समर्पण दो शब्दों से मिल कर बना है, ‘सम’ और दूसरा ‘अर्पण’ अर्थात ‘अपने मन का अर्पण’। मन का मतलब चाहतें, आकांक्षाएं, इच्छाएं। समर्पण स्वयं में एक संपूर्ण शब्द है, कुछ लोग अध्यात्म में इसे ‘आत्म-समर्पण’ भी कहते हैं लेकिन अर्थ समान ही रहता है क्योंकि तब व्यक्ति, व्यक्ति न हो कर ‘आत्मा’ से सम्बोधित होता है। शरणागति, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम यह सब समर्पण के ही प्रकार हैं। यहाँ एक बात अवश्य जानने वाली है कि घुटना टेकना समर्पण नहीं है। हारने का नाम समर्पण नहीं है, कमज़ोर हो जाने का नाम समर्पण नहीं है। समर्पण का अर्थ है, ‘’मैंने अपनी कमज़ोरी को समर्पित किया; अब मेरे में मात्र बल शेष है।’’
सम्पूर्ण समर्पण के भाव को ही ‘प्रेम’ कहते हैं। यदि यह सवाल उठे कि आखिर सच्चा प्यार क्या है? तो जवाब में हजारों तर्क दिए जा सकते हैं, जो सभी अपनी जगह सही भी होंगे, मगर यदि इन तर्कों का सार निकाला जाए तो वह है ‘संपूर्ण समर्पण भाव’; जहाँ मेरे ‘मैं’ का नाश हो जाता है और सब कुछ तेरा ‘तूँ’ शेष रहता है। अर्थात मेरा व्यक्तित्व अब मेरा नहीं रह जाता।
विशुद्ध प्रेम वही है जो प्रतिदान में कुछ पाने की लालसा नहीं रखता। आत्मा की गहराई तक विद्यमान आसक्ति ही सच्चे प्यार का प्रमाण है। वास्तव में तो प्यार तभी तक प्यार है जब तक उसमें विशालता व शुद्धता कायम है।
यदि एक व्यक्ति केवल दूसरे एक व्यक्ति से प्रेम करता है और अन्य सभी व्यक्तियों में उसकी रुचि नहीं है, तो उसका प्रेम, प्रेम न होकर उसके अहं का विस्तार मात्र होता है।
यह कहना कि ‘मैं प्यार करता हूँ’ का सच्चा अर्थ यह है कि ‘मैं उसके माध्यम से पूरी दुनिया और पूरी जिंदगी से प्यार करता हूँ।
स्त्री-पुरुष के मध्य प्रेम होने के सात चरण होते हैं, पहला आकर्षण, दूसरा ख्याल, तीसरा मिलने की चाह, चौथा साथ रहने की चाह, पांचवा मिलने व बात करने के लिए कोशिश करना, छठवां मिलकर इजहार करना, सातवा साथ जीवन जीने के लिए प्रयत्न करना व अंत में जीवनसाथी बन जाना।
अगर इनमें से एक भी चरण दोनों अथवा दोनों में से किसी एक के द्वारा भी पूरे नहीं किए गए तो वह प्रेम नहीं होता। माता-पिता, भाई-बहन, व्यक्ति विशेष आदि के मध्य भी प्रेम का ही धागा होता है लेकिन स्त्री-पुरुष वाले प्रेम से अलग।
उसी प्रकार स्त्री-पुरुष के मध्य प्रेम समाप्त होने के भी सात चरण होते हैं, पहला एक दूसरे के विचार व कार्यो को पसंद ना करना, दूसरा झगड़े, तीसरा नफ़रत करना, चौथा एक दूसरे से दूरी बनना, पंचवा संबंध खत्म करने के लिए विचार करना, छठवां अलग होने के लिए प्रयत्न करना, सातवाँ अलग हो जाना।
समर्पण क्यों? जब तक समर्पण नहीं होता, तब तक सच्चा सुख नहीं मिलता। सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए समर्पण किया जाता है। लेकिन यहां जानने योग्य बात यह है कि समर्पण यदि कपटपूर्ण है तो सुख भी दिखावा मात्र ही होगा। समर्पण से ही परमात्मा सहाय बनते हैं।
