महाभारत शांतिपर्व अध्याय ६०/७-८ के अनुसार “किसी पर क्रोध न करना, सत्य बोलना, धन को बांटकर भोगना, क्षमाभाव रखना, अपनी ही पत्नी के गर्भ से संतान पैदा करना, बाहर-भीतर से पवित्र रहना, किसी से द्रोह न करना, सरल भाव रखना और भरण पोषण के योग्य व्यक्तियों का पालन करना – ये नौ बातें सभी वर्गों के लिए उपयोगी धर्म है।”
ब्राह्मण धर्म :
महाभारत के अनुसार ब्राह्मण का कार्य वेदों के अध्ययन व अध्यापन का है, वह कोई दूसरा कार्य न करे। सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव रखने के कारण ब्राह्मण ‘मैत्र’ कहलाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता १८/४२ के अनुसार :
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
अर्थात, मन का निग्रह करना इन्द्रियों को वश में करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदि में सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना; यज्ञविधि को अनुभव में लाना; और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना — ये सब-के-सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
इस श्लोक के एक शब्द “क्षान्तिः” की व्याख्या में स्वामी रामसुख दास महाराज ‘गीता- साधकसंजीवनी’ में लिखते हैं: कोई कितना ही अपमान करे, निन्दा करे, दुःख दे और अपने में उस को दण्ड देने की योग्यता, बल और अधिकार भी हो, फिर भी उसको दण्ड न देकर उसके क्षमा माँगे बिना ही उसको प्रसन्नता पूर्वक क्षमा कर देने का नाम ‘क्षान्ति’ है।
क्षत्रिय धर्म :
महाभारत के अनुसार क्षत्रिय दान तो करे किन्तु किसी से याचना न करे। स्वयं यज्ञ करे किन्तु पुरोहित बन कर दूसरों का यज्ञ न करावे। वह अध्ययन करे किन्तु अध्यापक न बने। प्रजाजनों का सब प्रकार से पालन करे। लुटेरों, डाकुओं का वध करने के लिए सदा तैयार रहे। रणभूमि में पराक्रम प्रकट करे। यह सभी क्षत्रिय धर्म है।
क्षत्रिय का धर्म रक्षा करना है, प्रजा अर्थात सभी वर्णों के साथ – साथ ‘गौ’ की रक्षा करना क्षत्रिय का परम् धर्म है।
चक्रवर्ती राजा दिलीप ने गोरक्षा के लिए अपना युवा शरीर ही सिंह (शेर) के लिए अर्पण कर दिया था और कहा “क्षत से त्राण करने के कारण ही ‘क्षत्रिय’ शब्द संसार में रूढ़ हुआ है। यदि मैं नंदिनी गौ की रक्षा न कर सका तो क्षत्र-शब्दार्थ के विपरीत आचरण के कारण राज्य एवं प्राणियों की निंदा से मलीमस प्राणों से मुझे कोई प्रयोजन नहीं।”
श्रीमद्भगवद्गीता १८/४३ के अनुसार :
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
अर्थात, शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करने का भाव — ये सबके सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैश्य धर्म :
वैश्य उत्पादक वर्ग है। महाभारत के अनुसार दान, अध्ययन, यज्ञ और पवित्रतापूर्वक धन का संग्रह, ये वैश्य के कर्म हैं। वैश्य सदा उद्योगशील रह कर पिता के समान पशुपालन और कृषि पालन करे, इन कर्मों के सिवा कोई भी अन्य कर्म उसके लिए विपरीत कर्म होगा।
श्रीमद्भगवद्गीता १८/४४ के अनुसार “कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।” अर्थात, खेती करना, गायों की रक्षा करना और शुद्ध व्यापार करना — ये सब-के-सब वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं।
शूद्र धर्म :
यहां सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य विद्या अध्ययन के कारण ‘द्विज’ कहे जाते हैं अर्थात विद्या के कारण उनका पुनर्जन्म माना गया है और शूद्र के विद्या अध्ययन नहीं करने के कारण ही वे ‘एक जाति’ कहे गए हैं।
