“नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः।।”
– मुण्डकोपनिषद ३/२/११
‘परम् ऋषियों को नमस्कार है, परम् ऋषियों को नमस्कार है।’
सप्तर्षियों का प्रादुर्भाव श्री ब्रह्मा जी के मानस संकल्प से हुआ है। सृष्टि के विस्तार के लिए ब्रह्मा जी ने अपने ही समान दस मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। उनके नाम हैं – मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा नारद।
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ – श्रीमद्भागवत महापुराण ३/१२/२२
ये ऋषि गुणों में ब्रह्मा जी के समान ही हैं, अतः पुराणों में ये नौ ब्रह्मा भी कहे गए हैं। – “नव ब्राह्मण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः॥” (विष्णु पुराण १/७/६)
विष्णुपुराण (१/७/५) में नारद जी का नाम पृथक लिया गया है और नौ की गणना हुई है।
भृगुं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुमङ्ग़िरसं तथा।
मरीचिं दक्षमत्रिं च वसिष्ठं चैव मानसम् ॥
यही आदि ऋषि – सर्ग है। ये ही ऋषि भिन्न – भिन्न मन्वन्तरों में नामभेद से सप्तर्षियों के रूप में अवतरित होते रहते हैं।
श्रीमद्भागवत में श्री सूत जी शौनकादि ऋषियों से कहते हैं कि ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी शक्तिशाली हैं, वे सब के सब भगवान श्री हरि के अंशावतार अथवा कलावतार हैं।
ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः।
कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयस्तथा ॥ – श्रीमद्भागवत १/३/२७
इस प्रकार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सप्तर्षिगण भी भगवान के ही अवतार हैं। सप्तर्षियों का परिगणन भगवद्भूतियों में हुआ है।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।। – गीता १०/४१
इन ऋषियों का प्रादुर्भाव ब्रह्मा जी के मानसिक संकल्प से उनके अनेक अंगों से हुआ है, अतः यह ऋषिसृष्टि मानससृष्टि या अंगिकसृष्टि अथवा सांकल्पित सृष्टि भी कहलाती है।
इनमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा की गोद से, दक्ष अंगूठे से, वशिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः ॥
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ – श्रीमद्भ० ३/१२/२३ – २४
ब्रह्मा जी से प्रादुर्भूत ऋषियों की इस सृष्टि को पुराणों में ऋषिसर्ग कहा गया है। प्रकारांतर से ये ऋषि ब्रह्माजी के ही आत्मरूप, अंशरूप हैं और उन्ही के अवतार हैं। सृष्टि के विस्तार तथा उसके रक्षण में इन ऋषियों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक मन्वन्तर में नामभेद से ये ही ऋषि सप्तर्षि होकर महाप्रलय में चराचर के सूक्ष्मतम स्वरूप और वनस्पतियों तथा औषधियों को बीज रूप में धारण कर विद्यमान रहते हैं, प्रलय में भी ये बने रहते हैं और पुनः नई सृष्टि में उसका विस्तार करते हैं। इस प्रकार से सप्तर्षिगण जीवों पर महान कृपा करते हैं। कदाचित ये स्थूल सृष्टि के सत्त्वांश और चैतन्यांश को धारण कर प्रलयकाल में सुरक्षित न रखते तो नवीन सृष्टि पुनः होना कठिन होती।
ये ऋषि भगवान के अनन्य भक्त हैं और उन्ही के कृपा प्रसाद से समर्थ होकर जीवों का कल्याण करते रहते हैं। ये एक रूप से नक्षत्रलोक में सप्तर्षिमण्डल में स्थित रहते हैं और दूसरे रूप में तीनों लोकों में विशेष रूप से भूलोक में स्थित रह कर लोगों को धर्माचरण तथा सदाचरण की शिक्षा देते हैं तथा ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, तप, भगवत्प्रेम, सत्य, परोपकार, क्षमा, अहिंसा आदि सात्विक भावों की प्रतिष्ठा करते हैं।
प्रति चार युग (सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि) बीतने पर ‘वेदविप्लव’ होता है। इसीलिए सप्तर्षिगण भूतल पर अवतीर्ण होकर वेद का उद्धार करते हैं। सप्तर्षिमण्डल आकाश में सुप्रसिद्ध ज्योतिर्मंडलों में है। इसके अधिष्ठाता ऋषिगण लोक में ज्ञान परंपरा को सुरक्षित रखते हैं। अधिकारी जिज्ञासु को प्रत्यक्ष या परोक्ष, जैसा वह अधिकारी हो, तत्वज्ञान की ओर उन्मुख कर के मुक्तिपथ में लगाते हैं।
ये सभी ऋषि कल्पान्तचिरजीवी, त्रिकालदर्शी, मुक्तात्मा और दिव्य देहधारी होते हैं। ये स्थितप्रज्ञ तथा अतिन्द्रीयद्रष्टा हैं। पुराणों में इन्हें ब्रह्मवादी और गृहमेधी कहा गया है (वायुपुराण)। गृहस्थ होते हुए भी ये मुनिवृत्ति से रहते हैं। ये सत्य, धर्म, ज्ञान, शौच, संतोष और ब्रह्मतेज से सम्पन्न होते हैं। यज्ञों द्वारा देवताओं का आप्यायन और नित्य स्वाध्याय इनकी मुख्य चर्या रहती है।
अगले भाग में मन्वन्तर और सप्तर्षि
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