मीरा ने समर्पण यह कहकर कि ‘मेरो तो गिरधर गोपाल बस दूसरो न कोई’ किया तो मीरा को पिलाया जाने वाला जहर परमात्मा ने अमृत में बदल दिया। द्रौपदी ने हार थक कर जब अंत में केवल और केवल श्रीकृष्ण को समर्पण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनका चीर हरण नहीं होने दिया और द्रौपदी की लाज की रक्षा की। द्रौपदी का कुछ काम नहीं आया, काम आया केवल भगवान के प्रति समर्पण। राजा जनक ने अष्टावक्र ऋषि के प्रति समर्पण किया तो राजा जनक को तत्क्षण ज्ञान हो गया। रामकृष्ण परमहंस के प्रति बालक नरेंद्र का, जो कि बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, समर्पण हुआ तो काली मां उनके हृदय में प्रकट हो गई। महात्मा बुद्ध को कोई भी शास्त्र बुद्ध न बना पाया। अंत में बालक सिद्धार्थ परम सत्ता के प्रति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे पूर्णरूपेण समर्पित हुए तो वे तत्क्षण बुद्ध हो गए और यही बालक सिद्धार्थ कालांतर में महात्मा बुद्ध कहलाए।
कुछ उदाहरण से समझते हैं, एक बन्दर का बच्चा अपनी माँ से चिपका रहता है। वह जानता है कि माँ के साथ वो सुरक्षित रहेगा। कहाँ, क्या, कब, कैसे इन सब का निर्णय वह माँ पर छोड़ देता है। यह शरणागति का एक अच्छा उदाहरण है।
दूसरी ओर एक बिल्ली का बच्चा भी यही करता है लेकिन अपनी माँ से चिपकने के, वह स्वयं को छोड़ देता है। माँ उसे उठाकर सुरक्षित जगह पर पहुँचाती है। वही नुकीले दांत जो शिकार करते हैं बच्चे को कोई हानि नहीं पहुँचाते। यह भी एक समर्पण है।
दोनों ही समर्पण के प्रकार हैं पर इनमें एक मूलभूत अंतर है; बन्दर की स्थिति में ज़िम्मेदारी उस बच्चे की है कि वह अपनी माँ से चिपका रहे अन्यथा संभव है कि वह सुरक्षित नहीं रहेगा। जबकि, बिल्ली के मामले में, यह सिर्फ़ माँ की ज़िम्मेदारी है। बिल्ली का बच्चा कुछ नहीं करता है। आपको बन्दर बनना है या बिल्ली का बच्चा? इसका उत्तर है बुद्धिमान बनिए और अपना तरीका स्वयं ढूँढिये।
एक बार एक गाँव में बाढ़ आ गयी और सारा गांव डूबने लगा। सारे गाँव वाले गाँव छोड़कर चले गए लेकिन एक व्यक्ति, अपने घर के छत पर चला गया और निरंतर ईश्वर की प्रार्थना करने लगा।
आपदा प्रबंधन के लोगों ने जब नाव के सहारे बचे हुए लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुचाने लगे तब उनकी दृष्टि उस प्रार्थना करते हुए व्यक्ति पर पड़ी, अपना मार्ग बदलकर उस व्यक्ति को बचाने हेतु आये। बोले “चिंता मत करो, तुम बचा लिए जाओगे, मेरी नाव में आ जाओ।”
इस पर वह व्यक्ति बोला “धन्यवाद लेकिन मुझे तुम्हारे साथ जाने की कोई आवश्यकता नहीं है,” वह आगे बोला “मुझे बचाने मेरे ईश्वर आयेंगे।”
यह कहानी मूर्खता की पराकाष्ठा दर्शाती है लेकिन सच्चाई तो यह है कि, मानवीय बुद्धिमता और मूर्खता दोनों की कोई सीमा नहीं है। दूसरों के विश्वास और कार्य को असंगत का ठप्पा लगा देना बहुत आसान है, पर यदि हम स्वयं को देखें, हम सब वहीं हैं और वही करते हैं, शायद अलग तरीके से फिर भी एक जैसे।
समर्पण के लिए ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आप अपनी आँखें बंद कर लीजिये, अपने कान बंद कर लीजिये और कोई प्रश्न मत पूछिये, बल्कि, इसका अर्थ है संसार को ईश्वर दृष्टि से देखिये, अपने अंतरात्मा की आवाज़ पर ध्यान दीजिये, और धैर्यपूर्वक ईश्वर के उत्तर को समझने का प्रयास कीजिये। सच्चा समर्पण तो हर जाँच या परीक्षा को सहन करता है। वास्तव में समर्पण से ही पूर्णता मिलती है।
Sarvashreshth apne smrpn se smbndhit etna achha lekhan kiya h jiski kitni bhi prshansa karu km h.👍👌👌
मेरा मुझमें कुछ भी नहीं
तेरा तुझमें कुछ भी नहीं
सो जानय जो देहि जानहि
जानय तोहहि तोहहि हो जाई
तेरा तुझको अर्पण है 💐 💐 💐 आपनाय स्वाहा