मन्वन्तर और सप्तर्षि

spot_img

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक

सप्तर्षियों का अवतरण से आगे …

अलग – अलग मन्वन्तरों में सप्तर्षि बदल जाते हैं। मनुकाल ही मन्वन्तर कहलाता है। ब्रह्मा जी के एक दिन (कल्प) में चौदह मनु होते हैं। चौदह मनु तथा मनुपुत्र एक – एक कर समस्त पृथ्वी के राजा होकर धर्म पूर्वक प्रजा का पालन करते हैं। मनुओं के नाम के अनुसार ही चौदह मन्वन्तरों के चौदह नाम पड़े हैं। इन चौदह मनुओं में प्रथम मनु का नाम स्वायम्भुव मनु है।

भगवान विष्णु के नाभिपद्म से चतुर्मुख ब्रह्मा जी ने आविर्भूत होकर मैथुनी सृष्टि के संकल्प को लेकर अपने ही शरीर से स्वायम्भुव मनु तथा महारानी शतरूपा को प्रकट किया। ये आदि मनु ही प्रथम मनु हैं, जिनके नाम से स्वायम्भुव मन्वन्तर पड़ा। कल्पभेद से मन्वन्तरों के नाम में भी अंतर मिलता है।

प्रत्येक मन्वन्तर में सप्तर्षि भिन्न – भिन्न नाम रूपों से अवतरित होते हैं। पुराणों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। उदाहरण के रूप में विष्णु पुराण में चौदह मन्वन्तरों के सप्तर्षियों का नाम दिए गए हैं।

इसप्रकार चौदह मन्वन्तरों में सप्तर्षियों का परिगणन पृथक – पृथक नाम – रूपों में हुआ है। इन ऋषियों की अपार महिमा है, ये सभी तपोधन हैं।

ऋषियों ने वेदमंत्रों का दर्शन किया है, इसीलिए ‘ऋषयो मंत्रद्रष्टारः’ कहा गया है। ऋषि कौन हैं? इसकी व्याख्या में बताया गया है कि ऋषि वेदमंत्रों के द्रष्टा और स्मर्ता हैं। इसीलिए वेदों को अपरुषेय कहा गया है। “ऋषिर्दर्शनात् स्तोमान् ददर्श” (निरुक्त नैगमकाण्ड २/११) आदि कहा गया है।

यह वैदिक सिद्धांत है कि वेद का अध्ययन ऋषि, छन्द, देवता और विनियोग के अधिष्ठान के साथ करना चाहिए। आचार्य शौनक कहते हैं :

एतान्यविदित्वा योऽधीतेऽनुब्रूते जपति जुहोति यजते याजयते तस्य ब्रह्म निर्वीर्यं यातयामं भवति…। (अनुक्रमणी १/१)

अर्थात जो मनुष्य ऋषि, छन्द, देवता और विनियोग को जाने बिना वेद का अध्ययन, अध्यापन, जप, हवन, यजन, याजन आदि करते हैं उनका वेदाध्ययन निष्फल तथा दोषयुक्त होता है।

इसप्रकार ऋषियों के स्मरण की विशेष महिमा है। प्रातः काल जगने के अनन्तर ऋषियों के नाम – स्मरणपूर्वक उनके मंगल की कामना की जाती है।

भृगुवाशिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च,
मनुः पुलस्त्यः पुलहश्च गौतमः।
रेभ्योः मरीचिश्च्यवनश्च दक्षः,
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ – वामनपुराण

वेदों में तो सप्तर्षियों की महिमा का बार – बार प्रख्यापन हुआ है। वहां सात संख्या का परिगणन ऋषियों के एक विशेष वर्ग के लिए हुआ है।

ब्रम्हर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि तथा रजर्षि – इन सात रूपों में भी ऋषियों का विभाजन है। जैसे ४९ मरुद् देवताओं का सात – सात का वर्ग है, वैसे ही ऋषियों में भी सात ऋषियों के वर्ग हैं, जो सप्तर्षि कहलाते हैं। सात की संख्या की विशेष महिमा है। इस ब्रह्मांड में सात लोक ऊपर और सात लोक नीचे हैं, सात ही सागर हैं, वेद के गायत्री, उष्णिक् आदि सात छन्द ही मुख्य हैं, भगवान सूर्य सप्तश्ववाहन कहे जाते हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में सात की संख्या का विशेष परिज्ञान कराया गया है।

“सप्त ते अन्गे समिधः सप्त जिह्वाः” – यजुर्वेद १७/७९

उपनिषद के एक मंत्र में भी सात की संख्या का अवबोधन कराया गया है।

सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्‌,
सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा,
गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ॥ – मुण्डकोपनिषद २/१/८

यज्ञ में छंदोमय सात परिधियाँ तथा सात – सात की संख्या में समिधाएं बताई गई हैं।

“सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृतः” (यजुर्वेद ३१/१५)

सप्तशती तथा सप्ताह आदि में भी सप्त पद निहित है।

प्रातः स्मरण के एक मांगलिक श्लोक में सप्तर्षियों तथा सात सात की संख्या वाले पदार्थों से प्रभात को सुप्रभात बनाने की प्रार्थना की गई है –

सप्त स्वराः सप्त रसातलानि,
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम।

सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च,
सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त।

