इदमन्धतमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्।
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते॥ – काव्यादर्श १.४
यह समूचा तीनों लोक घने अंधेरे में डूबा रहता, अगर ‘शब्द’ नामक ज्योति पूरी दुनियां में प्रदीप्त न रहती।
सृष्टि से पूर्व केवल अंधकार ही था। तम आसीत् तमसा गुढ़मग्रे – ऋग्वेद १०.१२९.३
धरती और अंतरिक्ष बनाने के पश्चात प्रजापति ने कहा – “स्वः” और फैल गया दुनियां में सूर्य का प्रकाश।
सः सुवरिति व्याहरत्। स दिवमसृजत् – तैत्तिरीय ब्राह्मण २.२.४.३
ऐसी ही बात अन्यत्र बाइबिल में भी मिलती है :
And God said, Let there be ‘light’ and there was light. – Old Testament, Genesis 1.1
बृहदारण्यक उपनिषद में राजा जनक ने याज्ञवल्क्य से पूछा कि यह मनुष्य अपने कार्य आदि करने के लिए किस ज्योति को रखता है? किंज्योतिरयं पुरुषः – बृहदारण्यक उपनिषद ३.४.३.२
इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य ने कहा कि राजन! यह सूर्य की ज्योति ही है। इसके सहारे ही मनुष्य अवस्थिति प्राप्त करता है। अपने विभिन्न कार्यों के लिए दूर-दूर तक जाता है और वहां से लौट भी आता है।
आदित्यज्योतिः सम्राडिती होवाच।
आदित्येनैवायं ज्योतिषाऽऽस्ते पल्ययते, कर्म कुरुते, विपर्यति। – बृहदारण्यक उपनिषद ३.४.३.२
पर इसपर भी प्रश्न है कि सूर्य के डूब जाने पर यह मनुष्य किसका सहारा लेता है? अमावस्या में चंद्रमा के भी उदित न होने पर घनी काली रात में, अपने पास कोई अग्नि या प्रदीप आदि न रहने की स्थिति में यह मनुष्य किस ज्योति से संचालित होता है?
इसके उत्तर में कहा गया है कि इस दशा में तो वाणी ही सबसे बड़ी ज्योति है। इसके सहारे मनुष्य अपना सब काम कर सकता है।
वागेवास्य ज्योतिर्भवति।
वाचैवायं ज्योतिषाऽऽस्ते, पल्ययते। कर्म कुरुते, विपर्यति। – बृहदारण्यक उपनिषद ३.४.३.५
यहां प्रकाश के समान संकेतक होने के कारण वाणी को भी ज्योति कहा गया है। यह संकेतक प्रकाश से भी अधिक व्यापक है। प्रकाश सूरज, चाँद आदि का सहारे रहता है पर यह ध्वनि नामक संकेतक तो प्रकाश रहने पर भी तथा घनघोर अंधेरे में भी हमारे हाथ में रहता है तथा ताली बजाते ही संकेत देने की क्षमता रखता है।
पाणिनि ने ऐसे अंधेरे रास्तों के लिए एक अलग ही नाम दिया है, जहां हाथ की ताली बजा कर काम चलाया जाता हो (अष्टाध्यायी सूत्र ३.२.३७)।
संस्कृत में अंधेरे के लिए एक शब्द ही है – ‘ध्वान्त’। यह मूलतः उसी ‘ध्वन्’ धातु से विकसित है, जिससे ध्वनि शब्द निर्मित हुआ है। इस धातु की एकता से यह संकेत मिलता है कि अंधेरे में ध्वनि का ही साथ होता है। प्रकाश रूपी ज्योति के न रहने पर इस दूसरी सबसे बड़ी ज्योति का साथ स्वाभाविक ही है।
मानव के उद्भव काल से प्रकाश के पश्चात ध्वनि नामक संकेतक ने ही इसे सर्वाधिक प्रभावित किया है। इससे वह भय, विषाद, आश्चर्य, प्रसन्नता आदि सब कुछ प्राप्त करता रहा है।
इस ध्वनि के इतिहास में क्रांति तब आई जब मनुष्य के मुख से निकले अक्षर तथा कुछ निश्चित आनुपूर्वी वाले अक्षर-समूह किसी विशेष पदार्थ का प्रतीक बनने लगे। कौवे के आवाज के अनुकरण पर इसे ‘काक’ का नाम दिया, कोयल की कू-कू आवाज ध्वनि पर इसे कोयल कहा गया, आदि।
