भारत आने के बाद अंग्रेजों को पता था कि एक न एक दिन जाना ही पड़ेगा इसलिए अंग्रेजों ने भारत में सबसे पहले उनकी पहचान की जिनकी सहायता से वो भारत से पूंजी के साथ सुरक्षित निकल सकें। सामाजिक रूप से ऐसा धुएँ का गुबार उठे कि उन्हें निकलने में आसानी हो सके।
अंग्रेजों के भारत में कई तरह के सहयोगी थे जिसमें वामपंथी, छुपे वामपंथी और चाटुकार शामिल थे। इसमें चाटुकार की सामाजिक स्थिति दयनीय थी और वामपंथियों को अपने राजनैतिक हित सामाजिक ताने – बाने से ही निकालना था।
इसके लिए अंग्रेजों का एक प्रसिद्ध सिद्धांत था ‘मछली के तेल में मछली पकाना’ मतलब कि भारत की सभी अच्छी चीजें भारतीयों की पीठ पर लाद कर इंग्लैंड ले जाना।
अब समझिये 1942 के बाद की राजनीति जिसने द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन को आर्थिक रूप से इतना कमजोर कर दिया कि भारत को गुलाम बनाये रखना मुश्किल हो चला था। अंग्रेजों को अब ऐसे प्यादों को आगे बढ़ाना था जो उनका झोला लेकर ब्रिटेन तक पहुँचाने में गर्व महसूस करें। साथ ही भारतीयों को गाली भी दें। अंबेडकर, पेरियार जैसे एजेंट पहले से तैयार थे किंतु उन्हें मजबूत जनाधिकार का नेता चाहिए था।
छुपे वामपंथी जिन्हें हिंदू होने में शर्म आती है, जिनका धर्म से वास्ता नहीं है, उन्होंने भी भगवान बनने के लिए मानवतावाद का सहारा लिया। यह भी सेकुलिरिज्म का रूप है। भारत इतना अनुदार रहा होता तो मुस्लिम और अंग्रेज भारत आने की ही हिमाकत न करते।
अंग्रेजों ने एक नैरेटिव बनाया कि भारतीय संस्कृति और शिक्षा पद्धति बेकार है। इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। लम्बरदार खड़े किए गये। उनके मोहरों में पहले तो भीमराव सकपाल जो धार्मिक रूप से अपने को हीन समझते थे और दूसरे नेहरू जी जो सांस्कृतिक रूप से अपने को अंग्रेजों से कमतर पाते थे। साम्यता यह थी कि दोनों की शिक्षा इंग्लैंड में हुई थी। दोनों ही अंग्रेजी व्यवस्था के हिमायती थी।
नेहरू ने तो पंडित होकर गांधी जी की सहायता से राजनीतिक धरातल बना लिया था पर अंबेडकर
को लगता था शूद्र होने के नाते उनका वह मुकाम नहीं बन सकता लेकिन खिदमती दोनों अंग्रेजों के ही थे। इनके साथ अपने नैरेटिव को समाज में स्थापित करने का कार्य अंग्रेजों ने कर दिया। दोनों ने अपनी समझ में कमियों का कारण हिन्दू धर्म को कमतर माना। वहीं अंग्रेजों को अच्छे से पता था भारत की आधार शक्ति शूद्र रूपी शिल्पी हैं जिन्हें नष्ट करना है। इसमें खाद डालने का कार्य अंबेडकर और नेहरू कर रहे थे।
एक ने हिंदू धर्म का खुले में त्याग कर दिया तो दूसरे ने कहा उसे धर्म में कोई आस्था नहीं है। वैज्ञानिक सिद्धांत को स्वीकार कर दोनों ने भारत के स्वाभाविक आधार को गिरा दिया। लड़ाई शूद्र को नष्ट करने की थी, बदनाम ब्राह्मण को किया गया।
हिंदू वर्णव्यवस्था का मजबूत शिल्पी अब वंचित और दलित की कुलही पहना कर एक बार फिर जबर्दस्ती का दूल्हा बना दिया गया। भारत के अर्थतंत्र को ऐसा निचोड़ दिया गया कि जिस GDP को अंग्रेजों ने 1757 में 25% पर लिया था उसे 1947 में 2% पर छोड़ दिया। जो आजादी के इतने साल बाद आज 2020 में खूब तकनीकी और वैज्ञानिक विकास के बाद भी 1.8% पर रेंग रही है। दोनों मसीहा बन गये लेकिन भारत की स्थिति में कमोबेश कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
भीमराव को वाद चलाने के लिए बौद्ध चोगा क्यों पहनना पड़ा? उनको लग रहा था दलित की संख्या भारत में अधिक है तो हिन्दू धर्म के बराबर में खड़ा कर देंगे। लेकिन नवबौद्ध सिर्फ राजनीतिक धर्म बन कर ही रह गया जिसमें सामाजिक और भौतिक उत्थान निहित है।
अब पूछेगें अंग्रेजों को भारत में एजेंट खड़ा करने की क्या जरूरत थी? छोटी कमियों को बड़ी बुराई का आकार क्यों दिया गया?
