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के बाद पुनः भगवान श्रीराम का अवतार होता है।
इसे विस्तृत रूप से समझना चाहें तो श्रीयोगवासिष्ठ पढ़ना चाहिए। गीताप्रेस से यह संक्षिप्त ही प्रकाशित है किन्तु चौखम्बा से मूल अर्थ सहित उपलब्ध है, उसे ले सकते हैं।
अच्छा, कुछ लोग श्रीमद्देवीभागवत को १८वां पुराण मानते हैं और श्रीमद्भागवत को १९वां। यहां पर यह समझना चाहिए कि शिष्य परम्परा से ऐसा हुआ है कि कहीं भागवत का पाठ है तो कहीं भगवती का। वास्तव में यह एक ही पुराण की दो शाखाएं हैं जो शिष्य परम्परा से आगे चली हैं। श्रीमद्देवीभागवत का पुनः ‘भागवत’ और ‘देवीपुराण (महाभागवत)’ के रूप में दो शाखाएं मिलती हैं, वह भी दो नहीं हैं।
अठारह पुराणों में कुछ सूत (लोमहर्षण – ‘ल’, ‘र’ में अभेद के कारण रोमहर्षण भी कहा जाता है) के द्वारा प्रोक्त हैं और कुछ उनके पुत्र उग्रश्रवा के द्वारा प्रोक्त हैं। कुछ ऐसे भी पुराण हैं जो दोनों के द्वारा प्रोक्त होने के कारण दो निबन्ध ग्रंथ रूप में मिलते हैं। कुछ पुराणों का दोनों के द्वारा प्रोक्त न होने के कारण उनका अन्यों के द्वारा प्रोक्तत्व है। जहाँ एक पुराण के दो निबन्ध हैं वहाँ दोनों में से किसी एक की गणना से अठारह पुराणों की संख्या की पूर्ति की जाती है। उदाहरण स्वरूप लोमहर्षण के पद्मपुराण से अथवा उग्रश्रवा के पद्म से, लोमहर्षण के देवीभागवत से अथवा उग्रश्रवा के श्रीमद्भागवत से, लोमहर्षण के वायुपुराण से अथवा उग्रश्रवा के शिवपुराण से। इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्त आदि के विषय में भी समझना चाहिए।
इसके बाद लोमहर्षण ने अपने छह शिष्यों को यह पुराण संहिता दी। जिनके नाम सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयु, सुशर्मा, अकृतव्रण तथा सोमदत्ति थे। कहा जाता है कि यह छह संहिताकार भी हुए यद्यपि विष्णुपुराण (३.६.१८), वायुपुराण (६१.५७-५८), तथा ब्रह्माण्डपुराण (२.३.६५-६६) इन छहों में से तीन (अकृतव्रण जो काश्यपगोत्र के थे, सावर्णी गोत्रीय सोमदत्ति तथा शांशपयान गोत्रीय सुशर्मा) को ही संहिताकार मानते हैं। तथापि इनका मूल आधार लोमहर्षण कृत संहिता ही रही जिनमें लोमहर्षण (सूतजी) स्वयं वक्ता हैं। इसी प्रकार जैसे विष्णुपुराण में वक्ता पराशर हैं।
आज प्राप्त पुराण ग्रंथों को हम तक पहुँचाने का श्रेय सूत लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को जाता है। अपने पिता तथा उनके उपरोक्त तीनों शिष्यों (अकृतव्रण, सावर्णी तथा सुशर्मा) के शिष्यता का सौभाग्य उग्रश्रवाजी को मिला था। तक्षशिला में हुए जनमेजय के सर्पसत्र में आये सशिष्य भगवान वेदव्यास के साक्षात् दर्शन का ही नहीं अपितु वैशम्पायन से सम्पूर्ण महाभारत सुनने का भी सौभाग्य इन्हें मिला। यहाँ सुनाये गये महाभारत ग्रंथ का सम्पादन भी इन्हीं के द्वारा किया गया है। व्यासजी से पुराण ज्ञान लोमहर्षण ने ज्यों का त्यों इन्हें दिया अतः ये परम्पराया व्यास शिष्य भी हैं।
लोमहर्षण की मृत्यु के बाद उग्रश्रवा का नियमित कथाक्रम प्रारम्भ हुआ। निरन्तर बहुत समय कथा करते रहने पर भी लगभग ८०-९० वर्ष के अनुभव के बाद भी जब वे महाभारत कथा कहने जाते हैं तो शौनकजी महाभारत के विषय में उनको परखते हैं। ऐसे अवसरों पर कथा के क्रम में कई तरह के परिवर्तन आ जाते हैं। उग्रश्रवा तक ही आते-आते पुराण का स्वरूप बीहड़ वन का रूप ले लेता है। इस प्रकार हम जिन पुराणों का अष्टादश पुराणों में गणना करते हैं, उन्हीं में उपपुराण को भी समझना चाहिए। अलग – अलग पुराण ग्रंथों में गणना के क्रम में इन सभी का समन्वय होना भी इसी ओर संकेत करता है।
अच्छा, यहाँ एक और शंका जो प्रायः लोगों के मन में उठती है कि सूत जाति से होने के बाद भी लोमहर्षण व्यास पीठ पर कैसे बैठे?
इसका उत्तर वायुपुराण में मिलता है। वायुपुराण के अनुसार यज्ञ के समय बृहस्पति की हवि को इंद्र के लिए आहुत होने से इनकी उत्पत्ति हुई थी, इन्हें अयोनिज मानते हुए मिश्रजाति का सूत कहा गया क्योंकि देवताओं के भी वर्ण होते हैं और इंद्र क्षत्रिय थे व बृहस्पति ब्राह्मण। इसी कारण कौटिल्य ने इन्हें सूत जाति से अलग बताया है।
तभी जब बलरामजी ने इन्हें मारा तो उन्हें ब्रह्महत्या का पाप लगा था। इनके पुत्र उग्रश्रवा भी इन्हीं के समान विद्वान व पूज्य थे। यहाँ तक कि उनके पुत्र आरुणी भी परम विद्वान हुए और उनके पुत्र श्वेतकेतु भी। आरुणी और श्वेतकेतु के बीच हुए वार्तालाप में एक महावाक्य आया है ‘तत्वमसि’। छान्दोग्योपनिषद में कथा है।
अब आपका प्रश्न होगा कि ‘अष्टादश’ की संख्या का क्या?
जिस प्रकार एक ही व्याकरण विषय में प्रवक्ता आदि के भेद होने पर ग्रंथों की बहुलता से व्याकरण की आठ संख्या का विघात नहीं होता इसी प्रकार एक – एक पुराण में कर्ता अवान्तर विषय आदि भेद होने से पुराणों की अठारह (अष्टादश) संख्या का विरोध नहीं होता। क्योंकि ब्रह्माजी से लेकर श्रीकृष्ण द्वैपायन तक २८ वेदव्यास के अतिरिक्त इसमे स्वयं ब्रह्मा से लेकर सूत तक अनेक प्रवचन कर्ताओं के कथन का भी उल्लेख है। यहाँ तक कि मात्र सूत का प्रवचन होने पर भी लोमहर्षण और उग्रश्रवा के सूत काल भेद से प्रवक्ता होने के कारण द्वैविध्य हो जाता है। अतः उपपुराण सहित सभी पुराण अठारह पुराणों की श्रेणी में ही आते हैं।