नागमाता कद्रू का श्राप –
भविष्य पुराण के अनुसार देवताओं और राक्षसों ने मिलकर जब समुद्र मंथन किया, तो उच्चैःश्रवा नामक एक अश्व निकला। उसे देखकर नागमाता कद्रू (ऋषि कश्यप की पत्नी) ने अपनी सपत्नी (सौतन) विनता से कहा कि यह अश्व श्वेत वर्ण का है किन्तु इसके बाल काले दिखाई देते हैं। विनता ने कहा कि यह अश्व सर्वश्वेत है न कि काला या लाल। इस बात पर दोनों ने शर्त लगाई, जिसकी बात सही होगी दूसरे को उसकी दासी बनना होगा। कद्रू ने अपने पुत्रों से कहा कि वे अश्व के बाल के समान सूक्ष्म होकर उच्चैःश्रवा के शरीर में लिपट जाएँ, जिससे यह कृष्ण वर्ण का दिखे। माता के इस वचन को सुनकर नागों ने कहा – ‘यह छल है, छल से जीतना बहुत बड़ा अधर्म है’। पुत्रों के इस प्रकार के वचन सुनकर कद्रू ने क्रुद्ध होकर श्राप दिया –’पांडवों के वंश में उत्पन्न राजा जनमेजय (वैवस्वत मन्वन्तर में) जब सर्प-सत्र करेंगे, उस यज्ञ में तुम सभी अग्नि में जल जाओगे’।
वराह पुराण में इससे पहले की भी एक कथा मिलती है – ऋषि कश्यप के संतान नागों से सारा संसार भर गया, वे अत्यंत नीच व कुटिल थे। वे मनुष्यों को अपनी दृष्टि मात्र से या काटकर भी भस्म कर सकते थे। इस प्रकार प्रजा का प्रतिदिन संहार होता देखकर प्रजाजन भगवान ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्माजी ने प्रमुख सर्पों को बुलाकर कहा कि ‘स्वायम्भुव मन्वन्तर’ में तुम्हारी माता के श्राप द्वारा घोर संहार होगा।
ब्रह्माजी का वरदान –
श्राप मिलने के बाद नागों ने ब्रह्मा जी से कहा – ‘आपने ही तो कुटिल जाति में हमारा जन्म दिया है। विष उगलना, दुष्टता करना, यह सब हमारा अमिट स्वभाव आपके द्वारा ही निर्मित है। आप ही उसे शान्त करने का उपाय बताएं’। इस पर ब्रह्मा जी ने उनके रहने के लिए सुतल, वितल और पाताल तीन लोक दिए। वरदान के अनुसार सर्प मनुष्य लोक में भी रह सकते थे, किन्तु उन्हें गरुड संबंधी मन्त्र-औषधि इत्यादि से सावधान भी किया। इसके अतिरिक्त जनमेजय के सर्प-सत्र से आस्तीक ब्राह्मण (जरत्कारु नाम के महामुनि व वासुकिनाग की बहन का पुत्र) द्वारा रक्षण होगा ऐसा वर दिया।
ब्रह्माजी ने पञ्चमी के दिन वर दिया था और आस्तीक मुनि ने पञ्चमी को ही नागों की रक्षा की थी, अतः पञ्चमी तिथि नागों को बहुत प्रिय है।
पञ्चम्यां तत्र भविता ब्रह्मा प्रोवाच लेलिहान्।
तस्मादियं महाबाहो पञ्चमी दयिता सदा॥
नागानामानन्दकरी दत्ता वै ब्रह्मणा पुरा॥
– भविष्य पुराण, ब्राह्मपर्व ३२।३२
पञ्चमी नागों की तिथि है, क्योंकि ज्योतिष के भी अनुसार पञ्चमी तिथि के स्वामी नाग हैं। श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक के शुक्लपक्ष की पञ्चमी को वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, एरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक और धनंजय नामक नागों का पूजन करना चाहिए।
नागपञ्चमी पूजन व व्रत –
सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले॥
ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिताः।
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः॥
ये च वापीतडागेषु तेषु सर्वेषु वै नमः॥
– भविष्य पुराण, ब्राह्मपर्व ३२।३३-३४
अर्थात, पञ्चमी के दिन नागों की पूजा कर यह प्रार्थना करनी चाहिये कि जो नाग पृथ्वी में, आकाश में, स्वर्ग में, सूर्य की किरणों में, सरोवरों में, वापी, कूप, तालाब आदि में रहते है, वे सब हम पर प्रसन्न हों, हम उनको बार-बार नमस्कार करते हैं।
यद्यपि लोकाचार के अनुसार जिनके यहाँ जो विधि चली आ रही हो, वही विधि करनी चाहिए। द्वार के दोनों ओर नागों का चित्र बनाकर पूजन करना चाहिए। सोने, चांदी, दही, अक्षत, कुश, जल, गन्ध, सुगंधित पुष्प (हो सके तो कमल), धूप, दीप और नैवेद्य (घी, दूध, खीर, मोदक, गुग्गुल आदि) आदि से यथाशक्ति पूजन करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को दान देकर, भक्तिभाव से भोजन कराने के पश्चात सगे संबंधियों के साथ भोजन करना चाहिए। इस तिथि को खट्टे पदार्थ के भोजन का त्याग करना चाहिए।
शुक्लपक्ष की पञ्चमी को घृत, गाय के दूध से सर्पों को स्नान कराए, अथवा दूध का छिड़काव घर के अंदर व बाहर करें। कहीं पर भी नागों को दूध पिलाने का वर्णन नहीं मिलता है, नागों को दुग्ध-स्नान, घृत-स्नान कराने का, क्षीर तर्पण करने का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। दूध पिलाना नागों के लिए अत्यंत अहितकर होता है, इससे बचना चाहिए।
इस प्रकार नियमानुसार जो पञ्चमी को नागों का पूजन करता है, वह नागों का मित्र होता है, श्रेष्ठ विमान में बैठकर नागलोक को जाता है और बाद में द्वापर युग में बहुत पराक्रमी, रोगरहित तथा प्रतापी राजा होता है।
नागपञ्चमी पूजन की आवश्यकता –
वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, एरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक और धनंजय नाग अभय, आयु, विद्या, यश और लक्ष्मी प्रदान करने वाले हैं।
सर्प के काटने से जो मरता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है तथा अगले जन्म में विष-हीन सर्प होता है। ‘श्रावण मास की नागपंचमी तिथि’ को नाग की पूजा करने से सभी विष-दोष दूर होते हैं, नाग अभय वरदान देने वाले होते हैं और यह पञ्चमी सर्प-दंष्ट्री प्राणी को मुक्ति दिलाने वाली होती है। इसलिए यह “द्रंष्टोद्धार पञ्चमी” कहलाती है।
पञ्चम्यां पूजयेन्नागाननन्तान्द्यान्महोरगान्।
क्षीरं सर्पिश्च नैवेद्यं देयं सर्वविषापहम्।
नागा अभयहस्ताश्च दष्टोद्धारातु पञ्चमी॥
– गरुड पुराण १,१२९.३२
जिसके परिवार के सदस्य सर्प दंश से मरते हैं, उनकी सद्गति के लिए ‘भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि’ को उपवास करके नागों की पूजा करनी चाहिए। यह तिथि “महापुण्या” कही गई है। इस प्रकार बारह महीने तक चतुर्थी तिथि को एक बार भोजन करके पञ्चमी तिथि को उपवास करना चाहिए।