संसार में सभी का मूल एक है।
एक ईश्वर, एक सृष्टि और एक ही स्त्री व पुरुष से मानव सभ्यता का विकास।
इस लेख में एकत्ववाद के सिद्धांत को सभी परिपेक्ष्यों में समझने का प्रयास करेंगे, जानेंगे कि कैसे आज हम एकत्ववाद की अवधारणा को खण्डित कर रहे हैं और यह किसी भी रूप से कम से कम मानव सभ्यता के लिए ठीक नहीं है।
आज संसार में जितने भी धर्म माने जाते हैं, उन सभी के अनुसार ईश्वर एक है। उसी एक परम् पुरुष परमेश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया। मानव की उत्पत्ति एक ही स्त्री और पुरुष से हुई। अगल – अलग मान्यताओं के अनुसार उन्हें अलग – अलग नाम से हम जानते हैं लेकिन मूल रूप में वह एक ही थे, इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता।
यह प्रकृति सभी मानवों के लिए एक ही है। पृथ्वी एक ‘मां’ के रूप में समस्त मानव जाति की सेवा करती हैं।
पृथ्वी और प्रकृति ने किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं किया लेकिन मनुष्य बंट गए। जिस पृथ्वी पर एक समय निश्चित रूप से किसी प्रकार की कोई विभाजक रेखा नहीं रही होगी उसपर देश, प्रदेश और न जाने किस – किस रूप में विभाजक रेखाएं बन गईं, मेरा और तुम्हारा हो गया।
भारत माता एक हैं, एक देवी के रूप में मान्यता है लेकिन प्रदेशों में बांट दी गई हैं। एक प्रदेश के लोग दूसरे को अपना नहीं मानते और न ही सरकारें ही ऐसा समझती हैं। विगत कोरोना त्रासदी में यह देखने को मिला।
वेदों में आया है कि विश्व भर की मानव जाति एक ही पुरुष रूप है।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥ – ऋग्वेद १०/९०/१
जिसके हजारों सिर, आंख और पांव हैं, ऐसा पुरुष पृथ्वी के चारों ओर है। जितने मनुष्य हैं, उतने सिर, बाहु, उदर, पांव इस पुरुष के हैं। यह पुरुष पृथ्वी के चारों ओर हैं।
यह ‘एक पुरुष’ है, जिसमें सम्पूर्ण मानव जाति सम्मिलित है। सारी मानव जाति मिलकर एक विराट् देह है। प्रत्येक मनुष्य समझे कि मैं इस देह का एक अवयव या भाग हूँ। अर्थात सम्पूर्ण मानवजाति रूप एक पुरुष है, सब मानव उसके सिर, हाथ, पेट, पांव हैं। कोई भी मनुष्य इस पुरुष के शरीर से बाहर नहीं है। यह ज्ञान विश्वशांति फैलाने वाला और मानवता का विकास करने वाला है। पर इस वैदिक ज्ञान का प्रचार आज नहीं हैं और न ही ऐसे प्रचारक ही हैं।
इस समाज पुरुष के मुख से ब्राह्मण जन्मे हैं, क्षत्रिय भुजा से जन्मे हैं, वैश्य जंघा से, जबकि शूद्र पांव से जन्मे हैं।
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ – ऋग्वेद १०/९०/१३
ध्यान दें, यहां बात विश्व के समस्त मानवों की है। विश्व भर के मानवों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में समझ सकते हैं।
बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार :
ब्राह्मण वह हुआ जिसने उस एक पुरुष को जाना। सर्वप्रथम केवल ब्राह्मण ही था (ब्रह्म वा इदमग्र आसीदेकमेव तदेक सन्न व्यभवत्) लेकिन एकाकी होने के कारण वह अपनी वृद्धि करने में सक्षम नहीं था इसलिए क्षत्रिय बने। देवताओं में वरुण, यम, मृत्यु, इंद्र, सोम आदि क्षत्रिय वर्ण के हैं। (देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो मृत्युरीशान इति) इसलिए क्षत्रिय सर्वोत्कृष्ट हैं, रक्षक हैं।
