दीपावली, दीपाली अथवा दीवाली (भाग-१)

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वास्तव में शब्द है – दीपाली। निर्वचनार्थ है – दीपों की आली (आलि) अर्थात श्रेणी अथवा पंक्ति। जिस पर्व में दीपों की पक्तियाँ प्रज्ज्वलित रहती हैं, वह ‘दीपाली’ कहलाया। इसी को दीपावली अथवा दीवाली नाम से भी कहा गया।

आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक वर्षा का समय है। इन चार महीनों में पृथ्वी के अग्निप्राण तथा सौर इन्द्रप्राण दोनों अपोमय रहते हैं, इसलिए चातुर्मास में आसुर-प्राण प्रधान होने से देवप्राण निर्बल हो जाते हैं। अतः यह समय ‘देवसुषुप्ति काल’ भी कहलाता है, इस समय देवता सोते हैं (श्रीहरि योगनिद्रा में प्रवृत्त रहते हैं)।

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्। – पद्मपुराण

पुराणों के अनुसार – जब आषाढ़ी पूर्णिमा बीत जाती है एवं उत्तरायण चलता रहता (सूर्य के मिथुनराशि में चले जाने पर एकादशी तिथि) है, तब लक्ष्मीपति भगवान विष्णु शेषशय्या पर सो जाते हैं। विष्णुजी के सोने पर त्रयोदशी तिथि में कामदेव, चतुर्दशी को यक्षलोग, पूर्णमासी को उमानाथ शंकर सो जाते हैं। विष्णुजी के शयन के बाद ही जब सूर्य कर्कराशि में गमन करते हैं तब देवताओं के लिए रात्रिस्वरुप दक्षिणायन का आरंभ हो जाता है। ब्रह्मा जी श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को, विश्वकर्मा द्वितीया को, पार्वती जी तृतीया को, गणेशजी चतुर्थी को, धर्मराज पञ्चमी को, कार्तिकेय षष्ठी को, सूर्यभगवान सप्तमी को, दुर्गादेवी अष्टमी को, लक्ष्मी जी नवमी को, श्रेष्ठ सर्प दशमी को और साध्यगण कृष्णपक्ष की एकादशी को सो जाते हैं। देवों के सो जाने पर वर्षाकाल का आगमन हो जाता है।

इन चार महीनों में कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता है, क्योंकि इसमें निऋति (“घोरा: पाप्मा वै निऋति:”) का विशेष प्रभुत्व रहता है। आगम शास्त्रों में यही निऋति अलक्ष्मी धूमावती के नाम से प्रसिद्ध हैं, जिनके सहयोगी यम और वरुण हैं।

कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दीपावली) में तुला का सूर्य रहता है, तुलाराशिभुक्त सूर्य नीच का सूर्य कहलाता है, इस दिन सौर प्राण मलीमस रहता है। अमा के कारण चान्द्रज्योति का भी अभाव रहता है, चार माह के जलवर्षण के कारण पार्थिव अग्नि भी निर्बल रहती है।

सूर्य, चन्द्र और अग्नि (पार्थिव) तीनों की ज्योतियाँ अभिभूत (पराजित अथवा निर्बल) रहती हैं, इनसे विकसित होने वाली आत्मज्योति वीर्यहीन हो जाती है।

बृहदारण्यकोपनिषद (४.३) में भी दिया गया है –

पुरुष किस ज्योति वाला है?

आदित्य ज्योति वाला।

आदित्य के अस्त होने पर पुरुष किस ज्योति वाला है?

चान्द्र ज्योति वाला।

चन्द्रमा के अस्त होने पर पुरुष किस ज्योति वाला है?

अग्नि ही इसकी ज्योति है।

अर्थात यदि तीनों ही ज्योतियाँ अनुपस्थित हो जाएँ तो पुरुष की आत्मज्योति भी कमजोर होने लगती है। इस तमोभाव के निराकरण हेतु और माँ कमला (लोक में लक्ष्मी माता अथवा महालक्ष्मी माता) के आगमन के उपलक्ष्य में दीपमाला तथा अग्निक्रीड़ा का विधान किया गया है। दशमहाविद्या की दशमी विद्या कमला के सहयोगी देव इन्द्र तथा कुबेर हैं। अतएव दीपावली महोत्सव संबंधी तिथिपंचक में कमला माता के साथ ही इन्द्र और कुबेर का भी पूजन निहित है।

ऐसा नहीं है कि दीप प्रज्ज्वलित करने का नियम मात्र कार्तिक कृष्ण अमावस्या के लिए है, अग्निपुराण के अनुसार चातुर्मास में दीपदान करने वाला विष्णुलोक को और कार्तिक मास में दीपदान करने वाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। विदर्भराजकुमारी ललिता कथा के अनुसार कार्तिकमास में अनायास ही बुझते दीपक की बत्ती बढ़ा देने से एक चुहिया अगले जन्म में राजकुमारी ललिता के रूप में जन्म लेती है और राजा चारुधर्म की धर्मपत्नी बनती है।

