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विविधं ज्ञानं – विज्ञानम्

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यदेतत् हृदयं मनश्चैतत्।
संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृष्टिर्धृतिर्मतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः संकल्पः क्रतुरसुः कामो वश इति।
सर्वाण्येवैतानिप्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति॥

– ऐतरेयोपनिषद ..

जो हृदय है वही मन भी है। संज्ञान (सम्यक् ज्ञान, चेतनता), आज्ञान (आदेश देने की शक्ति, प्रभुता) विज्ञान (विविध रूपों से जानने की शक्ति), प्रज्ञान (तुरंत जान लेने की शक्ति), मेधा (धारणाशक्ति), दृष्टि, धृति (धैर्य), बुद्धि, मनीषा (ममनशक्ति), जूति (वेग, रोगादिजनित दुःख), स्मृति, संकल्पशक्ति, मनोरथशक्ति, भोगशक्ति, प्राणशक्ति ये सभी शक्तियां परमात्व सत्ता की ही बोधक हैं।

उपरोक्त सभी वे शक्तियाँ हैं जो सभी मनुष्यों में स्वाभाविक रूप से पायी जाती हैं क्योंकि मनुष्यमात्र परमात्म तत्व को पाने का अधिकारी है, मुक्ति अथवा मोक्ष का अधिकारी है। देवताओं के लिये भी यह सर्वथा दुर्लभ है, तभी गोस्वामी जी ने लिखा है :

बड़ें भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥

इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य स्वाभाविक रूप से खोजी है, वैज्ञानिक है। चिंतन और मनन करने की क्षमता प्रत्येक मनुष्य में है। प्रत्येक मनुष्य कार्य का संपादन संकल्प शक्ति से कर सकता है। इसी प्रकार अन्य सभी शक्तियों के साथ भी है, आवश्यकता है इन शक्तियों को जाग्रत करने की।

इस लेख हम विशेष रूप सेविज्ञानशब्द पर चर्चा करेंगे।विज्ञान’ का रहस्यार्थ क्या है?

विज्ञानविज्ञानम् – ‘वि + ज्ञानम्

विएक सुप्रसिद्ध उपसर्ग है, जिसके विशेष, विविध तथा विरुद्ध तीनों ही अर्थ हो सकते हैं। जैसे किविउपसर्ग से समन्वितविकर्मशब्द के विशेषकर्मविविधकर्म विरुद्धकर्मतीनों अर्थ यथा प्रकरण शास्त्रों में समन्वित हुए हैं। इस दृष्टि सेविज्ञानम् शब्द के तीनों ही अर्थ संभव हैं, जिनके इस प्रकार लक्षण किए जा सकते हैं

१. विशेषं ज्ञानंविज्ञानम्।
२. विविधं ज्ञानंविज्ञानम्।
३. विरुद्धं ज्ञानंविज्ञानम्।

अब यहाँ प्रस्तुत विज्ञान शब्दार्थ के समन्वय प्रसंग में तीसरे विरुद्धभावात्मक विज्ञानभाव का तो स्वतः निराकरण हो जाता है क्योंकि प्रकृति विरुद्ध ज्ञानात्मक विज्ञान तो अज्ञानावृत्त ज्ञानलक्षण अर्थात् मोह है, जिसे अविद्यात्मक अज्ञानही कहा गया है एवं जिसके संबंध मेंअज्ञानेनावृत्तं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवःयह प्रसिद्ध है। शेष रह जाते हैं प्रथम द्वितीयलक्षण विशेषतथाविविधभावात्मक विज्ञान

इस प्रकारविशेषभावानुगतंविशेषभावाभिन्नंविविधं ज्ञानमेव विज्ञानम्यही अर्थ विज्ञान शब्द का बनता है। विविधं ज्ञानं विज्ञानम्इस लक्षण के सुनने के साथ ही अनिवार्य रूप से यह जिज्ञासा जागरूक हो ही पड़ती है कि क्या कोई ऐसा भी ज्ञान है जो वैविध्य से शून्य है, नानात्व से पृथक है अथवा विश्वनिबंधन भेदवादों से असंस्पृष्ट है?”

इस प्रकार से विचार करें तो विशेष ज्ञान और विविध ज्ञान को एक दूसरे से पृथक नहीं माना जा सकता और इस विविधरूपा से पृथक एकविध ज्ञान को हीज्ञानमाना जा सकता है।

एकं ज्ञानंज्ञानम् और
विविधं ज्ञानंविज्ञानम्।

यहाँ तक तो बात समझ में आती है। किन्तु इसके साथ ही कठोपनिषद् ..१० का स्मरण हो आता है :

यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः मृत्युमाप्नोति इह नानेव पश्यन्ति॥

अब इस मंत्र के अनुसार तो जो मनुष्य इसनानात्वको देखता है वह मृत्यु से मृत्यु को अर्थात् जन्ममरण के चक्र को प्राप्त होता है।

वास्तव में श्रुति ने जहाँजहाँ नानाभावों का, पृथकभावों का स्वरूप विश्लेषण किया है, वहाँवहाँ उनके साथसाथ ही मृत्युशब्द का भी संबंध समन्वित माना है। अतः इस श्रौती दृष्टि से तो यह प्रमाणित होता है कि नानात्वभेदत्वपृथकत्व जहां मृत्यु का स्वरूपधर्म है, वहीं अनेकत्वअभेदत्वअपृथकत्वअमृत का स्वरूपधर्म है।

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्याज्ञानशास्त्र विहित औरविज्ञानशास्त्र विरुद्ध है?

