इतिहास हमें बताता है कि बंधुओं में मनमुटाव के कारण महाभारत हुआ।
संसार में मनमुटाव का मुख्य कारण प्रायः जऱ-ज़ोरू-ज़मीन – तीन ही होते हैं सो यहां भी यही कारण बना, ज़मीन के लिए भाइयों में मेरा-तेरा हुआ।
धृतराष्ट्र अपने पुत्र प्रेम में इतने अंधे हुए कि परिणाम जानते हुए भी युद्ध के लिए मौन स्वीकृति दी। वे परिणाम जानते थे, प्रमाण है गीता का पहला श्लोक।
‘किमकुर्वत’ ― यह शब्द उनकी क्षुब्धता, अधीरता को प्रदर्शित करता है। युद्ध के मैदान में वे क्या करेंगे किन्तु “अरे, बताओ क्या हुआ”।
‘मामकाः’ ― कलह का मूल सूत्र है – “यह मेरा, यह तेरा”
ममत्व ही वैभव के नाश का कारण है।
‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ ― संसार क्या है? यदि इसपर विचार करें तो दो ही चित्र हमारे मन में उभरते हैं – ‘प्रसन्नता’ और ‘दुख’।
वास्तव में यही धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र हैं। धर्म के मार्ग पर चलने वाला ‘श्रेयमार्गी’ वास्तव में प्रसन्न है और सांसारिक अथवा ‘प्रेयमार्गी’ दुखी।
महाभारत का युद्ध हुआ और परिमाण आज हम जानते हैं। एक बात जो हम जानते तो हैं किन्तु मानते नहीं, उसे समझना आवश्यक है।
वह है ‘इतिहास लिखने का उद्देश्य’ ― इतिहास को लिख कर रखने का उद्देश्य है कि आने वाली पीढियां उसे जानें उससे सीख लें। जो गलतियां हुईं उसको पुनः न दुहरायें। यदि वही गलतियां दुहरायेंगे तो वही इतिहास पुनः हमारे सामने आएगा और इस प्रकार ‘इतिहास स्वयं को दुहरायेगा।’
और हुआ यही, हमने इतिहास से सीख नहीं ली। आज घर-घर में ‘महाभारत’ है। राष्ट्र, जाति, भाषा आदि हर एक स्तर पर महाभारत है।
श्रेयमार्गी कोई नहीं है, सभी प्रेयमार्गी ही हैं।
मम-मेरा-ममकार इस तरह से हावी है कि ‘मेरी जाति’, ‘मेरी भाषा’, ‘मेरा वैभव’, ‘मेरी बात’ आदि सब कुछ ‘मेरे’ तक ही सीमित है। अब जब सब कुछ ‘मेरे’ तक ही सीमित हो जायेगा तब महाभारत तो होगा ही।
अब परिमाण पहले से अधिक भयानक होंगे। कारण यह है कि तब युद्ध भी धर्म के आधार पर लड़े जाते थे किन्तु अब नहीं।
अब यदि इस महाभारत को टालना है तब हमें इतिहास से सीख लेनी ही पड़ेगी ताकि उस गलती को हम पुनः न दुहरायें।
विचार आपको करना है। मर्जी आपकी है – सिर भी आपका।