कार्तिक अमावस्या, दीपावली पर्व :
साँझ समय रघुबीर-पुरी की सोभा आजु बनी।
ललित दीपमालिका बिलोकहिं हित करि अवध धनी॥
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को यदि अमावस्या भी हो और उसमें स्वाती नक्षत्र का योग हो, तो उसी दिन दीपावली होती है। उस दिन से आरंभ करके तीन दिनों तक दीपोत्सव करना चाहिए। अमा रात्रि में कृत्रिम ज्योति, कृत्रिम प्रकाश एवं कृत्रिम ताप-अग्नि का समावेश किया गया है, ‘दीपक’ सौर इंद्रप्रकाश का प्रतिनिधित्व करता है जबकि ‘अग्निक्रीड़ा’ अग्निज्योति का। वातावरण में व्याप्त आसुरप्राण के निरोध के लिए ही कार्तिक मास में ‘आकाशदीप’ प्रज्ज्वलित किया जाता है।
“जो लोग यह प्रश्न करते हैं आतिशबाजी करना शास्त्र के अनुसार नहीं है, उन्हें ‘आनन्द रामायण’ पढ़ना चाहिए। इसमें अग्नि के संयोग से जलने वाले, तड़ित के समान प्रकाश वाले, आकाश में चमकने वाले नाना प्रकार की कृत्रिम ज्योति का वर्णन मिलता है।”
आज के समय में बिजली की झालरों और मोमबत्तियों से सजावट का चलन हो गया है, किन्तु जो वैज्ञानिक लाभ तेल वाले दीपक जलाने पर मिलता है, वह इस आधुनिक चलन में नहीं मिल सकता। धनतेरस से यमद्वितीया तक अर्थात पाँच दिन अधिक से अधिक पारंपरिक दीपों को प्रज्ज्वलित करना चाहिए और यथाशक्ति दीपदान करना चाहिए।
अमावस्या के प्रातःकाल स्नान करके भक्तिपूर्वक देवताओं और पितरों की पूजा और उन्हें प्रणाम करें। दही, दूध तथा घी से पार्वण श्राद्ध करें। इस दिन बालकों और रोगियों के अतिरिक्त किसी को दिन में भोजन नहीं करना चाहिए।
माता कमला अथवा महालक्ष्मी का स्वरूप कैसा है?
दीपावली पर्व का संबंध श्री सदाशिवविष्णु (नारायण) की अर्द्धांगिनी महामाया ‘कमला’ माता (लोक प्रचलित नाम लक्ष्मी) से है जिनका प्रादुर्भाव समुद्र मंथन से माना जाता है। यहाँ पर समुद्र मंथन आख्यान का क्या अभिप्राय है? बुद्धि-मन-शरीर का जहाँ समन्वय है, मैत्री है, वही लक्ष्मी का निवास है। अर्थात बौद्धिक श्रम (तप), मानसिक श्रम (कामना) एवं शारीरिक श्रम के तादात्म्य से मानव के अर्णवसमुद्र का मंथन होता है, और इसी से लक्ष्मी का आविर्भाव होता है। जिन मानवों के वाणी, नेत्र, अङ्ग-प्रत्यंग में लक्ष्मी व्यक्त रहती हैं, उन मानव श्रेष्ठ को ब्राह्मण ग्रंथों में ‘पुण्यलक्ष्मीक’ कहा गया है।
माँ कमला का स्वरूप सौर हिरण्यमण्डल है, शरीर की कान्ति सुवर्णसदृशा है, दिक्पाल रूप एरावत आदि चार श्वेत गज अपने शुंडदंडों से अमृतघटजल का अभिषेक करते रहते हैं, वरमुद्रा, कमलद्वय, अभयमुद्रा आदि नैदानिक आयुध हैं, चांद्रज्योतिपुंज उनके उज्ज्वल किरीट हैं, सौर हिरण्यमय पीतपट उनका परिधान है, वे सहस्त्रदल कमल आसन रूप भूपद्म पर विराजमान हैं, तथा त्रिलोक में व्याप्त हैं।
लक्ष्मीपूजन किस समय करें?
