हम भारतियों को इतिहास से सीख लेने की आवश्यकता है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि मुस्लिमों ने भारत में सामाजिक और धार्मिक लूट की जबकि ईसाई-अंग्रेज ने सांस्कृतिक लूट की और इस सांस्कृतिक लूट को स्थायी बनाने के लिए मैकाले ने नई शिक्षा नीति को लागू किया। जिसके माध्यम से उसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ही साम्प्रदायिक और पंगू बना दिया। अब इसके लिए यह भी जरूरी था कि इस नीति को भारतीयों द्वारा समर्थन किया जाय जिसमें राजा राम मोहन राय और केशवचंद सेन ने मुख्य भूमिका निभाई।
अंग्रेजी शिक्षापध्दति का उद्देश्य था, उपनिवेशों की आवश्यकता को पूरा करने वाले लोगों को तैयार करना। साथ ही जो अपनी संस्कृति और माता – पिता को गाली दे सके। वह व्यक्ति देखने में भारतीय हो लेकिन मन से अंग्रेज हो। इन्ही को काला अंग्रेज कहा गया।
भारत के शास्त्र, शिक्षा पध्दति और शासनव्यवस्था पर भारतीयों द्वारा ही लांछन लगाया गया। गौरवमयी संस्कृति, जो कि विश्व बंधुत्व, शांति, अहिंसा और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ पर आधारित थी, उस को काले अंग्रेज, आधुनिकता का आलम्बन लेकर गाली देने लगे। कई तरह के वाद को भारत में पिरोया गया जिससें युवा वर्ग भ्रमित होकर ईसाइयों को ही अपना उद्धारकर्ता मानने लगा।
ईसाइयों की नीतियां स्थाई हो इसके लिए जरूरी था भारतीय नेताओं का भी समर्थन। जिन्होंने अंग्रेजी व्यवस्था को सही माना उन्हें ही नेता की मान्यता दी गई। वह नेता एक कदम आगे बढ़ कर, मानवतावादी, समाजवादी, साम्यवादी हो गये।
सनातनी का विश्वास गायब होता रहा।
इस एक बात में आप गांधी जी को धन्यवाद दे सकते हैं कि उन्होंने रामराज्य का आदर्श और चिंतन विश्व को दिखाया, भले ही वह लोकतंत्र की चिचिआहट में दब गया। इसके कारण थे गांधी के वह उत्तराधिकारी जिन्होंने सत्ता पाने के बाद रामराज्य की कल्पना को कुचल दिया। राम और कृष्ण को कपोल कल्पित बताने लगे। व्यक्ति और शरीर के रूप में गांधी को भले ही गोडसे ने गोली मारी किंतु वैचारिक और नीतिगत स्तर पर उन्ही के शिष्यों ने उनका कत्ल कर दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि गांधी का राम राज्य महज एक कल्पना है। किसीने उनको राष्ट्रपिता बनाया और कोई स्वयं अपने को राष्ट्र का चाचा घोषित कर लिया।
स्वतंत्रता के बाद काले अंग्रेजो का शासन वेद, शास्त्र और राम, कृष्ण की परंपरा को त्यागकर धर्मनिरपेक्षता की दुंदुभी बजाने लगा। सनातन परंपरा की बात करने वाले मूर्ख कहे गये। आर्य भारत के बाहर से थे, वेद आदि शास्त्र लोगों की समानता की बात नहीं करते हैं और अंग्रेजों ने ही भारत का विकास किया जैसी उद्घोषणा स्वतंत्र भारत में दरबारी इतिहासकारों के माध्यम से कराई गई। इतिहासकार रोमिला थापर का कहना है कि युधिष्ठिर ने त्याग की भावना अशोक से सीखी थी। अब स्वयं विचार करिये करिये कि भारतीय इतिहास में कितनी मिलावट और कितना षड्यंत्र शामिल है।
जिस चीज को जिस तरह समाहित किया जाता है उसका उसी प्रकार निराकरण होता है। अब भारत के इतिहास को पुनः लिखने की जरूरत है। नेहरू ‘भारत एक खोज’ में मोहनजोदड़ो की बात करते समय धर्मनिरपेक्षता के अपने अतिउत्साह पर काबू नहीं रख पाए उन्होंने लिखा ‘इस शक्ति का रहस्य क्या था? यह कहाँ से आया? धार्मिक तत्व विद्यमान होने के बाबजूद वह हावी नहीं था और सभ्यता मुख्य रूप से धर्मनिरपेक्ष थी।’
यह विदेशी छाया और विदेश में पढ़े व्यक्ति पर पाश्चात्य का प्रभाव था क्योकि जब ईसाई और मुस्लिम का जन्म भी नहीं हुआ था उस समय सिर्फ सनातनी थे, उसमें भी उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की खोज कर ली। यह बताता है कि उनके मस्तिष्क पर अंग्रेज और अंग्रेजी सभ्यता का कितना जबरदस्त प्रभाव था।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
***