यद्यपि क्षत्रिय ब्राह्मणों का ही आश्रय ग्रहण करता है लेकिन राजसूय आदि यज्ञों में ब्राह्मण भी क्षत्रिय के नीचे बैठ कर उनकी आराधना और उपासना करते हैं। (तस्मात् क्षत्रात्परं नास्ति तस्माद्ब्राह्मणः क्षत्रियमधस्तादुपास्ते राजसूये क्षत्र एव तद्यशो दधाति सैषा क्षत्रस्य योनिर्यद्ब्रह्म।)
इस प्रकार समाज का विस्तार हुआ लेकिन उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले, उत्पादक वर्ग की आवश्यकता पड़ी, जिन्होंने उस कमी को पूरा किया वह वैश्य कहे गए। वसु, रुद्र, आदित्य, मरुत आदि देव वैश्य वर्ग में गिने गए। ये देवगण समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।
स नैव व्यभवत् स विशमसृजत यान्येतानि
देवजातानि गणश आख्यायन्ते वसवो रुद्रा
आदित्या विश्वे देवा मरुत इति॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग के बाद पोषक वर्ग की आवश्यकता हुई। पूषा देवता ‘शूद्र’ वर्ण के कहे गए।
स नैव व्यभवत् स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं
वै पूषेय हीद सर्वं पुष्यति यदिदं किंच॥
इसके अनुसार पूषा देवता शूद्र वर्ण के हैं, यह पृथ्वी माता भी पूषा देवता है क्योंकि वह समस्त प्राणियों का पोषण करती हैं।
इस प्रकार आवश्यकताओं के अनुरूप ही इन वर्णों की उत्पत्ति हुई जो वास्तव में एक ही हैं, सबका मूल एक ही है। विश्व के समस्त मानव इन्ही वर्गों में गिने जाते हैं जिसे हम समझ नहीं पाते क्योंकि हम बंट गए हैं।
क्षमता और स्वभाव के अनुसार समस्त विश्व के मानवों के दो ही प्रकार हैं। गीता (१६/६) में भगवान ने कहा है :
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
अर्थात, मनुष्य दो प्रकार के हैं– देवता और असुर। जिसके हृदय में दैवी सम्पत्ति कार्य करती है वह देवता है तथा जिसके हृदय में आसुरी सम्पत्ति कार्य करती है वह असुर है। मनुष्य की तीसरी कोई जाति सृष्टि में नहीं है।
सभी समस्याओं का मूल यही है। दैवी और आसुरी संपदा संसार के प्रत्येक मनुष्य में है। रामचरितमानस में आया है :
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
क्रूर से क्रूर कसाई में भी दया की भावना होती है। इस प्रकार जो भी मनुष्य दैवी संपदा के साथ कार्य करते हैं वह सुखी रहते हैं और आसुरी प्रवृत्ति से लिप्त मनुष्य दुख के भागी होते हैं।
यदि केवल हिंदुओं की बात करें तो वैदिक काल से लेकर आज तक जितने भी धर्मानुयायियों ने इसी एक सनातन मार्ग का अनुसरण किया वह तो इस बात को भली प्रकार समझते हैं लेकिन आज इनकी संख्या कम है और सनातन मार्ग से भटक चुके धर्मानुयायियों की संख्या ही अधिक है। धर्मानुयायी भिन्न – भिन्न मत-पथ-समुदाय और संप्रदाय में बंट गए हैं।
यद्यपि समय – समय पर महापुरुषों ने जन्म लेकर इस बिखरे समाज को एकीकृत करने का कार्य किया। उदाहरण स्वरूप आदि शंकराचार्य ने इसी प्रकार से बिखरे हुए सनातन समाज को एकीकृत करने का कार्य किया था, ऐसा नहीं था कि उस काल में लोग धार्मिक नहीं थे, वह धार्मिक थे लेकिन धर्म के मूलमार्ग से पथभ्रष्ट हो चुके थे।
यदि व्यक्ति अधार्मिक अथवा नास्तिक है तो फिर भी ठीक है, सनातन धर्म में नास्तिकता की मान्यता है लेकिन यदि कोई गलत तरीके से धर्म को समझ कर मूलमार्ग से पथभ्रष्ट हो जाये तो यह स्थिति विकट और भयावह है।
