वसुधैवकुटुम्बकम्

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“वसुधैवकुटुम्बकम्” हमारे सनातन धर्म की परम्परा में निहित है। यह सम्पूर्ण धरा हमारा परिवार है। किन्तु यह अधूरा भाव है, अधूरे अर्थ को जानने से भ्रम होता है, इसका वास्तविक अर्थ समझना आवश्यक है। यह महोपनिषद् के छठे अध्याय का ७१वां मंत्र है। पूरा इस प्रकार है – “अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम्॥” अर्थात् यह मेरा और तेरा, इस तरह की गणना सञ्कुचित मन वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो सम्पूर्ण धरती ही परिवार है। 

महोपनिषद् के तीसरे अध्याय से कथा प्रारम्भ होती है जब ऋभुमुनि के पुत्र निदाघमुनि अपने पिता की आज्ञा से तीर्थयात्रा से वापस लौटते हैं। साढ़े तीन करोड़ तीर्थ में स्नान करने के पुण्य से उन्हें जगत से वैराग्य होता है। कहते हैं – यह संसार नष्ट होने के लिए ही उत्पन्न होता है। सब कुछ मोह और माया है ऐसे में कुछ भी करना व्यर्थ ही जान पड़ता है। वे अपने पिता ऋभु से कहते हैं कि आप तत्व ज्ञान के द्वारा मुझे शीघ्र ही बोध प्रदान करें अन्यथा में मौन धारण कर लूंगा।

इस पर ऋभुमुनि उन्हें अद्वैत का उपदेश देता हैं। कहते हैं जगत में जो कुछ है सो ब्रह्म ही है, उसीसे ओत–प्रोत है। वह ब्रह्म मैं हूं – इस प्रकार का निश्चय मोक्ष का कारक है। मैं ब्रह्म नहीं हूं, इस संकल्प के सुदृढ़ होने से मन बन्धन में पड़ता हैं तथा ’सबकुछ ब्रह्म ही है’ इस संकल्प के सुदृढ़ होने पर मन मुक्त हो जाता है। इस प्रकार चौथे अध्याय से अद्वैत का उपदेश करते हुए छठे अध्याय में कहते हैं कि इस प्रकार के उदारपूर्ण विचार से यह सम्पूर्ण धरा ही अपना कुटुम्ब होता है।

इसी बात को विवेक चूड़ामणि में भगवान आद्यशंकर बताते हैं – ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या है; “ब्रह्मा से लेकर स्तम्ब (तृण) पर्यंत समस्त उपाधियाँ मिथ्या हैं, आप ही ब्रह्मा हैं, आप ही विष्णु हैं, आप ही इंद्र हैं और आप ही यह सारा विश्व हैं। आप से भिन्न और कुछ भी नहीं है।”  – और इस प्रकार यह सम्पूर्ण धरा अपना कुटुम्ब है, यही इस वाक्य का सार है।

“वसुधैवकुटुम्बकम्” – यह सम्पूर्ण धरा हमारा परिवार है। मनुष्य मात्र ही नहीं अपितु सम्पूर्ण प्राणी हमारे इस परिवार के सदस्य हैं। वेद कहता है “मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे – यजुर्वेद ३६.१८” अर्थात् हम सबको मित्र की स्नेहशील दृष्टि से देखें। यहां वेद मनुष्यमात्र की सीमा से आगे निकल कर उपदेश देते हैं कि प्रेम का अधिकार मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है वरन सभी प्राणियों के लिए है।

किन्तु उनसे यह प्रेम उनको मूल रूप और अवस्था में रखते हुए है। उदाहरण के लिए हम जानवरों से प्रेम करें, इसका भाव यह है कि यदि जंगली जीव हैं तो उन्हें जंगल में रहने दें, जंगलों को नुकसान न पहुँचाएं। यह नहीं की शेर, चीते आदि जानवरों को अपने घर में रखें, ऐसा करना प्रेम नहीं बल्कि मूर्खता है। गाय, कुत्ते आदि पालतू जानवरों को भी उचित स्थान पर रखें और उनके भोजन–पानी आदि की समयानुसार उचित व्यवस्था करें। घर में अपने बिस्तर या सोफे पर उन्हें स्थान देना कोरी भावुकता और मूर्खता से अधिक कुछ नहीं है।

पेड़–पौधों से प्रेम करने का अर्थ है कि उन्हें उचित भूमि पर स्थान दें, यह नहीं कि गमले में बोनसाई बना कर घर की शोभा बढ़ाएं।

पेड़, पौधे अथवा प्राणी ही क्यों मनुष्यों और यहां तक कि भगवान के लिए भी इसी प्रकार के नियम हैं। घर में भगवान ठाकुरजी, लड्डू गोपाल आदि रूपों में प्रतिष्ठित हैं तो नियम और शुचिता का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। उनके नित्य स्नान–दान, भोग आदि का प्रबन्ध करना आवश्यक है। घर में सात्विक भोजन और व्यवहार, परम आवश्यक है। आज कल गोपालजी को साथ–साथ घुमाने और कुछ भी भोग लगाने का प्रचलन जो चला है, उससे कोसो दूर रहें। देव विग्रह को किसी अवस्था अथवा समय में स्पर्श करने से “स्पर्शदोष” लगता है, ऐसा न करें।

भूखे को भोजन कराना, प्यासे को पानी पिलाना और अभावग्रस्त की मदद करना बड़े धर्म के कार्य हैं, किन्तु सुपात्र की पहचान आवश्यक है। शास्त्रों के अनुसार विशेषरूप से कलियुग में दान देने से बड़ा धर्म और पुण्य कुछ भी नहीं है। छान्दोग्योपनिषद २.२३.१ में कहा गया है – “त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति…” अर्थात् धर्म के तीन स्कन्ध हैं – यज्ञ, स्वाध्याय और दान। जिनमें दान को भागवत महापुराण में कलियुग के लिए धर्म का साक्षात साधन बताया गया है।

किन्तु दान भी सुपात्र को ही अन्यथा पुण्य के स्थान पर दोष भी लग सकता है, कुपात्र जिसकी आप मदद करते हैं वही आपको या आपके परिवार को नुकसान भी पहुंचा सकता है यहां तक कि आपके जीवन पर भी भारी पड़ सकता है।

मनुष्यों के प्रति “वसुधैवकुटुम्बकम्” का समयानुकूल भाव यह है कि यह संसार हमारा कुटुम्ब तो है किन्तु उनके प्रति हमारा व्यवहार उनकी पात्रता के अनुसार होना चाहिए। उदाहरण के लिए आतंकवादी अथवा आतंक का समर्थन करने वाले मनुष्य ही हैं, उन्हें चोट भी लगती है और कष्ट भी होता है किन्तु उनकी मदद करने से परिवार का और समाज का अहित होता है।

साधु नदी के जल से बिच्छू को निकलता है और बिच्छू उसे डंक मारता है – यह दोनों का अपना स्वभाव है किन्तु यदि वह बिच्छू किनारे पर बैठे किसी अन्य व्यक्ति को काट सकता हो तो वही साधु उसे निकालने का प्रयास नहीं करेगा। स्वयं कष्ट सहते हुए दूसरे की मदद करना साधु का स्वभाव है, महानता है किन्तु इससे किसी और को भी कष्ट पहुँचे यह दोष है, मूर्खता है। ऐसी मूर्खता करने से बचना चाहिए।

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