ध्वनि से भाषा बनने का इतिहास कितना पुराना है यह हम नहीं जानते, हम यह भी नहीं जानते कि इसका विकास किस प्रकार से हुआ। हम विश्व के प्राचीनतम इतिहास को भाषा के द्वारा जान पाते हैं पर खुद भाषा के इतिहास को कैसे जाने? उपनिषदों के एक भावपूर्ण श्लोक में कहा गया है कि ब्रह्म वह है जो वाणी द्वारा नहीं कहा जा सकता, अपितु स्वयं वाणी ही जिसके द्वारा कुछ कह पाती है (केनोपनिषद १.४)। शब्द को भी ब्रह्म कहा गया है। इसी प्रकार यहां भी कहना पड़ेगा कि भाषा वह है जो स्वयं वाणी द्वारा नहीं कही जा सकती पर जो विश्व की घटनाओं के लिए वाणी प्रदान करती है।
स्थिति कुछ भी हो पर यह तय है कि मानव के यात्रा-पथ पर भाषा नामक संकेतक की प्राप्ति एक बहुत बड़ी उपलब्धि रही है। भाषा जहां एक ओर मानव के अमूर्त विचारों तथा संदेशों को वर्तमान में एक दूसरे तक पहुंचाने का उपाय बनी तो दूसरी ओर इन्हें भविष्य के लिए भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने का माध्यम भी बनी।
भारत में इस ध्वनि अथवा भाषा को जितना महत्व दिया गया, उतना विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त होता है। उपनिषदों में सृष्टि का जो सबसे पहला विभाजन उपलब्ध होता है, उसमें ‘नाम’ के अंतर्गत केवल ध्वनि या भाषा को अलग किया गया तथा ‘रूप’ के अंतर्गत समाहित की गई पूरी दुनियां।
अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि। – छान्दोग्य उपनिषद ६.३.२
इसी प्रकार दर्शन में भी विश्व की सभी वस्तुओं को ‘पद’ से भिन्न ‘पदार्थ’ में समाविष्ट किया। विश्व के इतिहास को देख कर आश्चर्य होता है कि जब हजारों वर्षों तक विश्व के लोग इस ‘रूप’ या ‘पदार्थ’ की सुरक्षा में जुटे रहे, तब भारतीय मनीषा केवल ‘नाम’ या ‘पद’ को संजोने में ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाती रही। मिश्र के पिरामिड, ओलंपिया की मूर्ति आदि उदाहरण हैं।
भारत में क्या हुआ?
यह देख कर अचरज होता है कि भारत में सम्राट अशोक से पूर्व के अभिलेख या स्थायी मूर्ति आदि सामान्यतः उपलब्ध नहीं होते। भारत के ऋषि, मुनियों ने भली प्रकार जाना था कि अंततः प्रयत्न करने पर भी भौतिक वस्तुओं तथा मनुष्य के शरीर को स्थिर नहीं रख जा सकता। जो कुछ स्थिर रह सकता है, वह है उसके विचार, उसके चिंतन, जिससे आगे के लोगों को प्रकाश तथा मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। इसलिए भारत के ऋषियों ने इन अमूर्त विचारों की एक वाहिका तैयार की – ज्योतिर्मयी वाणी!
उसे सजाया, संवारा और पूरे प्रयत्न से उसकी सुरक्षा में जुट गए। उन्होंने जाना कि जैसे ‘मनोरथ’ शब्द के अनुसार मन का रथ इच्छा है, वैसे ही विचारों का रथ वाणी है तथा ‘वाङ्मय‘ वाणी का बना हुआ वह विशाल महल है जिसमें सम्पूर्ण चिंतन भाषा का आकार धारण करके स्थिर स्थान पाता है। आज से हज़ारों वर्ष पूर्व निरुक्तकार यास्क ने इस प्रकार के अनूठे महल के बहुमूल्य खजाने को ‘शेवधि’ बताया था तथा इसकी हर मूल्य पर सुरक्षा के प्रयत्न करने को कहा था।
विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि – निरुक्त
अर्थात, एक बार विद्या ब्राह्मणों के पास पहुंची तथा उनसे कहा कि मेरी सुरक्षा करो, मैं तुम्हारा खजाना हूँ।
भारत में इस अद्भुत ‘वाणी-महल’ की सुरक्षा केवल बोल कर तथा सुन कर की गई इसलिए इसे ‘श्रुति’ का नाम दिया गया जिन्हें हम ‘वेद’ कहते हैं।
vedas ko pripaya hindi mein likhen ji
मन का रथ इच्छा है विचारों का रथ वाणी ~अद्भुत