पूजन, अनुष्ठान आदि के संकल्प में अपना उपनाम छोड़ कर शर्मा, वर्मा, आदि उपनाम क्यों लिये जाते हैं?

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यो धृतः सन् धारयते धर्मः। स्वरूपसंपादको गुणो धर्मः।

अर्थात् जो धारण करने पर धारण करने वाले को धारण करता है, वह धर्म’ है। वस्तुतः किसी पदार्थ के स्वरूप को धारण करने वाला गुण ही धर्म’ है।

धर्म दो प्रकार के होते हैं. प्राकृत और . संस्कारयुक्त अर्थात् संस्कृत।

प्राकृत धर्म वे धर्म हैं जो प्रकृति से सिद्ध हैं, जैसे मनुष्यता आदि। इनमें मनुष्य को त्याज्य अथवा ग्राह्य कर्मों में स्वतंत्रता नहीं है।

दूसरे संस्कार युक्त वे धर्म हैं जो प्राकृत नहीं हैं, संस्कार से प्राप्त होते हैं, जो गुण अधिकार प्रदान करने पर उत्पन्न होते हैं। जैसे दीक्षा व्रत, आचार व्रत, शुद्धि, पुष्टि आदि, इसलिए इन्हें संस्कृत धर्म कहते हैं। उदाहरण स्वरूप ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के जन्म से प्राप्त अधिकारों की दीक्षा अर्थात् धर्म संस्कार से प्राप्त कर्म। इन कर्मों का वर्णन शास्त्रों में सुगमता से प्राप्त होता है।

जैसे श्रीमद्भगवद्गीता १८/४२ के अनुसार :

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥

अर्थात, मन का निग्रह करना इन्द्रियों को वश में करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहरभीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदि में सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना; यज्ञविधि को अनुभव में लाना; और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखनाये सबकेसब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

इसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता १८/४३ के अनुसार :

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥

अर्थात, शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ दिखाना, दान करना और शासन करने का भावये सबके सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

और श्रीमद्भगवद्गीता १८/४४ के अनुसार :कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्। अर्थात, खेती करना, गायों की रक्षा करना और शुद्ध व्यापार करनाये सबकेसब वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं।

जिस प्रकार राजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रजा की आधिभौतिक दुःखों से रक्षा करता है, संरक्षण शुल्क के रूप में कर ग्रहण करता है, उन्हें दान भी देता है उसी प्रकार ब्राह्मण ब्रह्मा है। (द्विजो विप्रो देवो ब्रह्मेति चतुःकक्षं ब्रह्मभवति।ब्राह्मण चार प्रकार के होते हैं. द्विज, . विप्र, . देव और . ब्रह्मा।) ब्राह्मण और राज्याभिषक्त क्षत्रिययह दोनों ही लोगों के दीक्षा पालक हैं अर्थात् नियमों की पालना में प्रेरक होते हैं।

जिस प्रकार राजा प्रजा का अधिपति होता है, बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार राजसूय यज्ञ में उसका स्थान ब्राह्मण से ऊपर होता है, उसी प्रकार सामान्य अवस्था में ब्राह्मण राजा का भी अधिपति होता है क्योंकि उसी के मार्गदर्शन पर राजा चलता है। इसी कारण ब्राह्मण राजा से कर ग्रहण करता है। यहाँ पर ब्राह्मण रूपी समाजात्मा शिरःस्थानीय है।

ऋग्वेद के एक भावपूर्ण ऋचा में कहा गया है : (ऋग्वेद, मण्डल १०/९०/१२) “ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यःकृतः ।” अर्थात् ब्राह्मण मुख है, राजन्य (क्षत्रिय) दोनों बाहू हैं।

इस समाजरूपी आत्मा का यह ब्राह्मण आधिदैविक आपत्तियों का निवर्त्तक (रोकने वाला) होने के कारण शरीर के आन्तरिक भाग का रक्षक होकर चर्मस्थानीय है। जिस प्रकार शरीर के मांस-मज्जा आदि का रक्षक चर्म होता है उसी प्रकार मानव की आन्तरिक अर्थात् आधिदैविक आपत्तियों की रक्षा का कार्य ब्राह्मण का है। इसीलिए ब्राह्मण चर्मस्थानीय होने के कारण “शर्म” कहा जाता है। शतपथ ब्राह्मण (१.१.४.४) के अनुसार मनुष्य का (लोकभाषा में) जो चर्म है, वह देवों में शर्म कहा जाता है।

शर्मासीति चर्म वा एतत्कृष्णस्य तदस्य तन्मानुषं शर्म देवत्रा तस्मादाह शर्मासीति तदवधूनोत्यवधूतं रक्षोऽवधूताअरातय इति तन्नाष्ट्रा एवैतद्रक्षांस्यतोऽपहन्त्यतिनत्येव पात्राण्यवधूनोति यद्ध्यस्यामेध्यमभूत्तद्ध्यस्यैतदवधूनोति– शतपथ ब्राह्मण ...४ (मन्त्रगत “शर्म” शब्दस्य तात्पर्यमाह – ‘चर्म’ वा इति।)

क्षत्रिय आधिभौतिक आपत्तियों का निवारक होने के कारण कवचस्थानीय है। बाहरी आपत्तियों से रक्षा करने के कारण “वर्म” कहलाता है। वर्म का अर्थ कवच है। ‘वर्मन’ शब्द भी ‘वर्म’ से ही बना है जो क्षत्रियों के नाम के साथ लगने वाला एक प्रत्यय है जैसा कि इतिहास में पुष्यवर्मन, महेंद्रवर्मन आदि राजाओं के नाम मिलते हैं।

इस प्रकार ब्राह्मण और क्षत्रिय रक्षा करने वाले हैं। जो इन दोनों के द्वारा रक्षा किया जाता है, वह वैश्य “गुप्त” कहलाता है। गुप्त का अर्थ ही है ‘रक्षित’।

इस प्रकार समझने पर ज्ञात होता है कि अपने-अपने निर्धारित नियमों अर्थात् धर्म की उपयोगी शक्ति की वृद्धि करने के लिए योग्य कर्म करना तथा अपने-अपने नियम की उपयोगी शक्ति का नाश करने वाले कर्म का परित्याग करने के भाव में पूजन अनुष्ठान आदि के संकल्प के समय अपना उपनाम छोड़ करशर्मा अहं”, “वर्मा अहं”, आदि उपनाम लिए जाते हैं। बाद के समय में शूद्रों के लियेदासशब्द! यद्यपि जानकारी होने परदाससभी वर्ग ले सकते हैं, नाम के साथ लगा भी सकते हैं। दास शब्द ‘विनम्रता’ का सूचक भी माना जाता है।

लेख के आधार ग्रंथ :

  • श्रीमद्भगवद्गीता
  • शतपथ ब्राह्मण
  • वेद व उपनिषद् ग्रंथ
  • पण्डित मधुसूदन ओझा कृत ग्रंथ।

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Vijay Singh
Vijay Singh
8 months ago

Wah! Bahut gyanwardhak lekh hai.

Dhanyawad.

mangal
mangal
11 months ago

अति उत्तम

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