दीपदानव्रतं वक्ष्ये भुक्तिमुक्तिप्रदायकं। (अग्निपुराण २००.१)

दीपलक्षण:

वामावर्तो मलिनकिरणः सस्फुलिङ्गोऽल्पमूर्तिः
क्षिप्रं नाशं व्रजति विमलस्नेहवर्त्यन्वितोऽपि।
दीपः पापं कथयति फलं शब्दवान् वेपनश्च
व्याकीर्णार्चिर्विशलभमरुद्यश्च नाशं प्रयाति॥
– बृहतसंहिता

जिस दीप की शिखा वामावर्त होकर भ्रमण करती हो, मलिन किरण वाली हो, जिनमें चिनगारियाँ निकलती हों, छोटी शिखा से युत हो, निर्मल तेल और बत्ती से युत होने पर भी शीघ्र बुझ जाती हो, शब्दयुत, कम्पित, बिखरे किरणों वाली हो, बिना शलभ के गिरे या बिना वायु के चले बुझ जाती हो – ऐसा दीपक पापफल देने वाला कहा गया है।

दीपः संहतमूर्तिरायततनुर्निर्वेपनो दीप्तिमान्
निःशब्दो रुचिरः प्रदक्षिणगतिर्वैदूर्यहेमद्युतिः।
लक्ष्मी क्षिप्रमभिव्यनक्ति सुचिरं यश्चोद्यतं दीप्यते
शेषं लक्षणमग्निलक्षणसमं योज्यं यथायुक्तितः॥

मिली हुई शिखा वाला, दीर्घ मूर्ति वाला, कम्पनरहित, कान्तियुक्त, शब्दरहित, प्रदक्षिणक्रम से घूमती हुई ज्वाला वाला, वैदूर्य मणि या सुवर्ण के समान ज्योति वाला और बहुत काल तक लगातार प्रज्ज्वलित होने वाला दीप शीघ्र ही प्रभूत लक्ष्मी के आगमन को सूचित करता है। शेष लक्षणों को अग्नि के समान ही यहाँ पर भी समझना चाहिये।

कार्तिक स्नान महत्त्व:

पद्मपुराण के अनुसार सागर पुत्र शङ्खासुर ने जब वेदों का अपहरण करके उसे जल में छिपा दिया, उस समय देवताओं ने श्रीविष्णु को प्रबोधिनी एकादशी में आराधना द्वारा जगाया। उस समय भगवान विष्णु ने इस प्रकार कहा – “शङ्खासुर द्वारा हरे गए सम्पूर्ण वेद जल में स्थित हैं, उसका वध करके मैं वेदों को लेकर आऊँगा। आज से सदा ही प्रतिवर्ष कार्तिक मास में मन्त्र, बीज और यज्ञों से युक्त वेद जल में विश्राम करेंगे, आज से मैं भी इस महीने जल के भीतर निवास करूँगा। इस समय जो श्रेष्ठ द्विज प्रातः स्नान करते हैं, वे निश्चय ही सम्पूर्ण यज्ञों का अवभृथस्नान कर चुके।”

कार्तिक कृष्ण द्वादशी उत्सव, गोवत्सद्वादशी व्रत (मतान्तर से शुक्ल पक्ष):

भविष्य पुराण के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि में ब्रह्मवादी ऋषियों ने सवत्सा गोरूपधारिणी उमादेवी की नंदिनी नाम से भक्तिपूर्वक पूजा की थी, इसीलिए इस दिन गोवत्सद्वादशी व्रत किया जाता है।

इस दिन बछड़े सहित गौ की आकृति बनाकर सुगंधित चंदन आदि के द्वारा तथा पुष्पमालाओं से इस मन्त्र से पूजन करे।

ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नमः स्वाहा॥
– ऋग्वेद

इस प्रकार पूजा कर गौ को ग्रास प्रदान करे और निम्नलिखित मन्त्र से गौ का स्पर्श करते हुए प्रार्थना एवं क्षमा-याचना करे –

ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनंदिनि।
मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरु नंदिनि

फिर ताम्रपत्र में पुष्प, अक्षत और तिल रखकर उन सबके द्वारा विधिपूर्वक अर्घ्य दान करे। इस दिन भगवान दामोदर की पूजा तथा ब्राह्मण भोज का विधान है। इस दिन दुग्ध, दधि, घृत आदि से बने भोजन, तवे पर पकाया भोजन तथा तेल में तले हुए पकवान नहीं खाने चाहिए।

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी उत्सव, धनतेरस:

