भारतीय शिक्षा व्यवस्था में जिस सुधार की हम बात करते हैं, वह ये नहीं है कि आधुनिक शिक्षा के विषयों को पूर्णतः हटा दिया जाए। तात्पर्य यह है कि विषयों को इस प्रकार से समायोजित किया जाए कि छात्रों को पूरी जानकारी मिल सके।
भारतीय ग्रंथों में दी गई जानकारियां स्वयं में पूर्ण हैं, इतनी सटीक हैं कि आधुनिक नियमों का प्रतिपादन भी उसी आधार पर हुआ है।
उदाहरण के रूप में आज अंकगणित का छात्र यह स्पष्ट रीति से नहीं जान पाता कि अंकों के लेखन की पद्धति मूलतः भारत की ब्राह्मी लिपि से तथा उनके नाम मूलतः संस्कृत से अरब तथा यूरोप के देशों में विकसित हुए हैं। इसके अभाव में छात्र ऐसे प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता कि हिंदी में ‘लाख’ तथा अंग्रेजी में ‘Lac’ शब्द भी समान रूप से एक विशाल संख्या के साथ-साथ ‘राल’ से बने रंग के लिए भी क्यों प्रयुक्त होता है।
रेखागणित का छात्र यह नहीं बता पाता कि ‘त्रिज्या’ जैसे शब्द किससे विकसित हैं या इसका मौलिक अर्थ क्या है अथवा यह शब्द radius अर्थ को किस प्रकार से अभिव्यक्त कर पाता है।
भौतिक विज्ञान का छात्र चुम्बक के लिए magnet शब्द तथा इसके इतिहास को तो बता सकता है किन्तु वह सामान्यतया यह नहीं जान पाता कि महाभारत में इसके लिए ‘अयस्कान्त’ अथवा वैशेषिक में ‘मणि’ शब्द का उल्लेख हुआ है। अथवा यह कि छठी शताब्दी में वराहमिहिर ने अयस्कान्त के विशाल गोले तथा चुम्बकीय शक्ति का निरूपण करते हुए यह सिद्ध किया था कि पृथ्वी या अन्य ग्रह आकाश में निराधार अवस्थित हो सकते हैं।
इस विषय में उदाहरण बहुत हैं। इस दशा को बदलने के लिए यह समय की मांग है कि एक ओर भौतिक-विज्ञान के पाठ्यक्रमों में प्राचीन विज्ञान का संतुलित तथा प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किया जाए तथा साथ ही दर्शन ग्रंथों को आधुनिक विज्ञान के साथ तुलना एवं नए तथ्यों के समावेश के साथ पढ़ाया जाए।
ऐसा भी न हो कि बिना परिमार्जित सिद्धांत के छात्र कुछ भी पढ़ते रहें जैसे आज संस्कृत में न्याय-वैशेषिक के माध्यम से भौतिक विज्ञान का अध्ययन करने वाला छात्र बिना किसी समीक्षा के साथ यह पढ़ने को मजबूर है कि हवा में वजन नहीं होता, अथवा देखते समय आंखों से किरणें निकलती हैं।