वेदाध्ययन से पूर्व जानने योग्य बातें

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एतान्यविदित्वा योऽधीतेऽनुब्रूते जपति जुहोति यजते याजयते तस्य ब्रह्म निर्वीर्यं यातयामं भवति..।
― अनुक्रमणी १/१

अर्थात, जो मनुष्य ऋषि, छन्द, देवता और विनियोग को जाने बिना वेद का अध्ययन, अध्यापन, जप, हवन, यजन, याजन आदि करते हैं उनका वेदाध्ययन निष्फल तथा दोषयुक्त होता है।

वेद के छः अङ्ग (वेदाङ्ग) :

“जिस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का यथार्थ ज्ञान देने के लिए वेद की प्रवृत्ति हुई है उसी प्रकार वेद का यथार्थ ज्ञान देने के लिए ‘वेदाङ्ग’ की प्रवृत्ति हुई है।”

वेदाङ्ग छः हैं :

१. शिक्षा
२. कल्प
३. व्याकरण
४. छन्द
५. ज्योतिष और
६. निरुक्त

महर्षि पाणिनि लिखते हैं :

छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते।
ज्यतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते॥
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्।
तस्मात्साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते॥

अर्थात, छन्द वेद के दोनों पांव हैं, कल्प को दोनों हाथ पढ़ा गया है, नक्षत्रों की गति नेत्र है, निरुक्त श्रोत्र कहलाता है, शिक्षा वेद का घ्राण (नाक) है, व्याकरण मुख माना गया है इसलिए वेद को अपने अङ्गों समेत पढ़ कर ही ब्रह्मलोक में महिमा होती है। अतः वेदाङ्ग को जानने वाला विद्वान ही वेदार्थ करने में समर्थ हो सकता है।

१. शिक्षा – स्वर, वर्ण आदि के उच्चारण का नियम बताने वाली विद्या ही शिक्षा है। उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित इन तीन स्वरों का उच्चारण किस प्रकार से हो, इसे बताना ही शिक्षा का प्रधान कार्य है।

स्वरों के अल्पभेद से बड़े अनर्थ हो जाते हैं जैसा कि हम इन्द्रशत्रु वृतान्त से जानते हैं जिसकी कथा इस प्रकार है :

शुक्राचार्य वृत्रासुर को इन्द्र-नाश के लिए यज्ञ करा रहे थे। उन्होंने मंत्र पढ़ा ‘इन्द्रशत्रुर्वर्धस्व स्वाहा’ अभिप्राय था, हे इन्द्र के नाशक! तुम उत्पन्न हो, बढ़ो। ऐसी दशा में तत्पुरुष समास (अंत का अक्षर उदात्त) होता लेकिन भ्रमवश गलती से उन्होंने पूर्व पद के अनुसार ही स्वर रख दिया जो बहुब्रीहि समास में था। फलतः अर्थ हुआ कि ‘इन्द्र शत्रु (नाशक) हैं जिसके’। इस तरह वृत्रासुर ही मारा गया।

२. कल्प – वैदिक कर्मकाण्ड का विस्तार देख कर उसे सूत्रबद्ध करने की इच्छा से ही कल्प का आविर्भाव हुआ जिन्हें हम कल्पसूत्र कहते हैं। अर्थ है – वेद में विहित कर्मों को क्रमशः व्यवस्थित कल्पना करने वाला शास्त्र। कल्पसूत्र तीन प्रकार के हैं –

क. श्रौत-सूत्र : श्रुति प्रतिपादित दर्श पूर्णमास आदि विविध यज्ञों का विधान।
ख. गृह्य-सूत्र : गृह्याग्नि में होने वाले यज्ञों, विवाह, श्राद्ध आदि संस्कारों का वर्णन।
ग. धर्मसूत्र : चारों वर्णों, आश्रमों के कर्तव्य का वर्णन।

