बयालीस दिन तक चले कल्पवासियो के एक टेंट में साधना आखिरकार पूरी हुई। एक साल से चल रही अर्द्धकुंभ की तैयारी सरकार द्वारा दिव्य कुंभ भव्य कुंभ का नारा सफलीभूत हुआ।
लोग घर को लौट चले यहाँ बसने की बड़ी उत्सुकता,उत्कंठा और प्रसन्नता थी जाने में निराशा ऐसा लगा जैसे कुछ महत्वपूर्ण छूट गया लेकिन एक चीज को याद रखना होगा यहां का संगम जो संस्कृति के बास्केट में सभी रंग का था। धर्म,आध्यात्म,लोग,भाषा,व्यापार,मन सभी का जो मिलन हुआ उससे जो नई चीजें सीखने को मिली उसे परिजन और पड़ोसी को भी अवगत कराना।सत्संग की बड़ी महिमा है प्रयाग की भूमि इस समय पूरी धरती का आध्यात्मिक केंद्र बनी रही है जहाँ संत,महात्मा,ऋषि, मुनि,कथाकार,प्रदर्शक, विश्वभर से आये यात्री और तीर्थयात्री इकट्ठा हुये जिनके साथ उनका देश और संस्कृति भी आई जिसे प्रयाग में उड़ेल भी दिया गया।
क्षेत्रीय विविधता के बहुरंग दिखे, भाषा भले लोगों ने न समझी पर भाव को अच्छे से समझा।यहां आके बड़ा अपनापन हो जाता है।
तम्बू की बात ले तो ये मेरा तम्बू,वही महाराज ये मेरा पंडाल वे मेरी तम्बू की तरफ क्यों आरहे है उसकी हम उचित व्यवस्था भी करते है वही तम्बू हटते ही सब भूमि गोपाल की हो जाती है।
प्रयाग की संस्कृति तो यही कहती है जिस भूमि,जिस वैभव के लिये तुम लड़ रहे हो वह सच नहीं है “सब ठाट धरा रह जायेगा जब बांध लें चलेगा बंजारा”।इस नश्वर शरीर से भजन करो,धर्म करो किसी को कष्ट न पहुँचओ।जीवन अच्छी चीजों को सीखने के लिये
मिला है।
एक परिवार मुझे मिला जो त्रिपुरा से था हमनें पूछा अम्मा कैसा लगा आपको प्रयाग तो उन्होंने कहा बहुत ही बढ़िया,बचपन से आने की इच्छा अब जा कर पूरी हुई खूब नहाये,दर्शन कीर्तन भी हुआ
अब मर भी गये तो कोई बात नहीं।
ऐसे ही भाव विभिन्न प्रान्त से आये लोगों के है।यदि नास्तिक का भगवान न भी होता हो किन्तु आस्तिक की श्रद्धा,मंत्र,भावना और भक्ति निश्चित ही भगवान को देवत्व दिला देगा।
मूर्ख,आलसी,नास्तिक,समय से निराश व्यक्ति कहता है भगवान नहीं है मेरा भगवान तो है आपका भगवान?
Sundar ati sundar lekhan