नवरात्र :
पूरे वर्ष में नवरात्रि चार बार मनाई जाती है। चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ मास में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक; किन्तु गृहस्थ लोगों के लिए चैत्र नवरात्र (वासन्ती नवरात्र) और दूसरा आश्विन मास की शारदीय नवरात्र – यह दो ही होती हैं। आषाढ़ और माघ मास की नवरात्रि ‘गुप्त नवरात्रि’ कही जाती है जिसमें तंत्र साधक साधना करते हैं।
वासन्ती नवरात्रों में विष्णु की और शारदीय नवरात्रों में शक्ति की उपासना की प्रधानता होती है (इस कारण शारदीय नवरात्रों का महत्व उपासकों के लिए अधिक होता है) किन्तु यह दोनों इतने व्यापक हैं, उपासना की विधियों में इतनी समानता है कि दोनों ही नवरात्रियों में उपासक विष्णु और शक्ति दोनों की ही उपासना करते हैं। श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार देवी ने स्वयं कहा है “चैत्र और आश्विन मास के दोनों नवरात्र मेरे लिए अत्यन्त प्रियकर हैं।” (नवरात्रद्वयं चैवव्रतं प्रीतिकरं मम ॥)
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर नवमी तिथि तक नव रात्रियों तक व्रत करने को ‘नवरात्र’ व्रत के नाम से जाना जाता है। नवरात्र का आरम्भ अमायुक्त प्रतिपदा में वर्जित है और द्वितीया युक्त प्रतिपदा में शुभ है। प्रारम्भ के समय यदि चित्रा नक्षत्र और वैधृति हों तो उनके उतरने के बाद व्रत का प्रारम्भ होना चाहिए। यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि देवी का आवाहन, स्थापन और विसर्जन – ये तीनों प्रातः काल में होते हैं; अतः यदि चित्रादि अधिक समय तक हों तो उसी दिन अभिजीत् मुहूर्त में आरम्भ करना चाहिए।
नवदुर्गा :
श्रीदुर्गासप्तशती के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि के ‘परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाले साधन के विषय में’ पूछने पर ब्रह्मा जी बोले –
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥
“देवी की नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं। उनके पृथक–पृथक नाम बतलाये जाते हैं। प्रथम शैलपुत्री हैं। दूसरी मूर्ति का नाम ब्रह्मचारिणी है। देवी तीसरा स्वरूप चंद्रघण्टा के नाम से प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति का नाम कूष्माण्डा है। पाँचवी दुर्गा को स्कन्दमाता कहते हैं। देवी के छठें रूप को कात्यायनी कहते हैं। सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है। नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी नाम सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं।
जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर हो कर जो भगवती की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कोई अमंगल नहीं होता।”
पूजन – विधान :
यूँ तो देवी पूजन में दृष्टिगोचर होने वाले सभी स्थान और सभी काल व्रत के योग्य हैं तथा सभी समयों में देवी के उत्सव मनाये जा सकते हैं; क्योंकि देवी ने स्वयं कहा है कि मैं सर्वरूपिणी हूँ। (सर्वं दृश्यं मम स्थानं सर्वे काला व्रतात्मकाः।उत्सवाः सर्वकालेषु यतोऽहं सर्वरूपिणी॥ – श्रीमद्देवीभागवत, सप्तम स्कन्द, अध्याय – ३८.३)