३. व्याकरण : वैदिक साहित्य में आने वाले शब्दों का निर्माण, उनकी शुद्धता आदि का अध्ययन प्रकृति और प्रत्यय के संबंध द्वारा व्याकरण ही करता है। तैत्तिरीय- संहिता (६.४.७.३) में व्याकरण की उत्पत्ति की कथा बताई गई है। इन्द्र के द्वारा वाणी व्यकृत (प्रकृति-प्रत्यय-विच्छिन्न) हुई, अतः इन्द्र आदि-वैयाकरण हैं। व्याकरण के प्रथम परिपूर्ण आचार्य पाणिनि हुए जिन्होंने अष्टाध्यायी की रचना की। इनके अलावा कात्यायन (वार्तिक) तथा पतञ्जलि (महाभाष्य) भी व्याकरणाचार्य हुए। इन तीनों को मिलाकर ‘त्रिमुनि’-व्याकरण कहते हैं।

४. छन्द : वेद मंत्रों के उच्चारण के लिए छन्दों का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है क्योंकि वैदिक संहिताओं का अधिकांश भाग छन्दोबद्ध है। छन्दों के नाम तो हमें संहिताओं और ब्राह्मणों में ही मिलने लगते हैं किन्तु इसका प्रतिनिधि ग्रंथ है पिङ्गलाचार्य कृत ‘छन्दःसूत्र’ जिसके प्रथम चार अध्यायों में वैदिक छन्दों का वर्णन है। छन्द का अर्थ है ‘आवरण’ अर्थात, जो शब्दों का आवरण हो।

मुख्य वैदिक छन्द हैं :

१. गायत्री (८+८+८ अक्षर)
२. उष्णिक् (८+८+१२ अक्षर)
३. अनुष्टुप् (८ अक्षरों के ४ चरण)
४. बृहती (८+८+१२+८ अक्षर)
५. पंक्ति (८ अक्षरों के ५ पाद)
६. त्रिष्टुप् (११ अक्षरों के ४ पाद)
७. जगती (१२ अक्षरों के ४ पाद) आदि

सामान्य रूप से वेदों के लिए छन्द शब्द का प्रयोग होता रहा है जैसे पाणिनि ने अष्टाध्यायी में ‘बहुलं छन्दसि’ का प्रयोग किया है आगे इन छन्दों से ही लौकिक छन्दों का भी विकास हुआ।

५. ज्योतिष : यज्ञ के संपादन करने का विशिष्ट समय जानने के लिए ज्योतिष की नितान्त आवश्यकता है। दिन, रात, ऋतु, मास, नक्षत्र, वर्ष आदि का ज्ञान ज्योतिष के बिना नहीं हो सकता। यह जीवन से इतना जुड़ा हुआ है कि अनजाने ही हम दिन, रात जैसे ज्योतिष के ही शब्दों का प्रयोग करते हैं। बहुत ही कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि ज्योतिष का ही एक अङ्ग ‘गणित’ है। अङ्ग ही नहीं अपितु एक समय ज्योतिष और गणित समानार्थी शब्द रहे हैं।

आचार्य लगध मुनि के वेदाङ्गज्योतिष में आया है –

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तथा वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्ध्नि स्थितम्॥ – याजुष ज्याेतिषम् ४

अर्थात, जिस प्रकार मयूर की शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदाङ्गशास्त्रों मे गणित का स्थान सबसे उपर है।

६. निरुक्त : इसमें वैदिक शब्दों का निर्वचन और अर्थ जानने की प्रक्रिया बताई जाती है। सायणाचार्य ने ऋग्वेद भाष्य की भूमिका में कहा है “अर्थज्ञान के लिए स्वतंत्र रूप से जहां पदों का समूह कहा गया है, वही निरुक्त है।” (‘अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्’ – सायणाचार्य)
निरुक्त, निघण्टु नामक वैदिककोष का भाष्य है तथा महर्षि यास्क द्वारा लिखा गया है।

देवता और मंत्र :

