सूर्य देव का वर्णन ऋग्वेद में एक अत्यंत उपकारी शक्ति के रूप में हुआ है जो ऋग्वेद १.५०.६, १.११५.१, १.१५५.३, १.१६४.११, १.१६४.१३, १.१९१.८, १.१९१.९, १०.८८.११, १०.१३९.३ आदि ऋचाओं में दृष्टव्य है।
आदित्यह्रदयम् , वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग १०५.८,९ में कहा गया है –
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।
वायुर्वह्निः प्रजा प्राणः ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥
ये (आदित्य) ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चंद्रमा, वरुण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण और ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुँज हैं।
अदिति के पुत्र के रूप में आदित्य का वर्णन मिलता है। जिनकी संख्या बारह बताई गई है। ऐतरेय ब्राह्मण में दिव् (चमकना) धातु से आदित्य शब्द की व्युत्पत्ति बताई गई है। (तस्य यद् रेतसः तृतीयम् अदेदीदिवत् (तद्) आदित्याअभवन्। – ऐ० ब्रा० ३.३.९.१०)
आदित्यों की बारह की संख्या के विषय में ब्राह्मण ग्रंथों में (शतपथ ब्राह्मण ११.६.६.८) या बृहदारण्यक उपनिषद३.९.५ में बताया गया है कि ‘वर्ष के द्वादश मास ही द्वादश आदित्य कहे जाते हैं।’ (आदित्या इति द्वादश वै मासाः)
विष्णु पुराण २.१०.२ में कहा गया है कि बारह मासों में सूर्य का रथ विभिन्न आदित्यों से अधिष्ठित होता है। यथा – “स रथोऽधिष्ठितो देवैरादित्यै ऋषिभिस्तथा”।
चैत्र में सूर्य के रथ में धाता, वैशाख में आर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इन्द्र, भाद्रपद में विवस्वान्, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंश, पौष में भग, माघ में त्वष्टा तथा फाल्गुन में विष्णु विराजमान होते हैं। स्पष्ट है कि वर्ष के विभिन्न मासों में सूर्य के ताप के विभिन्न रूप देख कर एक ही सूर्य के इन बारह रूपों को एक–एक मास से सम्बंधित कर लिया गया है।
ऋग्वेद द्वितीय मण्डल के २७वें सूक्त में आदित्यों की सामान्य विशेषताओं का परिचय मिलता है। यहाँ उन्हें भास्वर, पवित्र, पाप तथा कलंक से रहित, अदम्य, विस्तृत, गम्भीर, अवंचनीय तथा कई नेत्रों से युक्त कहा गया है।
अथर्ववेद में भी आदित्यों का लगभग यही स्वरूप प्राप्त होता है। उनका निवास स्थान परम व्योम है। मृत व्यक्तिदेवयान से जाकर उनके निवास स्थान तक पहुँच जाता है (अथर्ववेद २.१२.४)।
ऋग्वेद १०.३७.१ में सूर्य को आकाश का पुत्र बताया गया है (दिवस्पृताय सूर्याय शंसत)। उनके उदय के अनन्तर ही मनुष्य के नेत्र सांसारिक विषयों को देख पाते हैं अतः वे प्राणियों के एक मात्र नेत्र हैं। (सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुः – अथर्ववेद १३.१.४५ तथा ऋग्वेद १०.१८४.४)।
सूर्य के रथ को सात घोड़े खींचते हैं जो सूर्य की सात रश्मियाँ हैं। (यजुर्वेद ३४.५५ पर निरुक्त १२.३७)
शुक्ल यजुर्वेद में सूर्य को स्वयंभूः कहा गया है (स्वयंभूरसि श्रेष्ठो रश्मिः… २.२६) १३.३ में कहा गया है कि वह ब्रह्म है। उनका जन्म सबसे पहले हुआ और वह संसार की वर्तमान तथा भविष्यकाल में होने वाली सब वस्तुओं के मूल कारण हैं।
