आज हम जल को एक ‘वस्तु’ से अधिक कुछ नहीं मानना चाहते हैं। जल ही जीवन है, गङ्गा बचाओ, यमुना बचाओ आदि नारे से अधिक कुछ नहीं लगते।
हम भूल जाते हैं कि विश्व में मानव जाति का इतिहास एक दृष्टि से जल की उपलब्धता का इतिहास है। विश्व की प्रमुख सभ्यताएँ नदियों के तट पर विकसित हुई हैं। नील नदी के पास मिश्र की सभ्यता, ह्वांग या पीली नदी के तट पर चीन की सभ्यता तथा सिन्धु नदी के समीप सिन्धु सभ्यता इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
संस्कृत में ‘समीप‘ शब्द का प्रयोग सबसे पहले ‘जल के निकट‘ अर्थ को प्रकट करने के लिये ही प्रचलित हुआ था। “द्वयन्तरुपसर्गेभ्योऽप ईत्” (अष्टाध्यायी सूत्र ६.३.६७) के अनुसार ‘सम् +अप्‘ से यह शब्द विकसित है।
जल को मानव-सभ्यता का मूल मानते हुए ऋषियों ने बार-बार इस मन्त्र का पारायण किया था –
उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्।
– यजुर्वेद २६.१५
धिया विप्रो अजायत।
अर्थात् पर्वतों की ऊँचाइयों में तथा नदियों के संगमों में विप्रजन उच्च बुद्धि से ओत-प्रोत हुए थे।
वेद में जल को एक देवी का रूप दिया गया है तथा उससे शान्ति की इस प्रकार से प्रार्थना की गई है –
शन्नो देवीरभिष्टयऽ आपो भवन्तु पीतये।
– यजुर्वेद ३६.१२
शं योरभि स्रवन्तु नः।
हमारे शास्त्रों में जल तथा नदियों की प्रशंसा में इतने अधिक वचन हैं कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती। निरुक्ताकार यास्क ने जल के १०० नामों के अन्तर्गत ‘भूत’, ‘भुवन’ तथा ‘भविष्यत्’ इन पर्याय नामों की गणना करते हुए परोक्ष रूप से यह माना कि यह विश्व जलस्वरूप है। इस दुनियाँ में मानव का इतिहास जल का इतिहास है तथा इसका भविष्य भी सर्वथा जल पर अवलम्बित है।
यह आकस्मिक नहीं है कि हमारे देश के सबसे महान् संस्कृत कवि अपने नाटक का प्रारम्भ जल को सृष्टि की आद्य रचना बताते हुए उसकी प्रार्थना से करते हैं।
या सृष्टिः स्रष्टुराद्या, वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री।
– महाकवि कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम् का प्रथम मंगल श्लोक।
हमारे धर्मशास्त्र नदियों की प्रशंसा करते अघाते नहीं हैं तथा सिन्धु को गङ्गा से तथा गङ्गा -जल को कावेरी के जल से जोड़ने को अपना परम कर्तव्य बताते हैं –
गङ्गा च यमुना चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥
उनके इस वचन से तो ऐसा लगता है मानो नदियों में मानव के प्राण बसते हों तथा इन नदी-जलों को जोड़ कर वे सब के प्राणों को एक साथ जोड़ रहे हों। नदियों के स्पन्दन के साथ हृदय के स्पन्दन को प्रकट करने का इससे बढ़िया क्या उपाय हो सकता है!
कहने को आज हम जल के विषय में पहले से अधिक जानते हैं। पर जल के प्रति हमारी संवेदनाएँ उतनी ही कम हो चुकी हैं। हम अर्थशास्त्र के नियमों के द्वारा दुर्लभता के आधार पर इसका मूल्य तय करना चाहने लगे हैं, उपयोगिता के आधार पर नहीं।
इस परिस्थिति को रोकने के लिये प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर जल के प्रति संवेदना जागृत करनी होगी। हमें यह भली प्रकार अनुभव करना होगा कि मानव का भूत और भविष्य दोनों जल पर अवलम्बित है। आज यह भली प्रकार समझ लेने की आवश्यकता है कि यदि विश्व में ऊर्जा का स्रोत एकमात्र सूर्य है तो प्रकृति ने समूचे प्राणि-जगत् की छोटी से छोटी कोशिका के निमित्त इस ऊर्जा को निरन्तर उपलब्ध कराने के लिये जो सबसे बढ़िया माध्यम चुना है, वह है – जल!