कार्तिक के कृष्णपक्ष में त्रयोदशी के प्रदोषकाल में यमराज के लिए दीप और नैवेद्य समर्पित करे तो अपमृत्यु (अकालमृत्यु अथवा दुर्मरण) का नाश होता है।

मृत्युना पाशदंडाभ्यां कालेन च मया सह।
त्रयोदश्यां दीपदानात्सूर्यजः प्रीयतामिति॥
– (स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड-कार्तिकमास-माहात्म्य)

‘त्रयोदशी को दीपदान करने से मृत्यु, पाश, दण्ड, काल और लक्ष्मी के साथ सूर्यनंदन यम प्रसन्न हों।’ इस मन्त्र से जो अपने द्वार पर उत्सव में दीपदान करता है, उसे अपमृत्यु का भय नहीं होता।

तिथिपंचक (त्रयोदशी-चतुर्दशी-अमा-प्रतिपत्-द्वितीया) लक्ष्मी-अलक्ष्मी प्रवर्तक देवताओं का संक्रमण काल माना जाता है। अमावस्या तिथि से सम्बन्ध रखने वाली माँ कमला के आगमन की दशा त्रयोदशी से ही आरंभ हो जाती है, इसलिए यह तिथि धनत्रयोदशी (धनतेरस) के नाम से प्रसिद्ध है। क्योंकि माँ कमला का आगमन त्रयोदशी से माना जाता है, इसलिए पूरे गृह की सफाई करके सारे कूड़े-कर्कट (जिसे निऋति प्रधान माना गया है) को बाहर निकालकर उस पर दीप प्रज्ज्वलित कर दिया जाता है। इस प्रकार जाती हुई निऋति (अलक्ष्मी अथवा दरिद्रा) देवी का सम्मान हो जाता है और साथ ही ज्योतिरुपा लक्ष्मीजी के आगमन का भी सम्मान होता है।

घर से निकलते हुए निऋति-यम-वरुण का सत्कार तथा घर में आते हुए कमला-कुबेर-इन्द्र का सत्कार इन दोनों कर्म हेतु किये गए दीपदान को ‘यमदीपदान’ कहा गया है।

कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी उत्सव, नरकचतुर्दशी, रूपचतुर्दशी, छोटी दीपावली:

दीपावली के पहले की चतुर्दशी को तेलमात्र में लक्ष्मी और जलमात्र में गंगा निवास करती हैं। इस दिन तैलमर्दन (तेल एन्द्र पदार्थ माना गया है), स्वच्छ जल स्नान, दीप प्रज्ज्वलन प्रमुख आचार माने गए हैं। वरुण-निऋति-यम के सत्कार के कारण यह चतुर्दशी नरकचौदस कहलाई, वहीं इन्द्र-कमला-कुबेर के आगमन से यही तिथि रूपचौदस के नाम से प्रसिद्ध है। दीपों के प्रज्ज्वलन से ही यह तिथि छोटी दीपावली के नाम से भी जानी जाती है।

इस दिन नरकभय का नाश करने के लिए प्रातः स्नान के बीच में अपामार्ग (चिच्चिड़ा) को तीन बार मन्त्र पढ़कर तीन ही बार मस्तक पर घुमाना चाहिए। मन्त्र इस प्रकार है-

सीतालोष्टसमायुक्त सकंटकदलान्वित।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनः पुनः॥

‘जोते हुए खेत के ढेले से युक्त और कंटक विशिष्ट पत्तों से सुशोभित अपामार्ग! तुम बार बार घुमाये जाने पर मेरे पापों को हर लो।’

स्नान करके भीगे वस्त्र से मृत्यु के पुत्ररूप दो कुत्तों को दीपदान दे, उस समय यह मन्त्र पढे;

शुनकौ श्यामशबलौ भ्रातरौ यमसेवकौ।
तुष्टौ स्यातां चतुर्दश्यां दीपदानेन मृत्युजौ॥

फिर स्नानांगतर्पण करने के बाद चौदह यमों का तर्पण करे, जिनके नाम-मन्त्र इस प्रकार हैं;

यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चाऽन्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च॥
औदुंबराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय ते नमः

ये चौदह नाम-मन्त्र हैं, प्रत्येक के अंत में नमः पद जोड़कर बोले और एक एक मन्त्र को तीन-तीन बार कहकर तिलमिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ दे। जिसके पिता जीवित हों, वे भी यम और भीष्म के लिए तर्पण कर सकता है।

दैत्यराज बलि को भगवान विष्णु ने चतुर्दशी से लेकर तीन दिनों तक का राज्य दिया है, इसलिए तीन दिन यहाँ महोत्सव मनाना चाहिए। चतुर्दशी की रात्रि में देवी महारात्रि का प्रादुर्भाव हुआ है, अतः शक्ति पूजा परायण पुरुषों को चतुर्दशी का उत्सव अवश्य करना चाहिए।

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