बृहद्देवता १.६१,६२ सूर्य को सभी का उत्पादक बताते हुए ‘प्रजापति’ की संज्ञा प्रदान करता है। संसार में जो भी पदार्थ हैं, हुए हैं या होंगे, उन सबकी उत्पत्ति और लय का स्थान सूर्य ही है। सूर्य से ही उनका जन्म होता है और वे उसी में लीन हो जाते हैं। वह कभी नष्ट न होने वाला, शाश्वत ब्रह्म है।
वास्तव में वैदिक वांग्मय के अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि पंचदेवों (१. ब्रह्मा–हिरण्यगर्भ–सूर्य २. विष्णु ३. महेश ४. शक्ति और ५. गणपति) में जिन ब्रह्मा को गिना जाता है, जिनका कार्य उत्पादन का है, जिनसे सौर सम्प्रदाय है, वे प्रत्यक्ष देव सूर्य ही हैं। शुक्ल यजुर्वेद के वाजसनेयी संहिता ८.३६ में कहा गया है कि प्रजापति प्रजा की रक्षा के लिए अपना तेज तीन ज्योतियों १. सूर्य, २. वायु–इन्द्र–विद्युत और ३. अग्नि में प्रविष्ट करते हैं, उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है तथा वे संसार में व्याप्त है। अतः सूर्य, वायु–इन्द्र–विद्युत और अग्नि वस्तुतः ब्रह्मा जी के ही रूप हैं।
ऋग्वेद ४.५३.२ में प्रजापति विशेषण सूर्य के लिए स्पष्ट ही आया है। (दिवो धर्ता भुवनस्य प्रजापतिः पिशंगं द्रापिप्रतिमुंचते कविः)
ब्रह्मा और सूर्य के ऐक्य का प्रमाण ‘गायत्री मंत्र’ भी है। ऋग्वेद ३.६२.१० का गायत्री मंत्र से जिन सविता देवता का स्तवन किया गया है, वे सविता देव सूर्य ही हैं (ऋग्वेद १.३५.१–११ तथा ऋग्वेद १०.१५८.१–४ में स्पष्ट है)।
अब ‘मत्स्यपुराण’ आदिसर्ग, अध्याय ४ के ७,८ और ९वें श्लोक को देखें :
अन्यच्च सर्ववेदानामधिष्ठाता चतुर्मुखः।
गायत्री ब्रह्मणस्तद्वदङ्गभूता निगद्यते ॥
अमूर्तं मूर्तिमद्वापि मिथुनं तत्प्रचक्षते।
विरिञ्चिर्यत्र भगवांस्तत्र देवी सरस्वती ॥
भारती यत्र यत्रैव तत्र तत्र प्रजापतिः ॥
यथा तपो न रहितश्छायया दृश्यते क्वचित्।
गायत्री ब्रह्मणः पार्श्वं तथैव न विमुञ्चति ॥
जिस प्रकार ब्रह्मा वेदों के अधिष्ठाता हैं, उसी प्रकार गायत्री ब्रह्मा के अंग से उत्पन्न हुई हैं, इसलिए यह जोड़ा व्यक्त अथवा अव्यक्त दोनों ही रूपों में कहा जाता है। यहाँ तक कि जहाँ – जहाँ भगवान ब्रह्मा हैं, वहाँ – वहाँ गायत्री रूपी सरस्वती देवी भी हैं और जहाँ – जहाँ सरस्वती देवी हैं, वहीं – वहीं ब्रह्मा भी हैं। जिस प्रकार धूप (सूर्य) छाया से विलग होकर कहीं दिखाई नहीं पड़ते, उसी प्रकार गायत्री भी ब्रह्मा का साथ नहीं छोड़तीं हैं।
यहाँ से यह भी स्पष्ट होता है कि गायत्री, सरस्वती और सावित्री वस्तुतः एक ही देवी का नाम है। (वेदराशिः स्मृतोब्रह्मा सावित्री तदधिष्ठिता। – मत्यस्यपुराण, अध्याय ४.१०)
अतः स्पष्ट हो जाता है कि हमारे प्रत्यक्ष देव सूर्य ही ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ कहे गए हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठीतिथि को ‘छठ’ के रूप में इन्हीं सूर्य नारायण की उपासना की जाती है। ‘छठ’ षष्ठी का ही अपभ्रंश है।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते ।
अनुकम्प्य मां देव गृहाणार्घ्यं दिवाकर ॥
– भविष्य पुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय १४३.२७