यह स्थिति समाज के लिए भी ठीक नहीं है। आज ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है। भारत आदि काल से एक धार्मिक देश है। आज एक धर्मनिरपेक्ष देश होने के बाद भी देश में धार्मिक हिंदुओं की संख्या सबसे अधिक है किंतु वे धर्म के मूलमार्ग से भटक गए हैं। आज जितने भी धार्मिक मत-पंत-समुदाय और सम्प्रदाय हैं वे भी मूल मार्ग की बात नहीं करते, सबकी धर्मनीति समय के अनुसार बदल चुकी है। इस विकट स्थिति का लाभ लेने के लिए आज ऐसी संस्थाएं भी सक्रिय हैं जो स्वयं को धार्मिक संस्था बताते हुए मूलमार्ग से बहुत दूर ले जाती हैं। लोग इन्हें समझ नहीं पाते, उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि यह संस्था तो धार्मिक ही है। आज जितने मत-पथ-सम्प्रदाय हैं इसके दसवें हिस्से के बराबर भी प्राचीन भारत में इनकी संख्या नहीं रही।
एक ही ईश्वर सृष्टिकाल में,
१. सृष्टिकर्ता – ब्रह्मा
२. पालक – विष्णु
३. संहारक – शिव
५. निग्रह – शक्ति
५. अनुग्रह – गणपति
के रूप में स्वयं को प्रकट करते हैं, इन्हें पंचदेव कहते हैं। इन्ही पंचदेवों में से एक हमारे इष्टदेव होते हैं, इन्ही की और इनके शास्त्र सम्मत अवतारों (जैसे विष्णु के अवतार राम, कृष्ण आदि, शिव के अवतार हनुमान आदि) की प्रतिष्ठा मठ, मंदिरों में की जाती है।
ब्रह्मा जिन्हें सूर्य या हिरण्यगर्भ भी कहते हैं, के उपासक शौर्य,
विष्णु के वैष्णव,
शिव के शैव,
शक्ति के शाक्त
और गणपति के उपासक गाणपत्य कहे जाते हैं। यही पांच मूल सम्प्रदाय होते हैं।
बहुत से हिंदुओं की मान्यता में इसपर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं है। तर्क देते हैं कि वे कम से कम धर्म की बात तो करते हैं, उनके मतानुसार आज बड़ी समस्या अन्य धर्म हैं।
वास्तव में भारतवर्ष में वैदिक सनातन धर्म के लिये अन्य धर्म कभी समस्या ही नहीं रहे, समस्या स्वयं हिंदू ही रहे हैं। धर्म के प्रति सनातन धर्मियों की उदासीनता ही उनके ह्रास और गिरते सांस्कृतिक मूल्यों का कारण है।
सर, क्या धर्म हमे बांद के रखता है।
बिल्कुल यथार्थ चित्रण किया गया है। कल्याणकारी सुन्दर विचारस्वरुप एक विचार (परमादरणीय श्री संभाषण जी) सदा आप कर्त्तव्यमार्ग में लगते हुए लोककल्याण के लिये सद्विचारों में ही रहते है। परहित में रति तो मनुष्य की जिम्मेवारी है ही।
🙏जय जय जग जुग उपकारी🙏
मनुष्य का मनुष्यता विवेक में ही है। विवेक ही तत्वज्ञानमें परिणत हो जाता है। मनुष्य का महत्व उसके जेण्डर, आकार, आयु को लेकर नहीं है, बल्कि विवेक को लेकर ही है। विचारों से विवेक पुष्ट होते हुए विवेक तत्वज्ञान में परिणत हो ही जाता है। मनुष्यजन्म सफल हो🙏 भोगेच्छा निवृत्ति भी कर्त्तव्यमार्गमें(कर्मयोग) से हो ही जाता है।
वासुदेवः सर्वम् अथवा एको बहुश्याम ही वास्तविकता है, लेकिन भोगेच्छा निवृत्ति भी एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि भोगेच्छा निवृत्ति न होने से मनुष्य का ध्यान वास्तविकता (वासुदेव: सर्वम्, एको बहुश्याम) की तरफ जाता ही नहीं। 🙏भोगेच्छा निवृत्ति हो, मुक्ति मिले, भगवत्प्रेम मिले। मनुष्यजन्म सफल हो। कल्याण सहज है, लेकिन भोगेच्छा निवृत्ति कठिन है। लेकिन आप जैसे सद्विचारों (सत्संग) के प्रभावसे भोगेच्छा निवृत्ति भी अवश्य हो ही जायेगी। क्योंकि #बिनु सतसंग विवेक न होई।
🙏