आदित्याद्वेदा जायन्ते

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“आदित्याद्वेदा जायन्ते” अर्थात् आदित्य से वेद उत्पन्न होते हैं। ‘सूर्य ही प्रत्यक्ष ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं।’ – सूर्योपनिषत्

इससे सम्बन्धित एक कथा महाभारत में मिलती है, जिसमें ऋषि याज्ञवल्क्य ने शास्त्रोक्त विधि से व्रत का आचरण करके सूर्य भगवान से शुक्लयजुर्वेद के मन्त्र प्राप्त किए थे। ऋषि याज्ञवल्क्य ने भारी तपस्या करके तपाने वाले भगवान सूर्य की आराधना की। उनसे प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने कहा – “ब्रह्मर्षे! तुम्हारी जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर मांगो। वह अत्यंत दुर्लभ होने पर भी मैं तुम्हें दूंगा, क्योंकि मेरा मन तुम्हारी तपस्या से बहुत संतुष्ट है। मेरा कृपा-प्रसाद प्रायः दुर्लभ है”। 

ऋषि ने ऐसे यजुर्मंत्रों का ज्ञान माँगा, जो इससे पहले दूसरे किसी उपयोग में न आया हो। भगवान सूर्य ने ऋषि याज्ञवल्क्य को यजुर्वेद प्रदान किया। ऋषि ने अपना मुंह खोला और सरस्वती देवी उसमें प्रविष्ट हो गईं। ऐसा होते ही वे ताप से जलने लगे और जल में प्रवेश कर गए। महात्मा भास्कर की महिमा न जानने के कारण व सहनशक्ति न होने के कारण उन्हें विशेष कष्ट हुआ। भगवान सूर्य ने दो घड़ी तक ताप सहने के लिए कहा, फिर ताप अपने आप शीतल व शान्त हो गया। इस प्रकार उपनिषद सहित सम्पूर्ण वेद उनके भीतर प्रतिष्ठित हो गए। सूर्य भगवान ने कहा- “द्विजश्रेष्ठ! तुम सम्पूर्ण शतपथ ब्राह्मण का भी प्रणयन (सम्पादन) करोगे, इसके बाद तुम्हारी बुद्धि मोक्ष में स्थिर होगी”।

इसके बाद जब ब्रह्मर्षि ने घर आकर प्रसन्नतापूर्ण सरस्वती देवी का चिन्तन किया, स्वर और व्यंजन-वर्णों से विभूषित अत्यंत मंगलमयी सरस्वती देवी ॐकार को आगे कर उनके आगे प्रकट हुईं। इसके बाद उन्होंने अर्घ्य निवेदित कर, बड़े हर्ष के साथ रहस्य, संग्रह और परिशिष्टभाग सहित समस्त शतपथ का संकलन किया। इस प्रकार उन्होंने सूर्यदेव से शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं को प्राप्त किया और शतपथ की रचना भी की।

एक अन्य कथा वायुपुराण में मिलती है, जिसके अनुसार प्राचीन काल में ऋषियों ने सुमेरु पर्वत पर संपत्ति के लिए मंत्रणा की, जिसके अनुसार उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जो ब्राह्मण इस कार्य में सहयोग देने के लिए नहीं आएगा उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा। ऋषि वैशम्पायन वहाँ नहीं गए और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे सब मिलकर उनके लिए ब्रह्म हत्या का पाप भोगें। शिष्य याज्ञवल्क्य ने अकेले उस ब्रह्महत्या का अनुभव करने का विचार किया तथा अपनी तपस्या द्वारा पराक्रम संचय करने की बात कही।

गुरु वैशम्पायन ने इस पर क्रुद्ध होकर कहा – ‘जो कुछ मुझसे अध्ययन किया है वह सब लौटा दो’। ऐसा सुनकर ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने वमन द्वारा रुधिर से भीगे हुए समस्त यजुर्वेद को मूर्त रूप में गुरु के सामने प्रत्यर्पण कर दिया। इसके बाद उन्होंने ध्यान लगाकर सूर्य भगवान की आराधना की, उस समय आकाश मण्डल में जितने ऊपर जाकर सूर्य ब्रह्म प्रतिष्ठित थे, उतने ही ऊपर उठाकर वह समस्त यजुर्वेद सूर्य मण्डल में आश्रय लेने लगा। इससे संतुष्ट होकर मार्तण्ड सूर्यदेव ने सभी यजुर्वेद को वाजि (अश्वरूपधारी) परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य को प्रदान किया।

सायणाचार्य के अनुसार जिस वेद को योगीश्वर याज्ञवल्क्य ने योगशक्ति से मूर्त रूप में वमन कर दिया था वह अंगारों के रूप में था। गुरु वैशम्पायन ने अपने अन्य शिष्यों से उस यजुर्वेद को ग्रहण करने को कहा, जिसे तीतर के रूप में शिष्यों ग्रहण किया किन्तु उस अंगारे के कुछ अंश को ही ग्रहण किया। इस प्रकार उन्होंने उस यजुर्वेद का खण्डश: प्रवर्तन किया, यही कृष्ण यजुर्वेद कहलाया। जबकि याज्ञवल्क्य ने जिस सुव्यवस्थित प्रकरणों से युक्त यजुर्वेद को सूर्यदेव से प्राप्त किया था, उसे शुक्ल यजुर्वेद कहा गया।

सभी मन्वन्तरों में वेदों के शाखा विभाग एक समान स्मरण किए जाते हैं, प्रजापति की श्रुति नित्य है। देवताओं के अनित्य होने के कारण पुनः – पुनः मंत्रोत्पत्ति होती है, मन्वन्तरों के भेद से देवताओं के नाम का निश्चय होता है। अट्ठासी सहस्त्र वेदज्ञ ऋषि बार-बार संहिताओं का प्रवर्तन करते हैं, कहा जाता है प्रत्येक युग में वे पिता से पुत्र तथा पुत्र से पिता इस प्रकार परस्पर उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक द्वापर युग में श्रुतिज्ञाता ऋषियों द्वारा संहिताओं की रचना होती है, उन्हीं के गोत्रों में उत्पन्न होने वाले वेद की शाखाओं का पुनः-पुनः विभाजन करते हैं। इस प्रकार वेद की वे शाखाएं तथा उनके रचयितागण युगक्षय होने पर भी विद्यमान रहते हैं। अतीत एवं भविष्यतकालीन सभी मन्वन्तरों में इसी प्रकार वैदिक शाखाओं का प्रणयन होता है।

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