अंग्रेज सनातन धर्म की ताकत जानते थे। आज भी पाश्चात्य जगत माहेश्वर सूत्र, वेद, चरक, सुश्रुत, वात्सायन आदि पर रिसर्च कर रहा है। यदि हिंदू आपस में बँटा रहेगा तो मात्र अपने ही वर्ग का हित चाहेगा। भारत की संस्कृति और मौलिक विज्ञान की ओर उसका ध्यान नहीं जा सकेगा।
भीमराव जिस जातीय अंहकार को तोड़ना चाहते थे, आज उनके ही महार जाति में जो अब अंबेडकर लिखते हैं, वे श्रेष्ठता का दम्भ भरे हुए हैं।
सकपाल अपनी आत्मकथा में व्यवस्था की आलोचना करते हैं। शूद्र वर्ग पर आंसू बहाते हैं लेकिन कभी भी शूद्र वर्ण का वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया। वह न तो संस्कृत भाषा के विद्वान थे और न ही शूद्र वर्ग के जानकर उन्होंने अंग्रेजों की थियरी को ही आगे बढ़ाया, मैक्समूलर के भारतीय ज्ञान को हुबहू उतार दिया।
भीमराव हीन भावना से कभी उबर नहीं पाये। उन्होंने कभी आगे बढ़कर छाती ठोककर स्वयं को शूद्र कहने की हिम्मत नहीं की। स्यात् ऐसा वह कह देते तो समाज में शूद्र एक वर्ग 1572 उपजातियों में विभाजित नहीं होता।
भारत की आर्थिक समस्या को धार्मिक रंग दिया गया। आज सभी नौकरी करना चाहते हैं, आखिर क्यूँ ? यह तो शुद्र वृत्ति ही है। आज नौकरी आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है, इस लिए सब नौकर बनना चाहते हैं।
आज नेता भी अपने को शासक नहीं सेवक कह रहा है। जात – कुजात सब की अभिलाषा रहती है नेता बनने की। यह समस्या आर्थिक थी। जब तक भारत का विश्व व्यापार पर कब्जा था, तब तक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सामाजिक दृष्टि से सामान थे। जब भारत के संसाधनों पर विदेशियों के कब्जा हो गया। साथ ही साथ ये विदेशी भारत में अपना आधार बढ़ाने के लिए नये वर्ग का सृजन कर रहे थे जिससे उनके हितों की रक्षा हो सके।
दलित, वंचित, वामपंथी, मॉडरेट, वैज्ञानिक मनोवृत्ति आदि गढ़े गये। इसका परिणाम भारतीयता के प्रतिकूल था किंतु विदेशी हितों का संवर्द्धन हुआ। अंग्रेजों ने भारत की खोज करके भारत के उद्धारक की छवि सकपाल और नेहरू जैसे नेताओं के माध्यम से बनवा ली। अंग्रेजों ने भारत को 200 साल लूटा, मुस्लिमों ने 800 साल लेकिन दोष भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर डाला गया।
रही – सही कसर वामपंथी इतिहासकार, वामपंथी लेखक और वामपंथी सिनेमा ने कर दी। आज भारत के बच्चे काले अंग्रेज बनना चाहते हैं शिवाजी, राणा या रानी लक्ष्मीबाई नहीं।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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