तथापि श्रीमद्देवीभागवत, तृतीय स्कन्द के अनुसार जनमेजय के पूछने पर व्यास जी नवरात्र व्रत और उसका विधान बताते हैं। व्यास जी ने शारदीय और वासन्ती दोनों नवरात्रियों के मनाए जाने का कारण बताया है –
द्वावेव सुमहाघोरावृतू रोगकरौ नृणाम् ।
वसन्तशरदावेव सर्वनाशकरावुभौ ॥
तस्मात्तत्र प्रकर्तव्यं चण्डिकापूजनं बुधैः ।
चैत्राश्विने शुभे मासे भक्तिपूर्वं नराधिप ॥
— श्रीमद्देवीभागवत, तृतीय स्कन्द, २६/६–७
ये वसन्त तथा शरद – दोनों ही ऋतुएँ बड़ी भयानक हैं और मनुष्यों के लिए (मौसम बदलने के कारण) रोग उत्पन्न करने वाली हैं। ये सबका विनाश कर देने वाली हैं। अतएव हे राजन! बुद्धिमान लोगों को शुभ चैत्र तथा आश्विन मास में भक्ति पूर्वक चण्डिका देवी का पूजन करना चाहिए।
ज्ञानदं मोक्षदं चैव सुखसन्तानवर्धनम् ।
शत्रुनाशकरं कामं नवरात्रव्रतं सदा ॥
राज्यभ्रष्टेन रामेण सीताविरहितेन च ।
किष्किन्धायां व्रतं चैतत्कृतं दुःखातुरेण वै ॥
प्रतप्तेनापि रामेण सीताविरहवह्निना ।
विधिवत्पूजिता देवी नवरात्रव्रतेन वै ॥
— श्रीमद्देवीभागवत, तृतीय स्कन्द, २७/४८–४९–५०
नवरात्र व्रत सर्वदा ज्ञान तथा मोक्ष को देने वाला, सुख तथा सन्तान की वृद्धि करने वाला एवं शत्रुओं का पूर्णरूप से नाश करने वाला है। राज्य से च्युत हो कर तथा सीता के वियोग से अत्यंत दुःखित श्रीराम ने किष्किन्धा पर्वत पर इस व्रत को किया था। सीता की विरहाग्नि से अत्यधिक सन्तप्त श्रीराम ने उस समय नवरात्र व्रत के विधान से भगवती जगदम्बा की भलीभाँति पूजा की थी।
व्यास जी ने बताया – सुसज्जित मण्डप का निर्माण कर उसके बीच में चौकोर बेदी बनानी चाहिए, विविध रंगों का तोरण लटकाना चाहिए। चंदन, अगरु, कपूर तथा मन्दार, करंज, अशोक, चम्पा, कनैल, मालती, ब्राह्मी आदि सुगन्धित पुष्पों, सुन्दर बिल्वपत्रों और धूप–दीप से विधिवत भगवती जगदम्बा का पूजन करना चाहिए और सामर्थ्य के अनुसार ९, ५, ३ अथवा एक ब्राह्मण के द्वारा पाठ करवाना चाहिए। शक्ति के प्रतीक त्रिकोण कुण्ड में होम करना चाहिए।
अपने धन सामर्थ्य के अनुसार भगवती की पूजा और कन्या पूजन करना चाहिए। यद्यपि ९ की संख्या में कन्या पूजन श्रेष्ठ होता है। (निधियुक्तां कुमारीं तु पूजयेच्चैव भैरव – रुद्रयामलम्) किन्तु अपने सामर्थ्य के अनुसार १, ५, ७, ९ कन्याओं का पूजन करना चाहिए।
कन्या पूजन में एक वर्ष की अवस्था वाली कन्या को नहीं लेना चाहिए; क्योंकि वह कन्या गन्ध और भोग आदि पदार्थों के स्वाद से बिल्कुल अनभिज्ञ होती है। कुमारी कन्या वह कही गई है, जो दो वर्ष की हो चुकी हो। तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती है। दस वर्ष से अधिक की अवस्था वाली कन्या का पूजन नहीं करना चाहिए।
रुद्रयामलम्, षष्ठ पटल में एक वर्ष की आयु वाली कन्या ‘संध्या’, दो वर्ष की कन्या ‘सरस्वती’, तीन वर्ष की कन्या ‘त्रिधामूर्ति’, चार वर्ष की कन्या ‘कालिका’, पाँच वर्ष की कन्या ‘सुभगा’, छः वर्ष की होने पर ‘उमा’, सात वर्ष वाली ‘मालिनी’, आठ वर्ष की कन्या ‘ कुब्जा’, नौ वर्ष की कन्या ‘कालसंदर्भा’ और दस वर्ष की कन्या को ‘अपराजिता’ कहा गया है।
ब्राह्मणी सर्वकार्येषु जयार्थे नृपवंशजा ।
लाभार्थे वैश्यवंशोत्था मता वा शूद्रवंशजा ॥
समस्त कार्यों की सिद्धि के लिए ब्राह्मण की कन्या, विजय – प्राप्ति के लिए राजवंश (क्षत्रिय) में उत्पन्न कन्या तथा धन लाभ के लिए वैश्य अथवा शूद्र वंश में उत्पन्न कन्या पूजन के योग्य मानी गई है।
