वपुषो वैष्णवादस्मान्मा भून्मूर्तिः परावरा ।
अयं प्राणप्रवाहेण बहिर्विष्णुः स्थितोऽपरः ॥
वैनतेयसमारूढः स्फुरच्छक्तिचतुष्टयः ।
शङ्खचक्रगदापाणिः श्यामलाङ्गश्चतुर्भुजः ॥
चन्द्रार्कनयनः श्रीमान्कान्तनन्दकनन्दनः ।
पद्मपाणिर्विशालाक्षः शार्ङ्गधन्वा महाद्युतिः ॥
तदेनं पूजयाम्याशु परिवारसमन्वितम् ।
सपर्यया मनोमय्या सर्वसंभाररम्यया ॥
– श्री योगवाशिष्ठ, उपशम प्रकरण, सर्ग ३२/२–५
प्रह्लाद जी ने चिन्तन आरम्भ किया – “मैं भावना – दृष्टि से देख रहा हूँ कि ये भगवान विष्णु दूसरा शरीर धारण करके मेरे भीतर से बाहर आकर खड़े हैं, गरुड़ की पीठ पर बैठे हैं, चतुर्विध शक्तियों से सम्पन्न हैं। हाथ में शंख, चक्र, गदा लिये हुए, श्यामल शरीर, चतुर्बाहु, चन्द्र–सूर्य रूपी नेत्र वाले, सुन्दर नन्दक नामक खड्ग से अपने भक्तों को प्रसन्न करते हैं। इनके हाथों में कमल शोभा दे रहा है। नेत्र बड़े हैं। ये शार्ङ्ग धनुष धारण करते हैं और महान तेज से सम्पन्न हैं। इनके पार्षद इन्हें सब ओर से घेरे हुए हैं। इसलिए मैं शीघ्र ही भावना–भावित समस्त सामग्रियों से सुशोभित मानसिक पूजा द्वारा इनका पूजन आरम्भ करता हूँ।”
मानसिक पूजन क्या है?
पूजा के पाँच प्रकार शास्त्रों ने बताये हैं – अभिगमन, उपादान, योग, स्वाध्याय और इज्या।
भगवान के स्थान को साफ करना, निर्माल्य हटाना आदि कार्य ‘अभिगमन’ के अंतर्गत आते हैं। गन्ध, पुष्प आदि पूजन सामग्री का संग्रह ‘उपादान’ है। इष्टदेव की आत्मरूप से भावना करना ‘योग’ कहा गया है। मंत्रार्थ का अनुसंधान करते हुए जप करना, सूक्त, स्तोत्र आदि का पाठ करना, गुण, नाम, लीला आदि का कीर्तन करना तथा वेदान्त शास्त्र आदिका अभ्यास करना – यह सब ‘स्वाध्याय’ है और उपचारों के द्वारा आराध्य देव की पूजा करने को ‘इज्या’ कहते हैं।
जिस प्रकार बाह्य पूजा में भक्त अपने इष्टदेव का धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पण कर पंचोपचार, दसोपचार या षोडशोपचार पूजन करता है उसी प्रकार मन द्वारा कल्पित श्री भगवान के प्रतीक रूप (मूर्ति) अथवा साकार रूप भगवान की भावना से कल्पित सामग्रियों से सेवा, अर्चना और पूजा को मानस–पूजा कहते हैं। मूर्त वस्तुओं की सहायता से मानस–पूजा का चिन्तन बड़ा ही सरस हो उठता है और इसके प्रभाव से पूजक का मन सहज ही बाह्य जगत् से हटकर भगवद्चिन्तन में निमग्न हो जाता है। मानस–पूजा के फलस्वरूप साधक का मन स्थूल से सूक्ष्म भूमि में आरोहण करता है, अतः बाह्य पूजन की अपेक्षा अध्यात्म–साधना का यह मानो उच्चतर सोपान है।
गीताप्रेस से प्रकाशित ग्रंथ ‘नित्यकर्म–पूजाप्रकाश’ में ग्रंथाकार लिखते हैं कि वस्तुतः भगवान को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, वे तो भाव के भूखे हैं।