प्रदोषसमये लक्ष्मीं पूजनयित्त्वा यथाक्रमम्, के अनुसार रजनीमुखात्मक प्रदोषकाल में ही लक्ष्मीजी का ‘कमला स्वरूप’ विद्यमान रहता है, अतः यही समय सही है। रात्रि अथवा मध्यरात्रि में ज्योतिर्मयी पद्मासना कमला माता का सर्वथा अभाव रहता है। अर्धरात्रि में श्री विरोधी अलक्ष्मीरूपा तन्त्र-वर्णित लक्ष्मी उपास्य होती हैं, जिनका वाहन ‘उलूक’ है।
प्रदोष समय में पद्मासना श्रीमहालक्ष्मी, श्रीगणेश, अष्टलक्ष्मी, इन्द्र, महाकाली, महासरस्वती, दीपमालिका (दीपक), कुबेर आदि देवी-देवताओं का पूजन करे। भगवती महालक्ष्मी सभी संपत्तियों, सिद्धियों, निधियों की अधिष्ठात्री साक्षात नारायणी हैं। भगवान श्रीगणेश धनधान्यपति:, धान्य:, धनद:, ऐश्वर्यनिधि:, श्रीहृदय:, निधिप्रियपतिप्रिय: हैं, वे सभी अमंगलों और विघ्न के विनाशक हैं, सत् बुद्धि प्रदान करने वाले हैं, अतः दोनों के समवेत पूजन से सभी कल्याण-मंगल एवं आनंद प्राप्त होते हैं। श्री अथवा ऐश्वर्य माँ महाकाली-महासरस्वती-महालक्ष्मी के एक साथ अनुग्रह से ही प्राप्त होता है।
इसके बाद लक्ष्मीजी की स्तुति इस प्रकार करें,
त्वं ज्योतिः श्रीरवीन्द्वग्निविद्युत्सौवर्णतारकाः।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपज्योतिःस्थिते नमः॥
या लक्ष्मीर्दिवसे पुण्ये दीपावल्यां च भूतले।
गवां गोष्ठे तु कार्तिक्यां सा लक्ष्मीर्वरदा मम॥ – स्कन्दपुराण
इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात प्रदोषकाल में दीपदान करें, अपनी शक्ति के अनुसार देवमंदिर आदि में दीपकों का वृक्ष बनावे। चौराहे पर, श्मशान भूमि में, नदी के किनारे, पर्वत पर, घरों में, वृक्षों की जड़ों में, गोशालाओं में, चबूतरों पर तथा प्रत्येक गृह में दीपक जलाकर रखना चाहिए। पहले ब्राह्मणों और भूखे मनुष्यों को भोजन कराकर, पीछे स्वयं नूतन वस्त्र और आभूषण से विभूषित होकर भोजन करना चाहिए। अर्धरात्रि को स्वजनों, मित्रों के साथ नगर भ्रमण करे तथा रात्रि के शेष भाग में सूप और डमरू बजाकर दरिद्रा को निकाले।
लक्ष्मी – अलक्ष्मी :
चातुर्मास में वर्णित निऋति ही आगमशास्त्र की धूमावती हैं (वेदशास्त्र में निऋति के सहयोगी रुद्र, यम, वरुण आदि हैं), जिन्हें अलक्ष्मी, विधवा, आसुरी, ज्येष्ठा, भूखी माँ, अवरोहिणी नक्षत्र प्रणिता आदि भी कहा जाता है। इनके विपरीत कमला कनिष्ठा हैं, लक्ष्मी, सधवा, दिव्या तथा रोहिणी नक्षत्र प्रणिता हैं। धूमावती और कमला में प्रतिस्पर्धा है, एक सृष्टिस्वरूप विध्वंसिनी हैं तो दूसरी सृष्टिस्वरूप संरक्षिका हैं। भोगशक्तिहीनता, अस्मिता, अनैश्वर्य, दुख-विपत्ति, ह्रास-क्षय, निष्प्राण, ऊसर भूभाग, फलपुष्पविहीन वृक्ष, कुमति आदि धूमावती के निग्रह हैं। जबकि भोग ऐश्वर्य,सुख-संपत्ति, ऋद्धि-वृद्धि, उर्वर भूभाग, पुष्पफल सम्पन्न औषधियाँ, वनस्पतियाँ, सुमति आदि कमला के अनुग्रह हैं।
प्रश्न यह है कि यदि हम प्रतिवर्ष दीपावली में लक्ष्मीपूजन करते हैं, तो समाज में इतना दुख, दारिद्रय, अभाव, क्लेश, शक्तिहीनता, श्री-हीनता आदि क्यों है?