√मन् = ‘चिंतन करना’ से मंत्र निष्पन्न है, सूक्त या ऋचा को मंत्र कहा गया है क्योंकि वह कवि के मनन का परिणाम था। प्रत्येक मंत्र का कोई न कोई देवता होता है जिसके विषय में वह मंत्र होता है। जब किसी मंत्र में एक से अधिक देवताओं का नाम आये तो उसमें जिसकी प्रधानता होती है उसे ही मंत्र-देवता मानते हैं। जैसे ऋग्वेद की ऋचाओं को महर्षि यास्क तीन भागों में बांटते हैं :

१. परोक्षकृत ऋचाएं जिनमें अन्यपुरुष का प्रयोग हो।
२. प्रत्यक्षकृत ऋचाएं जिनमें मध्यमपुरुष का प्रयोग हो।
३. आध्यात्मिक ऋचाएं जिनमें उत्तमपुरुष का प्रयोग हो अर्थात देवता स्वयं बोलते हों।

ऋचाओं के संबंध में भी यास्क ने लंबी सूची दी है ― स्तुति, कामना, शपथ, अभिशाप, अवस्था विशेष, निंदा, प्रसंशा आदि का वर्णन ऋचाओं के विषय हैं। यास्क ने ऋग्वेद १/१३९/११ के आधार पर देवताओं को भी तीन भागों में बांटा है :

१. पृथ्वी के देवता
२. अंतरिक्ष के देवता
३. स्वर्ग के देवता

मंत्रों के ‘ऋषि’ :

ऋषि  (√ऋष्-इन्, कित्— मंत्र द्रष्टा)

“ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः” अर्थात ऋषि मंत्रद्रष्टा हैं। ऋषि वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा हैं। महर्षि पाणिनी के अनुसार ‘ऋषि’ शब्द ‘ऋष्’ धातु (देखना) से उत्पन्न है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि ‘ऋषि:तु मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः’ अर्थात् ऋषि तो मंत्र के देखने वाले हैं न कि बनाने वाले। कुछ स्थानों पर ‘मंत्रकृत’ या ‘मंत्राकार’ शब्द ऋषि के लिए आता है जिससे यह आक्षेप लगाया जाता है कि ऋषि ही मंत्रों के बनाने वाले हैं लेकिन विद्वानों ने इसे नकारते हुए समझाया है कि यहां मत्रंकृत शब्द से निर्माण नहीं बल्कि साक्षात्कार करना है। जैसे ऐतरेय ब्राह्मण के उद्धरण के भाष्य में सायणाचार्य ने अपना अभिप्राय प्रकट किया है :

ऋषिरतीन्र्दियार्थद्रष्टा मन्त्रकृत। करोतिधातुस्तत्र दर्शनार्थः॥

ऋषि अर्थात अतीन्द्रिय अर्थों को देखने वाले ‘मन्त्रकृत’ है। ‘करोति’ धातु का यहां अर्थ ‘देखना’ है। मंत्र का दर्शन अर्थात मंत्रार्थ का ‘साक्षात्कार’ करने वाला ‘मन्त्रकृत’ है।

ऋचाओं के रचयिता ऋषि नहीं हैं बल्कि उन्होंने ऋचाओं का अपने मन में साक्षात्कार किया है, इसीकारण ऐसी ऋचाएं भी मिलतीं हैं जिनका साक्षात्कार एक से अधिक ऋषियों ने किया है।

वैदिक ऋचाएं परा वाणियां हैं जिसके रचयिता शब्द ब्रह्म या ईश्वर हैं, वैदिक ऋचाएं सर्वप्रथम अग्नि, वायु आदि के माध्यम से मन में बोध द्वारा ब्रह्मा तक पहुंची और उनके बाद इसी मानसिक बोध के माध्यम से मंत्रों के ऋषियों तक यह ऋचाएं आईं जिनका संकलन उन्होंने किया और संबधित सूक्त/ऋचा के ऋषि कहे गए।

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Manoj Kaushik
Manoj Kaushik
2 years ago

Nice explanation..Many thanks to writer..

Dhananjay Gangey
Dhananjay Gangey
2 years ago

बहुत जरूरी चीज का वर्णन किया।

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