यहाँ यह स्वीकार करना पड़ेगा कि निश्चितरूप से अव्यक्तनिष्ठा में अभिनिविष्ट ज्ञानवादियों के अनुग्रह से ही प्राजापत्यशास्त्रसिद्ध ज्ञानसहकृत विज्ञानतत्व विगत कुछ शताब्दियों से भारतीय प्रज्ञा से सर्वथा परांगमुख ही बनगया है। जिस भारत राष्ट्र की ऋषिप्रज्ञा ने अखण्ड ज्ञानप्रतिष्ठा के आधार पर सृष्टिस्वरुप संरक्षक तथा अभ्युदयप्रवर्तक, समस्त ऐश्वर्यसाधक जिस विज्ञान सूर्य को अभिव्यक्त कर देने का महान गौरव प्राप्त किया था, उसी ऋषि प्रज्ञा की वर्तमान भारतराष्ट्र की आस्तिक प्रज्ञाविज्ञानशब्द के श्रवण मात्र से भी उन्मुग्ध बन जाती है।

कलौ वेदान्तिनः सर्वेका अनुगमन कर बैठने वाला भारतीय जनमानस ज्ञानाभिनिवेश में आकर राष्ट्र की वैज्ञानिकविभूतियों से कब से, क्यों और कैसे परांगमुख बन गया? इस पर अधिक चर्चा करते हुए विज्ञानशब्दार्थसमन्वय की ओर ही ध्यान आकृष्ट करते हैं।

विज्ञान यदि मृत्यु का नाम है तब अमृत का नाम ज्ञान है क्योंकि मृत्युभावात्मक विज्ञान नानाभावापन्न हैं एवं अमृतभावात्मक ज्ञान एकत्वानुबन्धी हैं जैसा की हमने पहले समझा। तो क्या हम विज्ञान शब्द के विमोहन में कर जानबूझ कर प्रज्ञाशील मानवों को इस मृत्युमुख की और आकर्षित कर रहे हैं? क्या ऐसा करना पौरुषकोटि में अन्तर्भूत मान लिया जाएगा? हम कहेंगेअवश्य!

तब क्या इस प्रकार नानालक्षण विज्ञानभाव का अनुगमन करते हुए हममृत्युमाप्नोति इह नानेव पश्यन्तिइस वेदसिद्धांत के ही विरोधी प्रमाणित हो जाएँगे?

उत्तर हैनहीं!
क्यों?

इसलिए कि वेदसिद्धान्त ने मृत्यु के दर्शन मात्र का निषेध किया है, वर्तनका नहीं। जैसा कि इह नानेव पश्यन्तिवाक्य से स्पष्ट है।

अब दर्शन और वर्तन क्या है?

इसी एक बिन्दु पर तो प्राच्य तथा प्रतीच्य संस्कृति सभ्यताओं का वह दृष्टिकोण हमें समन्वित करना है, जिसके अभिनव से प्राच्य भारतराष्ट्र आज प्रतीच्य राष्ट्रों का अंधानुकरण करता जा रहा है।

दर्शन :

दर्शन का दृष्टि से सम्बन्ध माना गया है, दृष्टि द्रष्टा पर अवलम्बित है एवं मानव की अध्यात्मसंस्था मेंसमब्रह्मनाम से प्रसिद्ध आत्मा को ही द्रष्टा माना गया है। द्रष्टा आत्मा की दृष्टि से सम्बन्ध रखने वाला समदर्शन ही भारतीय परिभाषा में वास्तविकदर्शनमाना गया है।

वर्तन :

वर्तन का वृत्तिआचरण कर्म से सम्बन्ध माना गया है। कर्माचरणात्मिका वृत्ति बुद्धिमनःशरीर से समन्वित कार्यभाव पर अवलंबित है। आत्मसाक्षी में प्रतिष्ठित बुद्धिमनइन्द्रियवर्गानुगत पञ्चभौतिक शरीर को ही वर्तन का आधार माना गया है। आत्मयुक्त बुद्धिमनशरीरेन्द्रियधर्मा मानव के आचार से, व्यवहार से, कर्म से सम्बन्ध रखने वाला विषम वर्तन ही भारतीय परिभाषा में वास्तविकवर्तनमाना गया है।