इसका उत्तर ब्रह्मवैवर्तपुराण व महाभारत में स्वयं महालक्ष्मी जी ने दिया है उसका सारांश इस प्रकार है, “जो घर-लिपे पुते स्वच्छ, निर्मल रहते हैं, जिस घर की गृहलक्ष्मी गृहिणी विचारों, आचार, वस्त्रों आदि से सत्वगुणा शुक्ला, उज्ज्वला, कुशला, कलहरहिता बनी रहती है, ऐसे सर्वगुण कर्मसमृद्धा गृहिणी जिस स्वच्छ घर में निवास करती है, जिस परिवार के व्यक्ति कलह से पृथक रहकर सुमतिपूर्वक निवास करते हैं, मैं वहीं निवास करती हूँ। जिस घर का गृहपति अपने पारिवारिक सदस्यों के प्रति समान विभागशील रहता है, सदा प्रिय-सत्य-मधुर वाणी ही बोलता है, वृद्धोपसेवी, प्रियदर्शी, मितभाषी, और आलस्य से रहित सदैव उत्साहपूर्वक कर्म में लगा रहता है, मानवमात्र के प्रति अनुराग रखता है, विनयशील होता है, दान देता है, मैं ऐसे घर में निवास करती हूँ। आमले के वृक्ष में, गोमय (गोबर) में, आचार शुद्ध मानव में, कमलपुष्प में, श्वेतवस्त्र में मेरा ही निवास रहता है। इसके विपरीत परिस्थितियाँ होने पर मैं उस गृह, स्त्री व पुरुष का परित्याग कर देती हूँ।”
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि धार्मिक दाम्पत्य जीवन ही गृह में लक्ष्मी की प्रतिष्ठा बनाता है, ऐसे गृह तथा परिवारों की समष्टि से समाज श्रीयुक्त होते हैं, तथा ऐसे समाज ही राष्ट्र को लक्ष्मी का स्थायी निकेतन बना सकते हैं। पूरे वर्ष आचारहीन रहकर बस एक दिन के पूजन से माँ कमला कैसे प्रसन्न हों, इसलिए हर ओर दुख-अभाव दिखता है। आज दीपावली जैसा राष्ट्रीय पर्व वैश्य वर्ग से संबंध रखने वाला भौतिक अर्थ प्रधान ‘दीवाली’ (दीवाला = लक्ष्मीविहीनता) बनता जा रहा है।
माँ कमला का आगमन और देवजागरण (कार्तिक शुक्ल एकादशी) :
जब तक सूर्य वृश्चिकराशि पर रहते हैं, तब तक चातुर्मास-व्रत का पालन किया जाना चाहिए, उसके बाद क्रमशः देवता जागते हैं। सूर्य के तुला राशि में स्थित होने पर विष्णु भगवान जाग जाते हैं।
पूर्व लेख में देवसुषुप्तिकाल (चातुर्मास) का वैज्ञानिक विवेचन किया गया है, अब देवजागरण का दीपावली से संबंध देखते हैं। चातुर्मास में सम्पूर्ण देवकर्म बंद हो जाते हैं, कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है। किन्तु कार्तिक मास आरंभ होते ही देवजागरण संबंधी उत्सव आरंभ हो जाते हैं। देवजागरण का अर्थ है सौर पार्थिव इन्द्र-अग्नि देवप्राणों का पुनः प्रतिष्ठित होना और माँ लक्ष्मी का पद्मालय से पुनः पद्मासना बनना (देवसुषुप्तिकाल में लक्ष्मीजी भूपद्म रूपी पद्मासन को छोड़कर भगवान विष्णु के स्थान अर्थात पद्मालय में चली जाती हैं)। इस प्रकार पार्थिव, सौर तथा चन्द्र अग्नि पुनः प्रबुद्ध होते जाते हैं तथा माँ लक्ष्मी पृथ्वी में प्रतिष्ठित होती हैं, इसलिए कार्तिकशुक्ल एकादशी ‘प्रबोधिनी’ नाम से प्रसिद्ध है।
कार्तिकमास में प्रदोषस्नान, दीपदान, आकाशीय दीपदान, व्रत आदि सभी महालक्ष्मी महोत्सव के अंग हैं और ये सभी कर्तव्य विशेषरूप से गृहलक्ष्मियों के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। पद्मपुराण के अनुसार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा में प्रबोधकाल (ब्राह्ममुहूर्त) में स्त्रियों के द्वारा लक्ष्मीजी को जगाया जाता है, और कुछ स्थानों पर कार्तिक अमावस्या में सायंकाल दीपदान के पश्चात लक्ष्मी जी को जगाने का प्रावधान मिलता है। अर्थात जिस प्रकार गृहलक्ष्मी पति से पूर्व जाग जाती है, उसी प्रकार माँ लक्ष्मी भी विष्णुजी के जागने से १२ दिन पूर्व ही जगायी जाती हैं। जो इस प्रकार लक्ष्मीजी को जगाकर कर उनका पूजन करता है, उसे धन-संपत्ति की कमी नहीं होती। यह सभी कर्म माँ कमला के आगमन (जागरण) की प्रतिष्ठा बनते हैं, और माँ कमला का जागरण ही देवजागरण का निमित्त बनता है।
कुमुदस्य च मासस्य भवेद्या द्वादशी शुभा। – वामन पुराण
“कार्तिक मास के शुक्लपक्ष (संस्कृत में कार्तिक मास को कुमुद मास, तथा कार्तिक पूर्णिमा को कौमुदी भी कहा जाता है क्योंकि इस समय कुमुद, कमलों की सुरभि सर्वत्र फैलती है।) की द्वादशी तिथि मुझे अत्यंत प्रिय (शुभा) है।” जो भक्त इस दिन लोकनाथ नारायण की पूजा करते हैं वे कल्पपर्यंत माँ लक्ष्मी के कृपा पात्र रहते हैं। भगवान नारायण की भक्ति के बिना उनकी उर:स्थली माँ लक्ष्मी की कृपा कैसे प्राप्त हो!
कौमुद्यां च प्रबुद्धोऽस्मि वैशाख्यां च समुद्धृतः। – वामन पुराण
भगवान विष्णु के लिए बारहों महीनों के केवल दो द्वादशी तिथि सबसे अधिक प्रिय है और सबसे अधिक श्रेष्ठ मानी जाती हैं, कार्तिक द्वादशी तथा वैशाख द्वादशी। क्योंकि कार्तिक द्वादशी के दिन भगवान जागते हैं और वैशाख द्वादशी में सर्वशक्तिसम्पन्न हो जाते हैं।
बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख