श्रीराम जन्मभूमि मंदिर उद्घाटन

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अयोध्या में भगवान श्रीराम के जन्मभूमि मंदिर का उद्घाटन होने वाला है। निमंत्रण पत्र बाँटे जा रहे हैं। लोगों को स्व-विवेकानुसार कुछ बातें अच्छी लग रहीं हैं तो कुछ बातों से बड़ी नाराज़गी भी देखने को मिल रही है। आडवाणी और जोशीजी को उद्घाटन समारोह में आने के लिए मना करने की बात पर तो कुछ लोग जैसे आक्रोशित ही हो उठे हैं। कोई कहता है ‘ये चम्पत राय कौन होते हैं?’ किसी को सारा ठीकरा मोदीजी पर फोड़ना ही भाता है। किसी ने यह भी कहा कि २०२४ के चुनाव के कारण मंदिर का उद्घाटन इतनी जल्दी – जल्दी में किया जा रहा है।
ख़ैर, किसको कौन समझा सका है… ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’।

यद्यपि यहाँ हम किसी का पक्ष नहीं लेना चाहते अथवा किसी पर दोषारोपण नहीं करना चाहते। हम बस उन्हीं कुछ बातों को आप सबके संज्ञान में लाना चाहते हैं जो संभव है ज्ञात तो हों किन्तु उन पर ध्यान न जा रहा हो।

पहले आगामी चुनाव के कारण उद्घाटन में आतुरता की बात करते हैं। देखिए, संभव है कि भाजपा अपना राजनीतिक लाभ देखती हो, इसे हम नकार नहीं रहे, किन्तु आपको इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि मंदिर मुद्दा इतना लंबा चलने का एक प्रमुख कारण राजनीतिक लाभ रहा है। किसी सूरत में यदि २०२४ में सत्ता परिवर्तन हुआ तो यह सभी अदालती आदेशों के बाद भी और कितना लंबा खिचेगा, आप सोच नहीं सकते।

आडवाणी और जोशीजी को उद्घाटन समारोह में बुलाने या मना करने वाले चम्पत राय कौन होते हैं? हमारा तो पहले आपसे यह प्रश्न है कि आप उनके विषय में जानते क्या हैं? विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, इनके कार्यकर्ता, भाजपा आदि के विषय में पहले जानिए, समझिए और फिर कुछ कहिए।

वास्तविकता यह है कि पिछले ५०० वर्षों से चला आ रहा राम मंदिर का मुद्दा सामान्य जानता की नज़र में १९९२ में तब आया जब विवादित ढाँचा ध्वस्त किया गया। आज जिन राम कुमार और शरद कोठारी (कोठारी बंधु) का आप गुणगान करते हैं, वे इसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे जिन्होंने १९९० में बाबरी के गुंबद पर भगवा फहराने का कार्य किया था। अशोक सिंहल इसी वीएचपी के अध्यक्ष थे जिनके नेतृत्व में १९८३-८४ में ही दिल्ली के विज्ञान भवन में राम मंदिर आंदोलन की रूपरेखा तय कर ली गई थी। आडवाणी और जोशीजी जिस रणनीति के साथ आगे बढ़े थे, जिसका वे चेहरा थे, उस रणनीति की रूपरेखा को बनाने वालों को आप कैसे भूल सकते हैं? आज आप जोशी आडवाणी कर करे हैं, एक बार भी नैपथ्य के उन योद्धाओं को जानने का प्रयास किया है?

भाजपा एक राजनीतिक दल है, उसके लिए अपना राजनीतिक हित सर्वोपरि है। राजनीतिक दल से धर्म की उम्मीद ही बेमानी है, वह भी संविधान की मर्यादा में रहते हुए। क्योंकि धर्म के आधार पर तो पहला सुधार संविधान में ही अपेक्षित है। धार्मिक क्रिया-कलापों के विषय में आपका आरोप ठीक हो सकता है क्योंकि वीएचपी या संघ धार्मिक संगठन नहीं हैं, अतः इनके अनेक क्रिया कलापों से कई धार्मिक व्यक्ति अथवा संत सहमत नहीं हो सकते, हम स्वयं सहमत नहीं होते किन्तु इनकी भावना पर आक्षेप लगाने का आपको कोई अधिकार नहीं है।

यदि विशेषरूप से अयोध्या के राम मंदिर के विषय में कहें तो वीएचपी के कार्यकर्ताओं का योगदान अतुलनीय है। अधिकांश कार्यकर्ताओं के विषय में तो आज कोई जानता तक नहीं है किन्तु हमारा दृढ़ विश्वास है कि यदि कभी इनके ऊपर कोई पुस्तक लिखी जाए तो उसे पढ़ कर इस बात को सरलता से समझा जा सकेगा। एक हद तक समझना चाहें तो पत्रकार हेमंत शर्माजी की लिखी पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या’ को पढ़ना चाहिए जिन्होंने ताला खुलने से लेकर बाबरी ध्वंस तक की प्रत्येक घटना की रिपोर्टिंग अयोध्या में रह कर की थी।

राम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए जब न्यायालय का सहारा लिया गया तब १९८९ में सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति देवकीनंदन अग्रवाल ने रामलला के सखा के रूप में वाद प्रस्तुत किया। १९९६ में उनकी मृत्यु के बाद यह जिम्मेदारी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर ठाकुर प्रसाद वर्मा ने संभाली। उनके बाद २००८ से रामलला के सखा का दायित्व त्रिलोकीनाथ पांडेय ने संभाला।

अयोध्या के कारसेवकपुरम् में पांडेयजी से हमारी कई बार मुलाक़ात हुई, बड़े सज्जन व्यक्ति थे। बलिया ज़िले के छोटे से गाँव में अपने पूरे परिवार को छोड़ कर उन्होंने अपना सर्वस्व भगवान श्रीराम को समर्पित कर दिया था। हमें तो न्यायालय की बातें तब पता चलीं जब वाद उच्च न्यायालय में पहुँचा और कई लोगों ने तो उच्चतम न्यायालय में पहुँचने के बाद जाना किन्तु इन्होंने ज़िला स्तर से लेकर उच्चतम न्यायालय तक तारीख़ दर तारीख़ पैरवी की और अंततः पक्ष में निर्णय भी आया। जब दो वर्ष पूर्व इनका देहांत हुआ तो कहीं कुछ छोटे समाचार के अतिरिक्त किसी ने न जाना। आज आप कहते हैं कि इन लोगों ने क्या किया? ऐसे में आपसे क्या ही कहा जा सकता है।

देखिए, राजनीति तो होती रहेगी, लोग भला-बुरा कुछ तो कहते रहेंगे, इन सबके बीच राम लला के भक्त इसी से प्रसन्न हैं कि ५०० वर्षों के संघर्ष के उपरांत अंततः अब राम मन्दिर का उद्घाटन होने जा रहा है। कुछ लोग तो असंतुष्ट ही रहेंगे, सबको संतुष्ट करना भी जीवित मेढकों को तौलने वाली बात है।

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अभय
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3 months ago

जानकारी युक्त…उत्तम लेख।

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