पुराणों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जब शिव प्रकट हुए तो उनके साथ ‘सत’, ‘रज’ और ‘तम’ ये तीनों गुण भी जन्में।
यही तीनों गुण शिव के ‘तीन शूल’ अर्थात ‘त्रिशूल’ कहलाए। संगीत प्रकृति के हर कण में मौजूद है। भगवान शिव को ‘संगीत का जनक’ माना जाता है।
शिवमहापुराण के अनुसार शिव के पहले संगीत के बारे में किसी को भी जानकारी नहीं थी। नृत्य, वाद्य यंत्रों को बजाना और गाना उस समय कोई नहीं जानता था क्योंकि शिव ही इस ब्रह्मांड में सर्वप्रथम आए।
भगवान भोलेनाथ दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं; क्रोध मुद्रा का तांडव और आनंद मुद्रा का तांडव। क्रोधावस्था में बिना डमरू के तांडव करते हैं तो त्रिलोक भयभीत हो जाता है। तांडव नृत्य करते समय जब डमरू भी बजाते हैं तो प्रकृति में आनंद की बारिश होती है। ऐसे समय में शिव परम आनंद से पूर्ण रहते हैं। शिव जब शांत समाधि में होते हैं तो नाद करते हैं।
नाद और भगवान शिव का अटूट संबंध है। नाद एक ऐसी ध्वनि है जिसे ‘ऊँ’ कहा जाता है। पौराणिक मत है कि ‘ऊँ’ से ही भगवान शिव प्रकट हुए हैं।
संगीत में सात स्वर तो आते – जाते रहते हैं, लेकिन उनके केंद्रीय स्वर नाद में ही है। नाद से ही ‘ध्वनि’ और ध्वनि से ही ‘वाणी की उत्पत्ति’ हुई है। शिव का डमरू ‘नाद-साधना’ का प्रतीक माना गया है।
पार्वती जी ने यही नृत्य बाणासुर की पुत्री को सिखाया था। धीरे-धीरे ये नृत्य युगों – युगान्तरों से वर्तमान काल में भी जीवंत है। शिव का यह तांडव नटराज रूप का प्रतीक है। नटराज, भगवान शिव का ही रूप है, जब शिव तांडव करते हैं तो उनका यह रूप नटराज कहलता है।
नटराज शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। ‘नट’ और ‘राज’, नट का अर्थ है ‘कला’ और राज का अर्थ है ‘राजा’। भगवान शंकर का नटराज रूप इस बात का सूचक है कि ‘अज्ञानता को सिर्फ ज्ञान, संगीत और नृत्य से ही दूर किया जा सकता है।’ नाट्य शास्त्र में उल्लेखित संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान आदि के प्रवर्तक शिव ही हैं। शिवमहापुराण में शिव के संगीत स्नेह के बारे में विस्तार से वर्णन है।
वर्तमान में शास्त्रीय नृत्य से संबंधित जितनी भी विद्याएं प्रचलित हैं। वह तांडव नृत्य की ही देन हैं। तांडव, नृत्य की तीव्र प्रतिक्रिया है। वहीं लास्य सौम्य है। लास्य शैली में वर्तमान में भरतनाट्यम, कुचिपुडी, ओडिसी और कत्थक नृत्य किए जाते हैं यह लास्य शैली से प्रेरित हैं। जबकि कथकली तांडव नृत्य से प्रेरित है।