अब चूंकि शूद्र विद्याध्ययन नहीं करते इसलिए इनका कर्म ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करने का होता है। शूद्र को किसी भी प्रकार से धन संग्रह नहीं करना चाहिए। शूद्र के सभी प्रकार के भरण – पोषण का दायित्व तीनों वर्णों का है क्योकि यह भरण – पोषण करने योग्य कहा गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता १८/४४ के अनुसार “परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।” अर्थात, चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।
यहां इस श्लोक में “परिचर्यात्मक” शब्द पर अवश्य ध्यान देना चाहिए, इसका अर्थ है चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और स्वयं शूद्र) की सेवा करना। और यही समझने वाली बात है। यहां सेवा से तात्पर्य पाश्चात्य की तरह दासता की प्रथा से नहीं है।
आधुनकि मानव समाज में जितनी भी प्रथाओं का अस्तित्व रहा है उनमें सबसे भयावह दासता की प्रथा है। मनुष्य के हाथों मनुष्य का ही बड़े पैमाने पर उत्पीड़न इस प्रथा के अंर्तगत हुआ।
वर्ण व्यवस्था ने कब जाति व्यवस्था का रूप लिया, इसे ठीक – ठीक बताना तो एक शोध का विषय है किन्तु इतना अवश्य ज्ञात है कि “जाति” शब्द वैदिक नहीं है, संभवतः वैदिक शब्द “ज्ञाति” से इसका निर्माण हुआ है। ‘एक ही गोत्र में उत्पन्न मनुष्य’ के लिए ज्ञाति शब्द का प्रयोग किया जाता है। यही ज्ञाति कालान्तर में जन्म आधारित व्यवस्था के रूप में जाति नाम से सामने आई, हालाँकि तब भी समाज में वर्ण व्यवस्था से बहुत अलग यह व्यवस्था तब तक नहीं रही जब तक भारत गुलाम न हुआ।
विकृति तब अधिक आई जब अग्रेजों ने इसे लिखित संवैधानिक रूप दिया। भारत में १९०१ ईस्वी में रिसले ने मैक्समूलर के आर्यन अफवाह से निर्मित तथाकथित सवर्णों को ऊंची जाति घोषित किया। बाकी अन्य समुदाय को नीची जाति का। जातिगत जनगणना के आधार पर पहली बार २३७८ जाति बना कर भारत को २३७८ टुकड़े में विभाजित कर दिया गया। दलित शब्द गढ़ा गया और शूद्रों को दलित कहते हुए पाश्चात्य “दासता की प्रथा” के साथ जोड़ दिया गया।
जबकि वास्तविकता यह है कि शूद्रों का वैदिक वर्ण व्यवस्था में अन्य वर्णों की तरह अति महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद अध्याय ३० में जिन ६४ प्रकार की रोजगारपरक शिक्षाओं का उल्लेख है, उनमें से अधिकांश शूद्र वर्ग के लिए ही हैं। सेवक का तात्पर्य भी यहीं से समझ आता है।
ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों द्वारा किये गए यज्ञ में सेवाकार्य शूद्र का ही होता है। वैश्य के गोपालन, कृषि कार्य में भी शूद्र ही सेवक बनते हैं। वस्तुतः यहां सेवक शब्द से तात्पर्य ‘मदद’ का है, भरण-पोषण का है। बृहदारण्यक उपनिषद में आया है कि भरण-पोषण करने के कारण ही ‘पृथ्वी’ शुद्र वर्ग की देवी हैं।
महत्व की बात करें तो महाभारत, शांतिपर्व के अनुसार जिस किसी की सेवा में शूद्र संलग्न हैं, यदि वे संतानहीन है और उनकी मृत्यु होती है तो उनके ‘पिंडदान’ का कार्य भी उसी शूद्र का है।
धनसंचय आदि जो भी निषेध है वह मात्र इस कारण है क्योंकि शूद्र ‘एकजाति’ हैं अर्थात विद्या हीन होने के कारण सही और गलत की समझ नहीं रखते। लेकिन यदि उन्होंने अध्ययन किया तो ग्रंथों में ऐसे तमाम उदाहरण मिलते हैं जब वे भी द्विज बने।
दूसरी तरफ कर्मफल की बात करें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह सभी अपने – अपने वर्ण के अनुसार निर्दिष्ट कर्म करने मात्र से धार्मिक बन जाते हैं और उन्हें परमपिता परमात्मा की प्राप्ति होती है।
श्रीमद्भगवद्गीता १८/४५-४६ में श्री कृष्ण भगवान ने इस बात को स्पष्ट किया है :
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥
अपने-अपने कर्म में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि – (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है। अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है, उस प्रकार को तू मेरे से सुन। जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
धन्यवाद सर