मनुष्य में धर्म का अस्तित्व तभी है जब वह उसे ‘धारण करे।’
‘धृ’ धातु जिससे धर्म बना है उसका अर्थ है ‘धारण करना’, ‘पकड़ना’।
जब तक धर्म हमारी प्रकृति या स्वभाव नहीं बनता तब तक हम धार्मिक नहीं कहे जा सकते।
यदि आग और पानी का अपना धर्म छोड़ दे तो उनकी क्या उपयोगिता रह जायेगी?
वैदिक सनातन धर्म में उद्देश्य है ‘जन्म-मृत्यु के चक्र को पूरा करते हुए परम् तत्व ‘मोक्ष’ की प्राप्ति अर्थात ‘आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना।’
इसी एक उद्देश्य को लेकर पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) हुए। वेदों से लेकर जितने भी ग्रंथ हुए, वे सभी इसी एक उद्देश्य को केंद्र में रखते हुए बने।
ब्रह्मा जी ने सबसे पहले मानसिक संकल्प से मानसिक सृष्टि की रचना की जिसे ऋषिसृष्टि, मानससृष्टि, आंगिकसृष्टि या सांकल्पित सृष्टि कहा गया।
किन्तु जब उन्होंने देखा कि उनके मानस पुत्रों में सृष्टि की बृद्धि हेतु प्रवृत्ति ही नहीं है। तब वे बड़े चिंतित हुए।
भगवान शिव की प्रेरणा से उन्होंने ‘मैथुनी सृष्टि’ की रचना की।
प्रथम पुरुष महाराज मनु और महारानी सतरूपा हुईं। मनु की संतान होने के कारण ही हम ‘मनुष्य’ या ‘मानव’ कहलाये।
यहां मेरा विचार है कि मनुष्यों के कल्याण के लिए ईश्वर ने इसी समय परावाणियों के माध्यम से वेदज्ञ ऋषियों (अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा) के मन में वेदों का बोध कराया जिसे श्रुति माध्यम से प्राप्त कर ब्रह्मा जी ने संकलित किया और वे प्रथम ‘वेदव्यास’ कहलाये। अपना विचार कहने की धृष्टता करने का कारण यह है कि वेद अपौरुषेय कहे गए हैं, ऋषियों ने वेद का काल सृष्टि के सृजन के साथ बताया है किन्तु ‘वेदों में इतिहास भी मिलता है।’ अतः यह ‘मैथुनी सृष्टि’ ही मानी जानी चाहिए।
अपना विचार कहने का दूसरा कारण यह है कि किसी ने ऐसा कहा हो, इसकी जानकारी मुझ अल्पज्ञ को नहीं है। अथवा विद्वजन सहमत ही हों, यह भी नहीं कह सकते।
वेद शब्द के चार अर्थ हैं –
१. जानना (विद्- ज्ञाने)
२. विचार करना (विद्- विचारणे)
३. पालन करना (विद्- सत्तायाम) और
४. लाभान्वित होना (विद्- लाभे)।
वेद ही सनातन धर्म के जनक हैं, धर्मग्रंथ हैं। अतः यह सिद्ध है कि धर्म को जानने भर से तब तक कोई लाभ नहीं है जब तक उसका पालन न किया जाए।