संसार में ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हैं जिनसे भगवान की पूजा की जा सके। इसलिए पुराणों में मानस–पूजा का विशेष महत्व माना गया है। मानस–पूजा में भक्त अपने इष्टदेव को मुक्ता मणियों से मण्डित कर स्वर्ण–सिंहासन पर विराजमान कराता है। स्वर्ग लोक की मन्दाकिनी गंगा के जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है और कामधेनु गौ के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण करता है। इस प्रकार भक्त त्रिलोक की समस्त दिव्य वस्तुओं को अपनी भावना से भगवान को अर्पण करता है। यह मानस–पूजा का स्वरूप है। मानस–पूजा में साधक का जितना समय लगता है, उतना भगवान के सम्पर्क में ही बीतता है और तब तक संसार उससे दूर हटा रहता है।
जिस प्रकार बाह्य पूजन में जो वस्तु उपलब्ध न हो, उसके लिए ‘अमुकवस्तु मनसा परिकल्प्य समर्पयामि’ कहते हैं। उसी प्रकार मानस–पूजा में सभी सामग्रियों की परिकल्पना की जाती है। मानस–पूजा से सम्बंधित एक संक्षिप्त विधि पुराणों में वर्णित है। जो निम्नलिखित प्रकार से है –
१. ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि ।
(प्रभु! मैं पृथ्वीरूप गंध (चन्दन) आपको अर्पित करता हूँ।)
२. ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि ।
(प्रभु! मैं आकाश रूप पुष्प आपको अर्पित करता हूँ।)
३. ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि ।
(प्रभु! मैं वायुदेव के रूप में धूप आपको अर्पित करता हूँ।)
४. ॐ रं वह्नयान्तकं दीपं दर्शयामि ।
(प्रभु! मैं आपको अग्निदेव के रूप में दीपक अर्पित करता हूँ।)
५. ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि ।
(प्रभु! मैं आपको अमृत के समान नैवेद्य निवेदित करता हूँ।)
६. ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि ।
(हे प्रभु! मैं सर्वात्मा के रूप में संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करता हूँ।)
मानस–पूजा में पूजा तो परिकल्पित होती है किन्तु बाह्य पूजन की तुलना में यह साधक को समाधि की ओर अग्रसर करती है और उसके रसास्वादन का आभास भी कराती है। बाह्य पूजन में आर्थिक कठिनाई, सामग्रियों की अनुपलब्धता आदि अनेकों अड़चन आ सकती हैं जो मानस–पूजा में कभी नहीं आतीं। इसी कारण भगवान से भक्त का बना हुआ सम्पर्क गाढ़–से–गाढ़तर होता जाता है। आद्यगुरु शङ्कराचार्य जी ने ‘शिव मानस–पूजा स्तोत्र’ की रचना इसी आधार पर की है; जिसका पहला श्लोक है –
रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं,
नानारत्नविभूषितं मृगमदा मोदाङ्कितम् चन्दनम्।
जाती–चम्पक–बिल्वपत्र–रचितं पुष्पं च धूपं तथा,
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम्॥
अर्थात् मेरी यह मानसिक आराधना स्वीकार करें। रत्नों से जड़ित सिंहासन पर आप विराजमान हो जाइए। मैं हिमालय से लाए गए जल से आपको स्नान करवा रहा हूँ और आप पवित्र/दिव्य वस्त्रों को धारण कीजिए। कस्तूरी से मिश्रित चन्दन से तिलक आपको लगा रहा हूँ। जूही, चंपा, बिल्वपत्र आदि पुष्प भी आपको समर्पित करता हूँ। धुप और दीपक भी अर्पित करता हूँ – जो मेरे हृदय से निर्मित हैं। हे शिव! हे दयानिधि! हे पशुपति! आप मेरे द्वारा अर्पित (कल्पित) सामग्री को ग्रहण कीजिए।
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