सुख, विजय है या सुख का अभाव दूसरे पर विजय के लिए उकसाता है? क्या सुख विजय का अंत है? विजय तो स्वयं को बंधनों से मुक्त करना है, स्वयं को जानना ही सच्ची विजय है। सच को जान लेना ही अमरत्व है, सभी भयों से मुक्ति ही अमरत्व है।
मृत्यु का भय, असुरक्षा, दुःख, पीड़ा का भय, जो पास है उसके खोने का भय, जिसका पता नहीं है या जो अज्ञात है, उसका भय। इसी अज्ञात के लिए योद्धा रण भूमि में प्राण देते हैं, ऋषि वन के गहरे अंधकार में उतर जाते हैं।
प्रेम, स्नेह, ममता भी बंधन है?
पति को पत्नी से इसलिए प्रेम नहीं है कि वह उसे प्रिय है बल्कि वह स्वयं से प्रेम करता है इसलिए पत्नी से प्रेम करता है। पत्नी उसकी जरूरतें पूरी करती है जिससें उसको सुख मिलता है। पत्नी भी पति से इसलिए प्रेम नहीं करती है कि वह प्रिय है बल्कि वह उसकी जरूरतें पूरा करता है जिससे उसको सुख मिलता है और वह स्वयं से प्रेम करती है इसलिए वह पति से प्रेम करती है।
संसार, धन और पुत्र से भी प्रेम का कारण उनकी जरूरतें हैं जिससे उनको सुख मिलता है इसलिए वह उनसे प्रेम करते हैं।
मैं हर उस व्यक्ति और वस्तु से प्रेम करता हूं जो मुझे सुख देती है क्योंकि मैं स्वयं से प्रेम करता हूं इसीलिए मेरा स्वभाव ही आनंद है। यह आत्मा आनंद का स्वरूप है और यह समस्त संसार स्वयं के लिए है।
जब मैं समस्त सुख – दुःख को छोड़ देता हूं या परे चला जाता हूं जैसे “निष्काम योगी” हो जाता है तब मैं स्वयं को जान सकता हूँ, आत्म साक्षात्कार कर सकता हूं, तभी मैं ऊपर उठ सकता हूँ, तभी दिव्य स्वरूप को जान सकता हूँ। इसे कोई ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ तो कोई ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कोई ‘जाग्रत की अवस्था’ तो कोई ‘पूर्ण’ तो कोई ‘एकाकार’ कहता है। एकत्व, पूर्णत्व, आत्मत्व, स्वरूपत: हो जाता है। इस लिए बन्धु महत्वपूर्ण प्रश्न है स्वयं को जानना, यह जीवन कहीं ऐसे ही न बीत जाएं।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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