कन्यापूजन में सावधानी :
अष्टोत्तरशतं वापि एकां वा परिपूजयेत् ।
पूजिताः प्रतितद्यन्ते निद्दर्दहन्त्यवमानिताः ॥
कुमारी यगिनी साक्षात् कुमारी परदेवता ।
रुद्रयामलम् सप्तम पटल के ३२–३३ वें श्लोक के अनुसार ‘कुमारी साक्षात् योगिनी हैं। कुमारी साक्षात् महाशक्तिस्वरूपा हैं। देवी स्वरूपा कन्या एक हो अथवा १०८, पूजित और प्रसन्न होने पर सब प्रकार के फल को देने वाली हैं किन्तु अपमानित होने पर जला देती हैं।’
पूजा, हवन, कुमारी पूजन तथा ब्राह्मण-भोजन – इनको सम्पन्न करने से नवरात्र–व्रत पूरा हो जाता है, ऐसा कहा गया है। (पूजाभिश्चैव होमैश्च कुमारिपूजनैस्तथा। सम्पूर्णं तद्व्रतं प्रोक्तं विप्राणां चैव भोजनैः॥)
श्रीमद्देवीभागवत, अष्टम स्कन्द के अनुसार जनमेजय के पूछने पर व्यास जी नारद जी और भगवान नारायण की कथा सुनाते हैं जिसमें नारद जी के पूछने पर भगवान नारायण बताते हैं कि शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि में देवी की पूजा घृत से करनी चाहिए और ब्राह्मण को घृत का ही दान देने से आरोग्य बढ़ता है। इसी प्रकार –
द्वितीया को – शर्करा से और दान भी शर्करा का करने से दीर्घ आयु मिलती है।
तृतीया को – दुग्ध से पूजन और दान से दुःखों से मुक्ति मिलती है।
चतुर्थी को – पूआ से पूजन और दान करने से विघ्न–बाधाओं से रक्षा होती है।
पंचमी को – केला से पूजन और दान करने से मनुष्य की बुद्धि बढ़ती है।
षष्ठी को – मधु से पूजन व दान करने से कान्ति बढ़ती है।
सप्तमी को – गुड़ का नैवेद्य अर्पण करने और गुड़ का ब्राह्मण को दान देने से सभी प्रकार के शोकों से मुक्ति मिलती है।
अष्टमी के दिन – नारियल से पूजन और नारियल का ही दान करने से मनुष्य संताप रहित हो जाता है। और
नवमी तिथि को – भगवती को लावा चढ़ाने और लावा का दान देने से यमलोक का भय नहीं रहता।
जिस तिथि में नैवेद्य के लिए जो वस्तु बताई गई है, उस तिथि को उसी वस्तु से हवन करने से सभी विपत्तियों का नाश होता है।
सम्पूर्ण आश्विन मास में खीर का नैवेद्य उत्तम कहा गया है।
इन विधियों से देवी की पूजा और देवी के चरणों में सम्पूर्ण भाव से नमन कर आराधना करने मात्र से ही साधकों की सभी मनोकामनाएँ अवश्य ही पूर्ण होती हैं।
आदि शंकराचार्य ‘सौन्दर्य लहरी – आनंदलहरी’ के चतुर्थ श्लोक में कहते हैं –
त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणः
त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया ।
भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वाञ्छासमधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ ॥
हे शरणार्थियों को शरण देने वाली! तुम्हें छोड़ कर जितने दूसरे देवता हैं वे अपने हाथों से अभय और वरदान का काम लेते हैं, इसी से तो उन्होंने अपने हाथों में अभय और वरद मुद्रा को धारण किया है। तुम्हीं एक ऐसी हो जो इन मुद्राओं का स्वाँग नहीं रचती। रचने भी क्यों लगीं, तुम्हें इसकी आवश्यकता ही क्या है? तुम्हारे दोनों चरण ही आश्रितों को सब प्रकार के भयों से मुक्त करने तथा उन्हें इच्छित फल से अधिक देने में समर्थ हैं। तुम्हारे हाथ सदा शत्रुओं के संहार के काम में लगे रहते हैं। भक्तों के लिए तो तुम्हारे चरण ही पर्याप्त हैं।