पिछले दिनों एक लेख पढ़ रहे थे, भारत में बढ़ते तलाक़ की संख्या के विषय पर था। बड़े शहरों और पाश्चात्य संस्कृति के पीछे दौड़ते आधुनिक लोगों की इस बीमारी ने कैसे भारत के छोटे शहरों और गाँवों को अपनी चपेट में लेना प्रारम्भ कर दिया है।
सनातन धर्म में मनुष्य का मूल उद्देश्य पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम के माध्यम से मोक्ष) की प्राप्ति है। दोषों के परिमार्जन को ‘संस्कार’ कहा गया है। दोषों को दूर करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थ के योग्य बनाना ही ‘संस्कार’ करने का उद्देश्य है।
‘विवाह’ सनातन धर्म के षोडश (सोलह) संस्कारों में से एक और सबसे अधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। विवाहोपरान्त ही व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। शास्त्रों के अनुसार विवाह वर और वधू के बीच एक पवित्र आध्यात्मिक सम्बन्ध है जो जीवन में सभी प्रकार की मर्यादाओं को स्थापित करने वाला है।
विवाह शब्द की व्युत्पत्ति ‘वि’ उपसर्ग पूर्वक ‘वहन करना’ अर्थ वाली ‘वह्’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय लगाकर हुई है। अर्थ है वि = विशेष प्रकार से, वाह = वहन करना। विवाह से कन्या को ‘भार्या’ संज्ञा प्राप्त होती है और पुरुष ‘पति’ की संज्ञा को प्राप्त करता है अतः यह दोनों का ‘संस्कार’ है।
विवाह का उद्देश्य :
१. वंश वृद्धि
२. पितृ ऋण से मुक्ति हेतु सन्तानोत्पत्ति
३. यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठानों की योग्यता
४. धर्मानुकूल काम की पूर्ति
५. स्वेच्छाचारी यौनाचारों पर अंकुश
विवाह संस्कार से श्रौतस्मार्तानुष्ठान कर्मों की अधिकार सिद्धि और धर्माचरण की योग्यता प्राप्त होती है। इस प्रकार विवाह के द्वारा गृहस्थ धर्म के पालन करने से देवऋण, पितृऋण, तथा ऋषिऋण – तीनों की निवृत्ति हो जाती है। यहाँ विवाह-प्रक्रिया एक “अविच्छिन्न” सम्बन्ध प्रदान करती है और यह पवित्र बन्धन उसके पूर्वजन्म का तथा भावी जन्म का भी अभिन्न सम्बन्ध निश्चित करता है। यही कारण है जो सनातन धर्म में ‘तलाक़’ की अवधारणा ही नहीं मिलती, यहाँ सम्बन्ध-विच्छेद की कल्पना भी नहीं है। विशेष रूप से कलियुग के लिए शास्त्रों में निर्देश मिलता है कि पुरुष एकपत्नी व्रत के संकल्प पर स्थिर रहे और पत्नी पतिव्रता धर्म का निर्वाह करे।
बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या कारण है जो आज हिंदू विवाह पद्धति में सम्बन्ध विच्छेद की वृद्धि हो रही है?
इसका कारण यह है कि जो विवाह-पद्धति पूर्णतः वैदिक होने से धर्ममय है जिस विवाह की प्रत्येक क्रिया वैदिक मन्त्रों से उपनिबद्ध है, इसमें वैदिक रीतियों का पालन कम और बाह्य आडम्बरों का ताना-बना अधिक बुनता जा रहा है। हरिप्रबोधिनी एकादशी से ही विवाह होने प्रारम्भ हो चुके हैं, इस वर्ष १६ दिसम्बर तक चलने वाले विवाह के मौसम में एक अनुमान के अनुसार लगभग ३५ लाख विवाह में लगभग पाँच लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है।
मनोवैज्ञानिक रूप से जिस विवाह पद्धति से वर और वधू एक आध्यात्मिक बन्धन में बंधते, अब उनके लिए यह मात्र एक भव्य उत्सव बनता जा रहा है, उनके बीच आध्यात्मिक अथवा मानसिक कोई सम्बन्ध ही नहीं बन पाता। इसका मुख्य दोषी आज का हिंदू समाज ही है जो अपनी ही जड़ों को खोदता जा रहा है। वर्तमान में प्रचलित बाह्य आडम्बरों से विरत होकर वैवाहिक पवित्र कृत्यों का ही पालन होना चाहिये, तभी विवाह-सम्बन्ध अखण्ड सौभाग्य को देने वाला एवं गृह-परिवार के लिये मंगलमय हो सकेगा। इसे मात्र उत्सव न समझकर एक धार्मिक संस्कार समझना आवश्यक है। धार्मिक संस्कार समझने के लिए आवश्यक है कि विवाह अत्यंत साधारण एवं शास्त्र के अनुसार हो, जिससे वर-वधू का ध्यान बाह्य आडम्बरों से हटकर संस्कृति व भविष्य के उत्तरदायित्व पर हो।