बुद्धिमनःशरीरेन्द्रियात्मक वही मानव लौकिक मानव है और आत्मनिष्ठ वही मानव अलौकिक मानव है। आत्मनिष्ठ वही मानव समदर्शन का केंद्रबिन्दु बना रहता है एवं बुद्धिमनःशरीरेन्द्रियानुगत वही मानव विषमवर्तन का हृद्य बिन्दु बना रहता है।

आत्मगर्भित बुद्धिमनःशरीरेन्द्रियात्मक अपने लौकिक स्वरूप से वही मानव नानाभावापन्नप्रकृतिभेदभिन्नविभिन्नव्यवहारों का वर्तन करता है एवं यही इसका लोक पक्ष है। बुद्धिमनःशरीरेन्द्रियगर्भित अलौकिक आत्मस्वरूप से वही मानव अभिन्नभावापन्न समदर्शन का अनुगामी बना रहता है एवं यही इसका अलौकिक आत्मपक्ष है।

समदर्शनतानुगत विषमवर्त्तनही भारतीय जीवन की मूल परिभाषा है, जिसका लोकभाषा में इस प्रकार स्पष्टिकरण सम्भव है किआत्मनिष्ठ मानव को सर्वत्र समादृष्टि ही रखनी चाहिए एवं इस समदृष्टि को आधार बना कर ही इसे प्रकृतिभेद भिन्न लौकिक व्यवहारों में देशकालपात्रद्रव्यश्रद्धादि के तारतम्य से विभक्तव्यवस्थित रूप से ही प्रवृत्त रहना चाहिए।

भगवान ने गीताशास्त्र में आत्ममूलक इसी समदर्शन को लक्ष्य बना कर .१८, .२९, .३०, .३२ इत्यादि रूप से एकत्वनिबन्धन आत्ममूलक समदर्शन सिद्धान्त स्थापित किया है तो इसी गीताशास्त्र ने .३५, १८.२७. १८.३०, १८.४१, १८.४५, १८.४७, १८.६० इत्यादि रूप से नानात्त्वनिबन्धन बुद्धिमनःशरीरेन्द्रियमूलक विषमवर्तन का ही समर्थन किया है। नानाभावात्मक अतएवमृत्युसंसारवर्त्मनि (गीता .) के अनुसारमृत्युसंसारनाम से प्रसिद्ध इस प्राकृतिक पञ्चभौतिक विश्व में विभिन्न प्रकृतियुक्त विभिन्न कर्मों का सर्वथा विभिन्न रूप से ही अनुष्ठानात्मक अनुवर्तन संभव है।

यह प्रकृतिवैषम्य, तदनुगत कर्मवैषम्य एवं तदनुप्राणित विभिन्नभावात्मक विषमवर्तन ही तो विश्व की स्वरूप व्याख्या है जिस व्याख्या को हीविज्ञानकहा गया है। यही वह प्राकृतिक विज्ञानसिद्ध धर्मभेद है, जो सनातन समभावापन्न आत्मब्रह्म के आधार पर प्रतिष्ठित रहता हुआसनातन धर्मनाम से प्रसिद्ध है जो कि सर्वथा विज्ञान से ही सम्बद्ध है जबकि इतर मत वाद मात्र मानसिक कल्पना से प्रसूत बनते हुए इस धर्मपरिभाषा से एकान्ततः बहिष्कृत हैं।

इस प्रकार समझने से यह ज्ञात होता है कि यदि ज्ञान को आधार बना कर विज्ञान में प्रवृत्त हुआ जाये तो विज्ञानजनित जितने लाभांश हैं उनमें तो हमारा प्रज्ञाक्षेत्र समन्वित हो जाएगा एवं विज्ञानजनित जो भी क्षणिकभाव मानव को मृत्युपाश की ओर आकर्षित करते रहते हैं, उनसे ज्ञानानुगृह के द्वारा हमारा सन्त्राण अर्थात् उद्धार होता रहेगा।

तात्पर्य यह निकला कि हम अपने सम्पूर्ण विज्ञानवाद को, नानात्ववाद को, भेदवाद को किसी एक अभिन्न तत्त्व के आधार पर प्रतिष्ठित करते हुए यदि विज्ञानवाद को सुव्यवस्थित कर देंगे तो वही विज्ञान जो कि ज्ञान सहयोग से वांछित अपने प्रातिस्विकरूप से मृत्युपाशबन्धन का कारण बना रहता हैहमारे लिए अमृतत्व प्राप्ति का अन्यतम साधन प्रमाणित हो जायेगा। और इसके बाद कुछ और शेष ही नहीं रह जाएगा, प्रमाणस्वरूप भगवान ने गीताशास्त्र में कहा है :

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥

गीता .

तेरे लिये मैं विज्ञान सहित ज्ञान सम्पूर्णता से कहूँगा, जिसको जानने के बाद फिर यहाँ (जगत् में) कुछ भी जानना बाकी नहीं रहेगा।

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
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