भूरादिकृत्वा भुवनानि सप्त,
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम॥
– वामनपुराण

अर्थात षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद – ये सप्त स्वर, अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल तथा पाताल, ये सात अधोलोक सभी मेरे प्रातःकाल को मंगलमय करें। सातों समुद्र, सातों कुलपर्वत, सप्तर्षिगण, सातों वन तथा सातों द्वीप, भूलोक, भुवर्लोक आदि सातों लोक, सभी मेरे प्रातः काल को मंगलमय करें।

इसी आशय से ऋषियों की सात की संख्या को लेकर एक विशेष वर्ग है, जो सप्तर्षि कहलाता है।

सप्तर्षियों की आराधना – वेदों के अनेक मंत्रों में सप्तर्षियों की प्रार्थना की गई है। तर्पण में नित्य ऋषितर्पण तथा श्रावणी के दिन ऋषियों का तर्पण तथा विशेष पूजन होता है। वेदों में प्राप्त सप्तर्षियों की प्रार्थना के मुख्य मंत्र का भाव यह है कि सप्तर्षिगण सूक्ष्म रूप से इस देह में भी विद्यमान रह कर देव रूप होकर इसका संचालन करते हैं। ये सात ऋषि प्राण, त्वचा, चक्षु, श्रवण, रसना, घ्राण तथा मन रूप से देह में स्थित रहते हैं और सुषुप्तिकाल में देह में व्याप्त रहते हुए भी हृदयाकाश स्थित विज्ञानात्मक ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाते हैं –

सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम् ।
सप्तापः
स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ।। – यजुर्वेद ३४/५५

इसके साथ ही यजुर्वेद १३/५४ – ५८ में सप्तर्षियों के पूजन में मंत्र आये हैं। भाद्रपद शुक्ल पंचमी ऋषिपंचमी के नाम से विख्यात है, इस दिन इनकी विशेष पूजा आराधना की जाती है तथा सातों ऋषियों की पृथक पृथक यथाशक्ति स्वर्णादि की प्रतिमा बनाकर उनकी पूजा की जाती है।

“अरुन्धतीसहितसप्तऋर्षिभ्यो नमः” इस नाम मंत्र से भी एक साथ यजन किया जा सकता है। इनके ध्यान में बताया गया है कि ये ऋषिश्रेष्ठ ब्रह्मतेज और करोड़ो सूर्यों की आभा से सम्पन्न हैं।

कश्यपोऽत्रिरर्भरद्वाजो विश्वामित्रऽथ गौतमः।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च अरुन्धत्या सहाष्टकाः।।
मूर्ति ब्रह्मण्यदेववर्षेर्बह्मण्यं तेज उत्तमम्।
सूर्यकोटिप्रतिकाशमृषिवृन्दं विचिन्तयेत्।। – वर्षकृत्यदीपक

कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा वशिष्ठ – ये वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं। महर्षि वशिष्ठ जी के साथ उनकी धर्मप्राणा देवी अरुंधति भी साथ में ही सप्तर्षिमण्डल में स्थित रहती हैं। महाभागा अरुंधति के पातिव्रत्य की अपार महिमा है, इसी के बल पर ये सदा वशिष्ठ जी के साथ रहती हैं। सप्तर्षियों के साथ देवी अरुंधति का भी पूजन होता है। अखंड सौभाग्य तथा श्रेष्ठ दाम्पत्य के लिए इनकी आराधना होती है।

आकाश में सप्तर्षिमण्डल कहाँ स्थित है, इस विषय में श्रीमद्भागवत ५/२२/१७ में बताया गया है कि नवग्रहों के लोकों से ऊपर ग्यारह लाख योजन की दूरी पर कश्यप आदि सप्तर्षि दिखाई देते हैं। ये सब लोकों की मंगलकामना करते हुए भगवान विष्णु के परम् ध्रुवलोक की प्रदक्षिणा किया करते हैं।

तत उत्तरस्मादृषय एकादशलक्षयोजनान्तर उपलभ्यन्ते य एव लोकानां शमनुभावयन्तो भगवतो विष्णोर्यत्परमं पदं प्रदक्षिणं प्रक्रमन्ति ॥ 

आकाश में सप्तर्षिमण्डल के उत्तर में ध्रुवलोक स्थित है। इसप्रकार सप्तर्षिमण्डल में स्थित रहकर ये सप्तर्षिगण जीवों के शुभाशुभ कर्मो के साक्षी बनते हैं और भगवान की अवतरण लीला में सहयोगी बनते हैं। भगवान श्री राम आदि की लीला में महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम तथा अत्रि आदि ऋषि सहयोगी रहे हैं। ऐसे ही अन्य अवतारों में भी  ऋषिगण भगवान की भक्ति करते हैं और उनके कृपाप्रसाद से जगत के कल्याण कार्य में सतत चेष्टारत रहते हैं। भगवान के लीलासंवरण के अनन्तर भी ये उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म की मर्यादा को सुरक्षित रखने के लिए कल्पपर्यंत बने रहते हैं और पुनः अवतरित होते हैं।

image credit: flickriver

***

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
Disclaimer: The opinions expressed in this article are the author’s own and do not reflect the views of the संभाषण Team. The author also bears the responsibility for the image/images used.

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक

कुछ लोकप्रिय लेख

कुछ रोचक लेख